आध्यात्मिक सत्पुरुष _ - A Hera Taps

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AHera Taps कक = भावपरण परवचन.# परकाशक प. टोडरमल समारक टरसट ए-4, बापनगर, जयपर आधयातमिक सतपरष _ sot ty < > ee

Transcript of आध्यात्मिक सत्पुरुष _ - A Hera Taps

A Hera Taps कक

= भावपरण परवचन. #

परकाशक

प. टोडरमल समारक टरसट ह ए-4, बापनगर, जयपर

आधयातमिक सतपरष _

sot

ty < > ee

आचारय शरी पदमननदी दवारा रचित पदमननदि--पचविशतिका क

दशबरतोदयोतत अधिकार पर पजय शरी कानजी सवामी क भावपरण परवचन

शरावकथधरम परकाश

सकलन :

tq. a Bene

अनवाद :

सोनचरण जन, सनावद wt

परमचद जन, एम.काम.,, सनावद

परकाशक :

शरीमती नाजकबाई सोनचरण, सनावद एव

Usd टोडरमल समारक टरसट ए - ४, बापनगगर, जयपर -- ३०२०१५

परथम आठ ससकरण > १९ हजार ४००

(१९६८ स अदयतन )

नवम ससकरण i ३ हजार

(१५ अगसत १९९९ )

योग :.. २२ हजार ४००

मलय : आठ रपए

मदरक दि

ज. क. ऑफसट परिटरस

जामा मसजिद,

दिल‍ली - ६

परकाहाकीय

पजय शरी कानजी सवामी दवारा परवाहित अधयातम धारा म

समयसार, परवचनसार तथा नियमसार जस आधयातमिक गरथराजो

पर हए उनक परवचनो का परकाशन तो हो ही रहा ह, परनत सवामी जी क वयकतितव स परणतः परिचित होन क लिए उनक चरणानयोग क पोषक गरथो पर हए परवचन भी अवशय पठनीय ह।

आचारय पदमननदि दवारा विरचित पदमननदि पचरविशतिका

पर पजय सरदवशरी न तीन बार परवचन किय ह। इस गरथ का दशबरतोदयोतन अधिकार सवामीजी का बहत परिय अधिकार था। इस अधिकार पर हए परवचनो का सकलन सव. बर, हरिभाई,

सोनगढ न बहत ही सनदर ढग स गजराती भाषा म किया था। उसक आधार स शरी सोनचरणजी जन एव शरी परमचनदजी जन

सनावद वालो न उसका हिनदी अनवाद किया जो अदिकल रप स परकाशित किया गया ह।

डस पसतक म शरावक क धरम का परकाश सविशद रीति स !कया गया ह। शरावक की चरया कसी होना चाहिए इस समबनध म अनक शरानतिपरण धारणाए समाज म वयापत ह उन सबक निराकरण म पजय गरदव शरी क य परवचन परण समरथ

ह। यही कारण ह कि समाज म यह कति काफी लोकपरिय ह, इस पसतक क अनक ससकरण परकाशित होकर जनसामानय तक पहच चक ह ।

यह पसतक और अधिक जनोपयोगी बन इस भावना स इस ससकरण म कछ आवशयक परिवरतन भी किय गए ह। यदयपि य परिवरतन कोई फर बदल क नही ह, अपित पाठको को पढन म

सविधा at ga gf S fd ay 81 GS as—as teat oI तोडा गया ह, शबदो क साथ जडी हई मातराए अलग की गई ह| कतिपय सथानो पर भाषा की दषटि स भी कछ आवशयक सधार परतीत हआ तो वहा वाकय विनयास म भी कछ सशोधन किय गए ह तथा कछ शीरषक भी बदल गए ह |

पदमननदि-पचविशतिका क दशवरतोदयोतन अधिकार म 27 शलोक ह अतः परतयक अधिकार क परारभ म मल शलोक तथा उसका सामानयारथ दिया गया ह। उसक बाद शलोक का परवचन दिया गया ह। खाली सथान पर सपरमाण कोटशन भी दिए गए ह। आशा ह पाठकगण लाभानवित होग।

परसतत पसतक क परकाशन का दायितव सदा की भाति परकाशन विभाग क परभारी शरी अखिल बसल न समहाला ह, अतः व धनयवाद क पातर ह। जिन महानभावो न पसतक की कीमत कम करन म अपना आरथिक सहयोग परदान किया ह उनका हम हदय स आभार मानत ह। दातारो की सची अनयतर परकाशित ह। आशा ह आप सभी इस पसतक क माधयम स अपन भव का अभाव करन का मारग परशसत करग। इसी भावना क साथ -

मतरी. महामतरी

सोनचरण लाल जन नमीचद पाटनी शरीमती नाजकबाई सोनचरण पणडित ठोडरमल समारक टरसट

सनावद जयपर

करमाक

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परिशिषट

शरावकधरमपरकाश

विषय-सची विषय

शरावकथरमपरकाश (भमिका)

सरवजञदव की शरदधा

समयगदषटि की परशसा

समयगदरशन की दरलभवा

शरावक क छह आवशयक

समयादरशनपरवक शरावक क वरत

शरावक क बारह वरत

सतपातरदान की परमखता

आहारदान का सवरप

औषधिदान का सवरप

जञानदान का सवरप अभयदान का सवरप

दान का फल

गहसथ दान क‍यो at?

दान स लाभ धन का उपयोग कस कर?

दान : मोकष का परथम कारण मनषयभव परापत करक कया करना?

जिनदधदरशन का भावपरण उपदश कलियग क कलपवकष

धरमोननति म धरमातमाओ का महततव

व आवक धनय ह वीतरागता का परमी

शरावक की धरमपरवतति क विविध परकार

परमपरा स मोकष क साधक शरावक

ममशष को मोकष ही उपादय अणवतादि की सफलवा

दशवत की आराधना का अनतिम फल सवतनतरता की घोषणा

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MARTA T HTT यह पदमननदी-पचविशतिका' नामक शासतर का सातवा अधिकार

चल रहा ह। आतमा क आननद म फलनवाल और बन जगल म निवास करनवाल वीतरागी दिगमबर मनिराज शरी पदमननदी सवामी न लगभग

goo ay पढिल इस शासतर की रचना की थी। इसम कल छबबीस गरधिकार ह, उनम स 'दशबरत-उदयोतन' नाम का सातवा अधिकार चल रहा ह।

मनिदशा की भावना धरमी को होती ह; परनत जिसक ऐसी दशा न हो सक, वह दशबरतरप शरावक क घरम का पालन करता ह। उस शरावक क भाव कस होत ह; उसको सरवजञ की पहिचान, दव-शासतर-गर का बहमान भआरादि भाव कस होत ह; शरातमा क भान सहित राग की मनदता क परकार कस होत ह; व इसम बतलाय गय ह। इसम निशचय- वयवहार का सामजसयपरण सनदर वरणन ह ।

यह अधिकार जिजञासओ क लिए उपयोगी होन स परवचन म तीसरी बार चल रहा ह| परव म दो बार (वीर निरवाण स० २४७४ तथा २४८१ म) इस अधिकार पर परवचन हो चक ह-।

शरीमद‌ राजचनदरजी को यह शासतर बहत परिय था। उनहोन इस शासतर को वनशञासतर' कहा ह और इनदरियनिगनहपरवक उसक अरसयास काए फल अमत ह - ऐसा कहा ह।

दवशबरतोझोतन शररथात‌ गहसथदशा म रहनवाल शरावक क धरम का परकाश कस हो ? उसका इसम वरणन ह | गहसथदशा म भी धरम हो सकता ह । समयगदशव सहित शदधि किसपरकार बढती ह और राग किसपरकार हलता ह और शरावक भी धरम की आराधना करक परमातमदशा क सन‍मख किसपरकार जाय -. यह वतलाकर इस अधिकार म शरावक क धरम का उदयोत किया गया ह।

१० } [ शरावकधरम परकाश

समनतभदव सवामी न भी रतनकरड शरावकाचार म शरावक क धरमो का वरणन किया ह, वहा धरम क ईशवर तीरथकर भगवनतो न समयरदरशन-

जञान-चा रितर को धरम कहा ह ।' उसम सबस पहल ही समयरदरशन धरम का वरणन किया गया ह और उसका कारण सववजञ की शरदधा बताई. गई ह ।

यहा भी पदमननदी मनिराज शरावक क धरमो का वरणन करत समय सबस पहिल सरवजञदव की टहिचान करात ह। जिस सरवजञ की शरदधा नही, जिस समयगदशन नही; उस तो मनि अथवा शरावक का कोई धरम नही होता। घरम क जितन परकार ह, उन सबका मल समयगदशन ह; We: जिजञास को सरवजञ की पहिचानपरवक समयगदशन का उदयम तो सबस पहिल होना चाहिए । उस भमिका म भी राग की मनदता इतयादि क परकार किसपरकार होत ह, व भी इसम बताय गय ह | निशचय-वयवहार की सधि सहित सनदर बात की गई ह | सबस पहिल सरवजञ की और ade FT हय धरम की पहिचान करन क लिए कहा गया ह ।

1, सददषटिजञानवततानि धरम धरमशवरा विद :-रतनकरणड शरावकाचर, शलोक र,

->००४७८०७---

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चरणानयोग का परयोजन \ जो जीव तततवजञानी होकर चरणानयोग का अभयास करत |

ह, उनह यह सरव शराचरण अपन बीतराग भाव क अनसार भासित | होत ह । एकदश व सरववश व वतीरागता होन पर ऐसी शरावकदशा- !

| मनिदशा होती ह; कयोकि इतक निमितत-नमिततिकपना पाया जाता \ \ ह। ऐसा जानकर शरावक-मनिधरम क विशष पहिचानकर जसा |

अपना वीतरागभाव EAT हो, बसा अपन योगय धरम को साधत ह।

िनन

नट बन

अनणाई अनना

ll वहा जितन अरश म बोतरागता होती ह, उस कारयकारी जानत ह; \ i जितन अश म राग रहता ह, उस हय जानत ह; समपरण बोतरागता \

को परम धरम मानत ह। - ऐसा चरणानयोग का परयोजन ह। |

- पणडित टोडरमल \

® सरवजञदव की शरदधा

वाहयाभयनतरसगवरजनतया vata शकलन यः, Ral करमचतषटयकषयमगात‌ सरवजञता निशचितस‌ तनोकतानि वचासि धरमकथन सतयानि नानन‍यानि तत‌,

अमयतयतर मतिसत यसथ स महापापी न भवयोधयवा ॥१॥

सामान‍यारथ :- जो बाहय और भरनतरग परिगरह को छोड करक तथा शकलधयान क दवारा चञार धातिया करमो को नषद करक निशचय स सरवजञता को परापत हो चक ह, उनक दवारा धरम क वयाखयान म कह गय वचन सतय ह, इनस भिनन राग-दष स दषित हदयवाल किनहो शरतपनञो क बचन सतय नहो ह, इसीलिए जिस जीव को बदधि उकत सरवजञ क बचनो म अरम को परापत होती ह, वह गरतिशय पापी ह अथवा वह भवय ही नही ह ।

शलोक १ पर परवचन

शरावक को परथम तो भगवान सरवजञदव और उनक वचनो की पहि- चान तथा शरदधा होती ह | सरवजञ क सवरप म और उनक वचन म जिस अम होता ह; वह तो मिथयातव क महापाप म पडा हआ ह, उस aaa अथवा शरावकपना नही होता - यह उदघोषणा करनवाला यह परथम इलोक ह !

दशबरतरप शरावकधरम का वरणन करत समय सबस पहल कहा ह कि सरवजञदव क दवारा कहा हआ घरम का सवरप ही सतय ह, इसक सिवाय अनय का कहा हआ सतय नही - शरावक की ऐसी निःशक शरदधा होनी चाहिए; कयोकिधरम क मल परणोता सरवजञदव ह। जिस उनका ही निरणय नही, उस धरम का निरणय नही हो सकता।

१२ ) ह शरावकधरम परकाश

जो सरवनन हय, व किस रीति स हय ?

“समसत बाहय तथा अभयतर परिगरह को छोडकर और शकलधयान दवारा चार घाति करमो का नाश करक सरवजञपना परापत किया ।!

दखो ! शकलधयान कहो कि शदधोपयोग कहो, उसस करमो का कषय होकर सरवजञता परकट होती ह; परनत बाहर क किसी साधन स शरथवा राग क अवलबन स कोई सरवजञता नही परगटती ।

मोकषमारगपरकाशक क मगलाचरण म भी अरिहनतदव को नमसकार करत समय पणडित टोडरमलजी न कहा ह :-

“जो गहसथपयना छोडकर, मनिधरम अरगीकार कर, निजसवभाव साधन स चार घाति करमो का कषयकर अनतचतषटयरप विराजमान हय ह - ऐस शरी अरिहनतदव को हमारा नमसकार हो |”

मनिधरम कसा ? कि शदधोपयोगसवरप मनिधरम । उस अगीकार करक भगवान न निजसवभाव साधन स करमो का कषय किया | कोई बाहय साधन

स अथवा राग क साधन स नही, परनत उनहोन नि३चय रतनतरयरप निजसवभाव क साधन स ही करमो का कषय किया ह। इसस विपरीत साधन मान तो उसन भगवान का मारग नही जाना, भगवान को नही पहिचाना, भगवान को पहिचानकर नमसकार कर, तब सचचा नमसकार कहलाय ।

यहा परथम ही कहा गया ह कि बाहम-अरभयनतर सग को छोडकर शकलधयान स परभ न कवलजञान पाया अरथात‌ कोई जीव घर म रह करक बाहर म वसतरादिक का सग रख करक कवलजञान पा जाव - ऐसा नही बनता । अतरग क सग म मिथयातवादि मोह को छोड बिना मनिदशा या कवलजञान नही होता ।

मनि क महाबरतादि का राग कवलजञान का साधन नही ह; परनत उनको शदधोपयोगरप निजसवभाव ही कवलजञान का साधन ह, उस ही मनिधरम कहा गया ह | यहा उतकषट बात बतान का परयोजन होन स

शकलधयान की बात ली गई ह। शकलधयान शदधोपयोगी मनि-को ही होता ह। कवलजञान क साधनरप इस मनिधरम का मल समयरदरशन ह और यह समयरदरशन सरवजदव की तथा उनक वचनो की पहिचानपरवक होता ह; इसलिए यहा शरावकधरम क वरणन म सबस पहिल ही सरवजञदव ३1 पहिचान की बात ली गई ह ।

सरवजञदव की शरदधा ] [ १३

AAT BT ATT HUH, Ala परकट करक, शदधोपयोग की उमर-

शरणी माड करक जो सववजञ हय, उन सरवजञ परमातमा क वचन ही सतय- धरम का निरपण करनवाल ह। ऐस सरवजञ को पहिचानन स शरातमा क जञानसवभाव की परतीति होती ह और तब धरम का परारमभ होता ह । जो सरवजञ की परतीति नही करता; उस आतमा की ही परतीति नही, धरम की ही परतीति नही | उस तो जझासतरकार 'महापापी अरथवा अभवय' कहत ह । उसम धरम समभन की योगयता नही, इसलिय उस अभवय कहा गया ह।

जिस सरवजञ क सवरप म सदह ह, सवजञ को वाणी म जिस सदह ह, सरवजञ क सिवा अनय कोई सतयधरम का पररोता नही ह - ऐसा जो नही पहिचानता और बिपरीत मारग म दौडता ह; वह जीव मिथयातवरपी महापाप का सवन करता ह, उसम धरम क लिए योगयता नही ह - ऐसा कहकर धरम क जिजञास को सबस पहल aaa HT और सरवजञ क मारग की पहिचान करन को कहा ह! '

पर | त जञान की परतीति क बिना धरम कहा करगा ? राग म खडा रहकर सबजञ की परतीति नही होती । राग स जदा पडकर, जञानरप होकर सरवजञ की परतीति होती ह। इसपरकार जञानसवभाव क लकषयपवक सरवजञ की पहिचान करक, उसक अनसार धरम की परवतति होती ह। समयक‍तवी जञानी क जो वचन ह, व भी सरवजञ अनसार ह, कयोकि उसक हदय म सरवजञवव विराजमान ह। जिसक हदय म सरवजञ न हो, उसक धरमवचन सचच नही होत ।

दखो यह शरावकधम-का परथम चरण ! यहा शरावकघरम का वरणन करना ह। सरवजदव की पहिचान शरावकधरम का मल ह। मनि या शषावक क जितन भी धरम ह, उनका मल समयगदरशन ह। सरवजञ को परतीति क बिना समयरदरशन नही होता और समयगदरशन क बिना शरावक क दशकनत या मनि क महातरत नही होत। समयसदरशन सहित दशषबरती शरावक कसा होता ह ? उसक सवरप का इसम वरणन ह, इसलिय इस शरधिकार का नाम दिशनरतोदोतन अधिकार' ह।

सरवशदव न जसा आतमसवभाव परकट किया और जसा वाणी दवारा कहा, वस गरातमा क अनभव सहित निविकलप परतीति करना समयरदरशन ह। सरवाजञ किसपरकार हए और उनहोम कया कहा - इसका यथारथ जञान समयनदषटि को ही होता ह। अनजञावी को तो सरवजञ किसपरकार हए,

ex ] ह [ शरावकघरम परकाश

उसक उपाय की भी खबर नही और सरवजञदव न क‍या कहा, उसकी भी खबर नही ह ।

यहा तो कहत ह कि जो सरवजञ क माग को नही पहिचानता और विपरीत मारग का शरादर करता ह; उसकी बदधि शरमित ह, वह भरमबदधि- वाला ह, मिथयातवरपी महापाप म डबा हआ ह। उस गहसथघरम भी नही होता, तो मनिधम की बात ही क‍या ?

बाहय और अतरग सव सग छोडकर शकलधयान दवारा भगवान सवजञ हए ह । समयगदरशन भर आतमजञान तो पहल था, फिर मनि होन पर बाहय सरव परिगरह छोडा और शरनतरग की अशदधता छोडी । जहा अशदधता छोडी, वहा निमिततरप म बाहयसग छोडा - ऐसा कहा जाता ह। मनिदशा म समसत बाहयसग का तयाग ह, दह क ऊपर वसतर का एक हकडा भी नही होता, भोजन भी हाथ म लत ह, भमि पर सोत ह; अत- . रग म शदधोपपोगरप आचरण हयरा अशदधता और उसक निमितत छट गय ह। शदधोपपोग की घारारप शकलषयान क दवारा सवरप को धयय म लकर परयाय को उसम लीन करन का नाम धयान ह। उसक दवारा घाति करमो का नाश होकर कवलजञान हआ ह ।

दखो ! पहिल परयाय म शरशदधता थी, जञान-दरशान अपरण थ, मोह था; इसलिय घातिया करमो' क साथ निमितत-नमिततिक समबनध था और अब शदधता होन स अशदधता दर होन स करमो क साथ समबनध छट गया, जञान-दरशन-सख-बीरय परिपरणरप स परकट हो गय और करमो का नाश हो गया । किस उपाय स ? शदधोपयोगरप धरम दवारा। इसपरकार इसम य तततव आ जात ह - बनध, मोकष और मोकषमारग । जो सरवजञदव दवारा कह

हए ऐस तततवो का सवरप समझ, उसत ही शरावकघरम परगट होता ह ।

घरम का कथन करन म सरवजषदव क वचन ही सतय ह, अनय क नही । सरवजञ को मान बिना कोई कह कि म सवयमव जानकर धरम कहता ह- तो उसकी बात सचची नही होती और “सवजञ अरहनतदव का मत _ तथा अनय मत +- सब एक समान ह! - ऐसा जो मान, उस भी धरम क सवरप की खबर नही | जन और अजन सब धरमो को समान माननवाल को तो वयवहारशरावकपना भी नही। इसलिए शरावकधरम क वरणन क परारमभ म ही सपषट कहा ह कि सरवजञ क वचन दवारा कहा हआ धरम ही सतय ह और अनय धरम सतय नही - ऐसी परतीति शरावक को पहल ही होना चाहिय।

सरवजञदव की शरदधा) a [१५

wat, waar! Xa जनधरम क दव ह। दव क सवरप को भी जो न. पहिचान, उस धरम कसा ? तीन लोक और ततीन काल क समसत दरवय- गण-परयायो को वरतमान म सरवजञदव परतयक समय म सपषट जानत ह-ऐसी बात भी.जिस नही रचती, उस तो सरवजञदव की या मोकषतततव की परतीति नही शर आतमा क परणशञानसवभाव की भी उस खबर नही ।. शरावक धरमातमा तो भरानति रहित सरवजञदव का सवरप जानता ह और इसीपरकार निजसवरप साघता ह ।

जस लडीपोपर क परतयक दान म चौसठपटी चरपराहट भरी ह, बही वयकत होती ह; उसीपरकार जगत क शरननत जीबो म परतयक जीव म सरवजञता को शकति भरी ह, उसका जञान करक उसम एकागर होन स वह परगट होती ह। दह स भिनन, करम स भिनन, राग स भिनन और अलपननता स भी भिनन परिपरण जञ-सवभावी area जसा भगवान न दखा और सवय परगट किया; वसा'ही वाणी म कहा ह। वस आतमा की और. उसक कहन- वाल सरवजञ की परतीति करन जाय, वहा रागादि की रचि नही रहती ।

_... सयोग, विकार यथा शरलपननता की रचि छटकर सवभावसनभख रचि होती ह, तभी सरवजञ क दवारा कह हए धरम की पहिचान होती ह और तभी शरावकपना परगट होता ह। जनकल म जनम लन स ही कोई शरावक नही हो जाता; परनत अनतर म जन परमशवर सरवजञदव की पहिचान कर और

. उनक दवारा कह हए वसतसवरप को पहिचान, तभी शरावकपना होता ह। ae | शरावकपना किस कहत ह - इसकी भी बहत जीवो को खबर नही; इसलिय यहा दशबरत-उदयोतन म पदमननदी सवामी न शरावक क sy aT उदयोत किया ह, उसका सवरप परकाशित किया ह ।

मागलिक म हमशा बोलत ह करि 'कवललिपणपपतो धममो शरर पववजजामि' अरथात‌ म कवली भगवान क दवारा कह हए धरम की शरण अहण करता ह; परनत सवजञ कवलो कस ह और उनक दवारा कह हए घरम का सवरप कसा ह, उसकी पहिचान बिना किसको शरण छगा ? पहिचान कर तो सवजञ क धरम की शरण लना कहलाता ह ओर उस सवाशरय स अमयरदरशनादि धरम परगट होत ह। मातर बोलन स धरमकी शरण नही मिलती; परनत कवली भयवान न जसा धरम कहा ह, उसकी पहिचान BH MIT Adar was st asad क घरम की शरण ली कहलाय।

१६ ] [ शरावकधरम परकाश

. सबस पहल सरवजञदव की और उनक दवारा कह हए धरम की पहिचान करत को कहा गया ह। शासतरकार न मातर बाहय अतिशय दवारा या समवसरण क बभव दवारा भगवात की पहिचान नही कराई; परनत सरवजञवारप चिहन दवारा भगवान की पहिचान कराई तथा उनक दवारा कहा हआ धरम ही सतय ह - ऐसा कहा ह ।

जगत म छह परकार क सवततर दरषय, नौ ततव और परतयक आतमा का परणसवभाव जानकर सवाशरय स धरम बतलानवाली सरवजञ की वाणी और रागादिक पराशचितभाव स धरम मनवानवाली गरजञानी की वाणी - इनक बीच विवक करना चाहिय । सवाशवित शदधोपपोगरप शकलधयान क साधन स भगवान सरवजञ हए ह।

परशन :- वह शकलधयान कसा ह ? क‍या शकलधयानका रग सफद ह ?

उततर :- भर भाई ! शकलधयान तो चतनय क आननद क अनभव म लीनता की धारा ह, वह तो कवलजनान-परापति की शरणी ह। उसका रग

नही होता । सफद रग तो रपी पदगल की परयाय ह। यहा शकलधयान म 'शकन' का अरथ सफद रग नही; परनत शकल का अरथ ह राग की मलिनता रहित, उजजवल, पवितर | शकलधयान तो अरपी आतमा की अरपी परयाय ह। इस सवरपसाधन दवारा ही भगवान न कवलजञान पाया ह। ऐस साधन को पहिचान तो भगवान की सचची पहिचान हो ।

इस सरवजञता को साधत-साथत वननिवासी सनत पझननन‍दी मनिराज न यह शासतर रचा ह। व शरातमा की शकत म जो परणा ननद भरा ह, उसकी

परतीति करक उसम लीनता दवारा बोलत थ, सिदध भगवान क साथ अनतर म अनभव दवारा बात करत थ और सिदधपरभ जसा अतीनदरिय आननद का बहत अनभव करत थ; वहा भवय जीवो पर करणा करक FE ATA TAT गया ह । गहसथ का धरम बतलात हए कहत ह कि अर जीव ! सबस परथम त सरवजञदव को पहिचान । सरवजञदव को पहिचानत ही अझरपनी सचची जाति पहिचान म भरा जावगी ।

महाविदहकषतर म वरतमान म सरवकष परमातमा सीमधरादि भगवनत विराज रह ह, वहा लाखो सरवजञ भगवनत ह, ऐस gare gt गय ह और परतयक जीव म ऐसी शकति ह। अहो ! झातया Ht goles को परापत सरवजञ परमातमा इस लोक म विराज रह ह - ऐसी बात कान म पडत हो जिस

सरवजषदव की शरदधा ] [ १७

आतमा म ऐसा उललास आया कि वाह ! आरातमा का ऐसा वभव ! आतमा की ऐसी अचितय शवित ! जञानसवभाव म सरवनन होन की और परण आननद की शबित ह; मरी आतमा म भी ऐसी ही शकति ह - इसपरकार सवभाव महिमा जिस जागत हई; उस शरीर की, राग की या अलपननता की महिमा नषट हो जाती ह और उसकी परिणति जञानसवभाव की ओर मक जाती ह । उसका परिणमन ससारभाव स पीछ हटकर खिदधपद को शरोर लग जाता ह। जिसकी ऐसी दकशा होती ह, उस ही सरवतञ की सचची शरदधा हई ह और सरवजञदव न अलपकाल म ही उसकी भकति दखी ह ।

सरवजषता की महिमा की तोबात ही क‍या ह? इस सरवजञ की पहिचान म भी कस अपरव भाव होत ह और उसम कितना घरषारथ ह, उसकी लोगो को खबर नही ह। सरवजञदव को पहिचानत ही weg at उनक परति अपार भकति उललसित होती ह। यहा परण जञान-आननन‍द को परापत ऐस सरवजञ परमातमा क परति पहिचानपरवक यथारथ भकति उललसित हई; Tal wa अनय किसी की (पणय की या सयोग की ) महिमा नही रहती, उसका आदर नही रहता और ससार म भटकन का भौ सनदह नही रहता ।

अर, | जहा जञानसवभाव का शरादर किया और जिस जञान म सरवजञ की सथापन की, उस जञान म अब भव कसा ? जञान म भव नही, मव का सदह नही । झर जीव | एक बार तो सरवजञ को पहिचानकर उनक बीत गा 1 इस- पथवीतल का मग भी जिन भगवान क गीत सनन क लिए ठठ चनदरलोक

म गया, तो यहा सत सरवजञता की महिमा का गणगान सनाय और उसको सनत हए ममकष को भकति का उललास न आय - ऐसा कस aa? ae म सवजञ की पहिचान -यह शरावक का पहला लकषण हओऔर धरम का मल ह। जो सवजञ को नही पहिचानता, जिस उनक वचनो स भरम ह और जो विपरीत मारग को मानता ह; उस तो शरावकषना नही होता शरौर शभभाव का भी ठिकाना नही ह । मिथयातव की लीवता क कारण उस Hera भरथवा way कहा ह; इसलिय भमकष को सरवपरथम सरवजञदव की पहिचान करनी चाहिए।

परहा नाथ ! आपन एक समय म तीन लोक व तीन काल को साकषात‌ जाना और दिवयवाणी म आतमा क सरवजञसवभाव को परमट किया; आपकी वह वाणी हमन सनी तो अब आरापकी सरवजञता म शरथवा मर जञानसवझाव

gs ] [ शरावकधरम परकाश

म सदह नही रहा। आतमा म शकति भरी ह, उसम स सरवजञता परगट होती ह - ऐसी आतमशकति की जिस परतीति नही और बाहर क साधन स धरम करना चाहता ह; वह तो बडा अविवको ह, दषटिहीन ह।

जञानसवभाव की और सववजञ की शरदधा बिना 'शासतर म ऐसा लिखा Mt उसका शररथ ऐसा होता ह' - ऐसा जञानी क साथ वाद-विवाद कर,

बह तो आकाश म उडत पकषियो को गिनन क लिए शराखवाल क साथ शरन‍धा होड कर - ऐसा ह। जञानसवभाव की दषटि बिना सरवजञ दवारा कह हय

शासतर क अरथ को परगट करना अशकय ह, शरतः पहल ही इलोक म सरवजञ की और उनकी वाणी की पहिचान करन को कहा गया ह । सरवजञ की शरदधा मोकष क मणडप का माणिकसतमभ ह; उस सरवजञ क अरथात‌ मोकषतततव क गीत गाकर उसकी शरदधारप भाग लिक किया ।

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उनका महासोभागय ह ?.

यदयपि दिवयधवनि भगवान क मख स नही निकलती, ( सरवाग स अकारधवनिरषप निकलती ह; तथापि जगजजनो की (

\ अपकषा उस “मखारविनद स निकली - ऐसा कहा जाता ह। शहो ! | गाननद बरसाती हई वाणी निकलती ह, उस वाणी दवारा. आननन‍द-

॥| सवरप आतमा का निरपण होता ह, इसलिए उस वाणी को आननद # दनवाली कहा ह - यह निमिततापकषा कथन ह। भगवान की वाणी | म बीतरागता की बात झाती ह। वीतरागता तभी परभट होती ह, i | जब कि सव का आशरय हो । झराननद की अनभवदशा का परगट होना

! ही जिनवाणी का सार ह। इस दिवयधवनि को सनकर चार जञान \ क धारी गणधरदव सिदधाकत शासतरो की रचना करत ह। ऐसी i \ दिवयवाणी जिनक कानो म पडती ह, उनका महा सौभागय ह। (

) - पजय शरी कानजो सवामी \ परवचन रतनाकर भाग र, पषठ २५५ \

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(२)

समयगदषटि को परशसा एकोपयतर करोति यः feafaafastta: gat zara स शलाघयः खल दःखितो5पयदयतो दषकरम णः पराखिभत‌। aq: fe परचररपि परसवितरतयनतदरीकत, सफोताननदभरपरदामतपथमिथयापथ परसथित: ॥२॥

सामान‍यारथ:- एक भी जो भवयपराणी शरतयनत परसन‍तता स यहा निरमल समयगदरशन क विषय म सथिति को करता ह शररथात‌ परदतत होता ह, बह पापकरम क उदय स दःखित होकर भी निशचय स परशघनीय ह। इसक विपरीत जो सिथयामारग म परवतत होकर महान‌ सख को परदान करनवाल मोकष क मारग स बहत दर ह, व यदि सखया म शरधिक भी हो तो भो उनस कछ परयोजन नही ह ।

शलोक २ पर परवचन

‘gq सरवजञ की पहिचानवाल समयगदषटि जीवा की विरलता बतलाकर उसकी महिमा करत हए दसर इलोक म कहत ह कि समयसहषटि अकला हो तो भी इस लोक म शोभनीय और परशसनीय होता ह ।

दखिय ! इस समयगदरशन की विरलता बतलाकर कहत ह कि इस जगत म अतयनत परीतिपवक जो जीव पवितर जनदरशन म सथिति करता ह अरथात‌ शदध समयगदशत को निरचलरप स आराधता ह, वह जीव चाह एक ही हो और कदाचित‌ परव करमोदय स दःखी हो तो भी वह परशसनीय ह; कयोकि वह समयगदशन दवारा परम आाननददायक शअरमतमारग म सथित ह तथा जो शरमतमय मोकषमागग स अरषट ह और मिथयामारग म सथित ह - ऐस मिथयाहषटि जीव बहत हो शर शभकरम स परमदित हो तो भी उसस कया परयोजन ह ? - यह कोई परशसनीय नही ह ।

२० ] [ शरावकधरम परकाश

भाई ! ससार म तो कौव-कतत, कीड -मकोड इतयादि अनत जीव ह; परनत जनदशन परापत कर जो जीव पवितर समयगदशन आदि रतमतरय की आराधना करत ह, व ही जीव शोभनीय ह | समयगदशन क बिना पषय भी परशसनीय या वाछनीय नही ह। चाह जगत म मिथयाहषटि बहत हो गरौर समयगहषटि चाह थोड हो तो उसस zat ?

जस जगत म कोयला बहत हो और हीरा कवचित‌ हो तो क‍या ' उसस कोयल की कीमत बढ गई ? नही; थोडा हो तो भी जगमगाता हीरा शोभित होता ह; उसीपरकार समयरदषटि जीव थोड हो तो भी जगत म शोभत ह । हीर हमशा gis ही होत ह | जनधरम की अरपकषा अनय कमत क माननवाल जीव यहा बहत दिखत ह, उसस धरमातमा को कभी ऐसा सदह नही होता ह कि व कमत सचच होग ! वह नि.शकरप स और परमपरीति स जनधरम को शररथात‌ समयगदरशनादि रतनतरय को शराराधता ह - ऐस धरमी जीवो स ही यह जगत शोभित हो रहा ह ।

सव जञदव क दवारा कह हए पवितर दशन म जो परीतिपवक सथिति करता ह अरथात‌ निशचलपन शदध समयदशन को आराधता ह, वह wage Ha अकला हो तो भी जगत म परशसनीय ह। कदाचित‌ परव क किसी दषकरम क उदय स वह दखित हो, बाहर की परतिकलता स भरा हआ हो, निरधन हो, काला-कबडा हो; तो भी अचतरग की अननत चतनय- ऋदधि का सवामी वह धरमातमा परम झाननदरप अमतमारग म सथित ह। करोडो, शररबो म वह शरकला हो तो भी शोभता ह, परशसा पाता ह! रतनकरणड शरावकाचार म समतभदगवसवामी कहत ह :-

समपरदशनसमपननमपि सातजदहज। दवा दव विदरभसमगढादभारानतरोजस॥।

“जो जीव समयरदरशनसमपनन ह, वह चाडाल क दह म उतपनन हआ हो तो भी गणधरदव उस 'दव' कहत ह। जस भसम स ढक हए अगार क परनदर परकाश - तज ह, उसीपरकार चाडाल की दह स ढका हआ वह शरातमा अनदर समयगदशन क दिवयगण स परकाशित हो रहा ह ।'

समयरदषटि जीव गहसथ हो तो भी मोकषमारग म सथित ह। कदाचित‌ उस भल ही बाहर की परतिकलता हो, परनत शरदर म तो उस चतनय क arate BY लहर ह । जो आननद इनदर क वभव म भी नही ह, उस आनद का वह अनभव करता ह। उस परव करम का उदय डिया नही सकता कयोकि वह समयकतव म निशचल ह ।

समयरहषटि को परशसा ] [२१

कोई जीव तियव हो और समयगदरशन परापत कर चका हो, रहत को मकान न हो; तो भी वह अतमगणो स शोभित होता ह और मिथयाहषटि जीव सिहासन पर बठा हो; तो भी वह नही शोभता, परशशा

नही पाता । बाहर क सयोग स आतमा की कछ शोभा नही ह। आतमा की शोभा तो अदर क समयगदशनादि गणो स ह ।

अर ! छोटा-सा मढक हो, समवसरण म बठा हो, वह भगवान की वाणी सनकर अनदर म उतरकर समयरदशन दवारा चतनय क अपरव आननद का अनभव कर, वहा अनय किस साधन की जररत ह ? और बाहर की परतिकलता कस बाधक हो सकती ह ? इसलिय कहा ह कि चाह पापकरम का उदय हो, परनत ह जीव ! त समयकक‍तव की आराधना म नि*चल रह । पापकरम का उदय हो तो उसस कोई समयकतव की कीमत नही चली जाती, उसस तो पापकरम निरजरता जाता ह। चारो ओर स परापकरम क उदय स घिरा हआ हो, अरकला हो; तो भी जो जीव परीतिपरवक समयकतव को घारण करता ह, वह अतयनत शरादरणीय ह। चाह जगत म कोई उस न मान, चाह शरॉधी (विपरीत) हषटिवाल उसका साथ न दव, तो भी वह अकला मोकष क माग म झराननदपरवक चला जाता ह। उसन शदध आतमा म मोकष का अमतमारग दख लिया ह, उस मारग पर fast चला जाता ह। परवकरम का उदय उसक ह ही कहा ? उसकी वरतमान परिणति उदय की तरफ कछ भी नही भकती, उसकी परिणति तो चतनयसवभाव की तरफ BBR आराननदसयी बन गई ह, उस परिणति स वह भरकला शोभित होता ह ।

जस जगल म वन का राजा सिह भरकला भी शोधित होता ह, Fe ही ससार म चतनय राजा समयसहषटि अकला भी शोभित होता ह। समयकतव क साथ पणय हो तो ही वह जीव शोभा पाव - पणय की ऐसी अपकषा समयगदशन म नही ह। समयगहषटि पाप क उदय स भी जदा (भिन‍म) ह और पणय क उदय स भी जदा ह । वह दोनो स भिन‍न अपन जञान-भाव समयकतव स ही शोभित होता ह। भरानन‍दमय अमतमारग म आग sear sar वह अकला मोकष म चला जाता ह। शरणिक राजा आज भी नरक म ह परनत शरभी उनकी परातमा समयक‍तव को परापत कर मोकषमारग म गमन कर रही ह, थोड समय म व तीनलोक क सवामी होग ।

जिस समयगदरशन नही, जिस धरम की खबर नही, जो अमतमारग स अषट ह और मिथयामाग म गमन करता ह; वह जीव चाह कदाचित

२२ ] [ शरावकधरम परकाश

पणयोदय क ठाठ स घिरा हआ हो और लाखो-करोडो जीव उस मानन- बाल हो तो भी वह शोभित नही होता, परशसा नही पाता ।

गर | धरम म इसकी कया कीमत ? कोई कह कि पवितर जनरशन क सिवा अनय कोई विपरीत मारग को इतन सब जीव मानत ह - इसस उसम कोई शोभा होगी, कोई सचचा होगा।। तो कहत ह कि नही; इसम अशमातर शोभा नही, सतय नही | ऐस मिथयामारम म लाखो जीव होब तो भी व नही शोभत; कयोकि उनह आननद स भर हए अमतमाग की खबर नही ह, व मिथयातव क जहर स भर हए मारग म जा रह ह। जगत म किसी कपथ को लाखो मनषय मान, इसस धरमी को शका नही होती कि उसम कछ शोभा होगी शरौर सतयपथ क बहत थोड जीव होव, आप अकला हो तो भी धरमी को सदह नही होता कि सतयमारग यह होगा या शरनय होगा;.- वह तो निःशकरप स परमपरीतिपरवक सवजञ क कह हए पविनन मारग को साधता ह ।

इसपरकार सतपथ म परथवा मोकषमारग म समयगहषटि शरकला भी शोभा पाता ह। जगत की परतिकलता का घरा उस समयकतव स डिगा नही सकता ।

यहा मोकषमारग को आननद स परिपरण अरमतमारग कहा ह, इसी कारण अरषट सिथयामारग म सथित लाखो-करोडो जीव भी नही शोभत और आननदपरण अमतमारग म एक-दो-तीन समयगहषटि होत तो भी व जगत म शोभत ह, शरतः इस समयकतव को निसचलरप स धारण करो | मनिधरम हो अथवा शरावकधरम हो, समयगदरशत सबस पहल ह; समयगदशन क बिना शपरावकधरम अरथवा मनिधरम नही होता; अतः ह जीव ! तझ धरम करना हो और धरमी होना हो तो पहल त ऐस समयगदरशन की आराघना कर! उसी स ही धरमीपना होगा ।

ad का माप सखया क आधार स नही होता ह शरौर सत‌ को दनिया की परशसा की शरावशयकता नही ह। दनिया म अधिक जीव मान शरौर अधिक जीव आदर दव तो ही सत‌ को सत‌ कहा जाव - ऐसा नही ह; थोड माननवाल हो तो भी सत‌ शोभित होता ह, सत‌ अकला अपन स ही शोभा पाता ह।

शरहा ! सरवजषदव दवारा कहा हआ आतमा जिसकी परतीति म झा गया ह, अनभव म शरा गया ह - ऐसा समयरहषटि जीव पणय की मनदता स

समयशदषटि की परशसा 1 [ २३

कदाचित‌ घवहीन हो, पतरहीन हो, काला-कबडा हो, रोगी हो, सतरी गरथवा तिरयच हो, चाडाल इतयादि मीच कल म जनमा हो, लोक म अरनादर होता हो, बाहर म ञरसाता क उदय स दःखी हो - ऐस चाह जितनी परतिकलता क बीच खडा होत हए भी समयनदरशन क परताप स वह अपन चिदाननदसवरप म सतषटता स मोकषमारग को साथ रहा ह; इस कारण वह जगत म परशसनीय ह, गणघरादि सत उसक समयकतव की परशसा करत ह। इसका आननदकनद आरातमा कोई निरधत नही, इसका शबरातमा रोगी नही, इसका झरातमा काला-कबडा TAA चाडाल नही, इसका शरातमा सतरी नही, वह तो गपन को चिदाननदसवरप ही शरभभवता ह । अनदर म अरननत गणो की निरमलता का खजाना इसक पास ह।

कवि शरी दौलतरामजी ससयमहषटि की अनतरगदशा का बरणन करत हए कहत ह कि .-

“चिनमरत दगधारो की, मोह रीति लगत ह शरटापटी । बाहर नारककत दःख भोगत, अनतर सखरस गठागठी 1”

कया नारकी को बाहय म कोई शरनकलता ह? नही; तो भी वह समयगदशशन परापत करता ह, छीटा मढक भी समयगदशन परापत करता ह; व परशसनीय ह। ढाई दवीप म समवसरण आरादि म बहत त तियच समयगहषटि ह, इसक बाद ढाई दवीप क बाहर तो असखययत तियच आतमा क जञानसहित चौथ-पाचव गणसथान म विराज रह ह। सिह, बाघ और सरप जस पराणी भी समयरदरशन परापत करत ह, व जीव परशसनीय ह ।

अनदर स चतनय का पाताल फोडकर समयरदरशन परगट हआ ह, उसकी महिमा की क‍या बात ? जो बाहर क सयोग स दख, उस यह महिमा दिखाई नही दती ह, परनत अनदर आतमा की दशा कया ह; उस पहिचान तो उसको महिमा का जञान होता ह। समयगहषटि न आतमा क आननद को दखा ह, उसका सवाद चखा ह, भदजञान हआ ह; वह वासतव म शरादरणीय

ह, पजय ह। | बड राजा-महाराजा को परशसनीगर-नही कहा, सवरग क दव‌ को भी

परशसनीय नही कहा; परनत समयगहषटि को परशनीय कहा ह; भल ही वह fata परयाय म हो, नरक म हो, दव म हो या मनषय म हो, वह सरवशर परशसनीय ह। जो समयगदरशन की साधना कर रह ह, व ही धरम म अनमोदतीय, ह । समयगदरशन क बिना बाहय तयाग, बरत या शासतरजञान आदि

rv | [ शरावकरषरमपरकाश

बहत हो तो भी आचारयदव कहत ह कि यह हमको परशसनीय नही लगता; कयोकि यह कोई आतमा क हित का कारण नही ह, हित का मल कारण तो समयमदरशन ह ॥ करोडो-भररबो जीवो म एक ही समयगहषटि हो तो भी वह उततम ह - परशसनीय ह और विपरीत मारग म बहत हो तो भी व परशसनीय नही ह। ऐसा सममककर ह जीव ! त समयगदरशन की भराराधना कर - ऐसा तातपय ह |

a कया आतमा का ह? जो अपना नही, वह चाह जसा हो, उसक साथ आतमा का कया समबनध ह ? इसलिए धरमी का महततव सयोग स नही, निज चिदाननद सवभाव की शरनभति स ही ह ।

हजारो मडो क समह की शरपकषा जगल म अकला सिह भी शोभता ह, उसीपरकार जगत क लाखो जीवो म समयगटषटि अकला भी (गहसथपन म हो तो भी) शोभता ह। मनि समयरदरशन क बिना नही शोभता और समयमटषटि मनिषना क बिना भी शोभता ह। वह मोकष का साथक ह, बह बिनशवरदव का पतर ह; लाख परतिकलताशरो क बीच म भी वह जिनबझासन म शोभता ह। मिथयाहषटि करोडो हो शर समयरदषटि एक-दो

ही हो तो भी समयगटषटि ही शोभत ह ।

बहत चीटियो का समह एकतरित हो जाय, उसस कोई उनकी कोमत बढ नही जाती; वस ही मिथयाहषटि जीव बहत इकटठ हो जाव, उसस व परशसा जरापत नही करत | समयरदरशन क बिना पणय क बहत सयोग परापस हो वो भी आतमा नही शोभता शलौर नरक म जहा हजारो-लाखो या असखयात वरषो परयनत गरनाज का कण या पानी की ब'द भी नही मिलती, वहा भी आननदकद आतमा का भान कर समयरदरशन “A झरातमा शोभित हो उठता ह। कजतिकलता कोई दोष नही और अनकलता कोई गण नही ह। मण-दोषो का समबनध बाहर क सयोग क साथ नही; ह । आतमा क

@ fedex wna क दरशन करत हए 'दरशनपाठ' म हम नीच का शलोक

बोचत ह, उसम भी यह भावता गरयी हई ह :--

जिनवरमविनिम कतो मा भवत‌ चकरवतयपि। सथात‌ चटोपि दरिवरोषि जिनधरमातवासित: ।।

अरथात‌ जिन स रहित चकरवरती पद भी न होव, बलकि जिनधरम की महिमा स सवासित चाणडाल परथवा दरिदर भी होना ठीक ह ।

argugfse a परशसा | [२५

सवभाव की और सरवजञदव की शरदधा सचची ह या खोटी, उसक ऊपर गण- दोष का आधार ह।

घरमीजीव सवसवभाव क अनभव स - शरदधा स अतयनत सतषटरप रहत ह, जगत क किसी सयोग की वाछा उनह नही होती। समयगदशत रहित जीव हजारो शिषयो स पजित हो तो भी वह परशसनीय नही और विरल समयगटषटि धरमातमा को माननवाल कोई न हो तो भी वह परशसनीय ह; कयोकि वह मोकष का पथिक ह, ag ada aT लघननदन' ह। मनि al ada क जयषठ पतर ह और समयगहषटि लघननदन शररथात‌ छोट पतर ह। भल हीव छोट पतर हो, परचत ह तो सरवजञ क उततराधिकारी; ब अलपकाल म तीव लोक क नाथ - सरवजञ होग।

रोगादि जसी परतिकलता म भी म सवयसिदध चिदाननदसवभावी परमातमा ह + ऐसी निजातमा की भरनतर-परतीति धरमी स नही छटती । गरातमा क सवभाव की एसी परतीति समयगदरशन ह और उसम सरवजनदव की वाणी निमिततरप ह। उसम जिस सदह ह, उस जीव को. धरम नही. होता । समयरदषटि जिनवचन म और जिनवाणी म दशशाय आरातमसवभाव म परतीति कर समयगदरशन म निशचलरप स सथिति करत ह। ऐस जीव जगत म तीनो काल म विरल ही होत ह। व भल ही थोड हो, तो भी व परशसनीय ह । जगत क सामानयजीव भल उनह नही पहिचान; परनत aaa ATA, Tea We AAA क दवारा व परशसा क पातर ह; भगवान झौर सन‍तो न उनह मोकषमाग म सवीकार किया ह। जगत म इसस बडी अरनय कोई परशसा ह ? बाहर म चाह जसा परतिकल परसग हो तो भी समयरहषटि धरमातमा पवितर दरशन स चलायमान नही होता ।

परशन :- चारो शरोर भरतिकलता स घिर हए ऐस दखिया को समयगदरशनपरापति का शरवकाशझन कहा स मिलगा ?

उततर :- भाई ! समयरदरशन म कया कोई सयोग की आवशयकता ह ? परतिकल सयोग कोई दःख क कारण नही और अनकल सयोग कोई समयकतव क कारण नही । शरातमसवरप म भराति ही दःख का कारण ह और भरातमसवरप की निरशरानत परतीतिरप समयदशन ही सख का कारण ह। यह समयरदरशन कोई सयोगो क शराशनय स नही ह, परनत शरपन सहज सवभाव क ही आशरय स ह ।

गर ! नरक म तो कितनी शरसहय परतिकलता ह ! वहा खान को

२६ ] [ कषावकथरम परकाश

शरजञ या पीन को पानी नही मिलता, सरदी-गरमी का पार नही, घरीर म

पीडा का पार नही, कछ भी सविधा नही; तो भी वहा पर ( सातव नरक म भी ) असखयात जीव समयगदरशन परापत कर चक ह । वह उनहोन किस आधार स परापत किया ? सयोग का लकष छोड, परिणति को अतर

म लगाकर आतमा क आशरय स. समयरदरशन परापत किया ह। नरक म भी यह समयगदरशन होता ह, तो यहा क‍यो न होव ? यहा कोई वरक जितनी तो परतिकलता नही ह ? आप अपनी रचि पलट गातमा की दषटि कर तो सयोग कोई विधन नही करत । अपनी रचि न पलठाव और सयोग का दोष बताव तो वह भिथयाबदधि ह ।

यहा पसा अथवा पणय हो तो जीव परशसनीय ह' - ऐसा नही कहा ह; परनत 'जिसक पास धरम ह, वही जीव परशसनीय ह' - ऐसा कहा ह । कया पसा अरथवा पषय झरातमा क सवभाव की चीज ह ? जो अपन सवभाव की चीज न हो, उसस गरातमा की झोभा कस होव ? ह जीव ! तरी salar at at fade भावो स ह; अनय स तरी शोभा नही। अनत- सवभाव की परतीति करक उसम त सथित रह; बस, इतनी ही तरी मकति * म दर ह !

झनकल-परतिकल सयोग क आधार स धरम-अरधरम का कोई माप नही ह | धरमी हो, उस परतिकलता आवब ही नही - ऐसा नही ह | हा, इतना सतय ह कि परतिकलता म धरमी जीव अपन धरम को नही छोडता | कोई कह कि धरमी क पतर इतयादि मरत ही नही, धरमी क रोग होता ही नही, धरमी क जहाज डबत ही नही; तो उसकी बात सचची नही। उसको घरम क सवरप की खबर नही ह | धरमी को भी परवपाप का उदय होन पर ऐसा भी हो सकता ह। किसी समय धरमी क पतरादि की आय थोडी भो ह और भजञानी क पतरादि की आय विशष हो; परनत उसस कया ? यह तो परव क बघ हय शभ-अशभ कम क खल ह। इसक साथ घरम-परधरम का समबनध नही । धरमी की शोभा तो अपनी आरातमा स ही ह। सयोग स इसकी कोई शोभा नही ह। मिथयाहषटि को सयोग किसी समय अनकल होव; परनत भर ! मिथयामाग का सवन, वह महादःख का कारण ह, इसकी परशसा कया ? Helse HY — HAT की परशसा धरमी जीव नही करता ।

समयकपरतीति दवारा निजसवभाव स जो जीव भरा हआ ह और पाप क उदय क कारण सयोग स रहित ह ( भररथात‌ अनकल सयोग जिस

नही ह ) तो भी उसका जीवन परशसनीय ह, सखी ह । म मर सखसवभाव

समयरदषटि की परशसा ] [ २७

स भरा हआ ह और सयोग स खाली ह - ऐसी अनभति धरमी को सदा ही वरतती ह। वह सतय का सतकार करनवाला ह, शरानददायक अमतमारग पर चलनवाला ह और जो जीव सवभाव स तो खाली ह - पराशरय की शरदधा करता ह भरथात‌ शरानद स भर हए निजसवभाव को जो नही दखता और विपरीतदषटि स राग को ही धरम मानता ह, सयोग स और पणय स अपन को भरा हआ मानता ह, वह जीव बाहर क सयोग स सखी जसा दिखता हो तो भी वह वासतव म महाद:खी ह, ससार क ही मारग म ह। बाहर का सयोग कोई वरतमान धरम का फल नही | धरमीजीव बाहर स चाह खाली हो; परनत अतर म भर हए शरदधा, तदरप जञान और बल स वह कवलजञानी होगा और जो जीव सयोग स भरा हआझा; परनत सवभावजञान स शन‍य (खाली) ह, वह समयगदशन स रहित ह। वह विपरीतदषटि स ससार म कषट उठावगा। आतमा को सवभाव स भरा हआ और सयोग स खाली माना तो वह उसक फल म सयोग रहित ऐस सिदधपद को परापत करगा ।

सयोग स आतमा की महतता नही ह- इस सबध म शरीमद राजचनदरजी AACE तततवविचार' म कहत ह :-

लकषमो बढी अधिकार भी, पर बढ गया वया बोलिय? परिवार और कदमब ह क‍या, वदधि कछ नह मानिय॥ ससार का बढना शरर, नरदह को यह हार ह। aig एक कषण तभको झर, इसका विवक-विचार ह ।।

गर | सयोग स आतमा. की महतता मानी - यह तो सवभाव को भलकर इस शअरनमोल मनषयभव को हारन जसा ह; परतः ह भाई ! इस मनषयभव को परापतकर आतमा का भान कस हो और समयरदरशन की परापति होकर भवशरमण कस मिट,' उसका परषारथ कर ।

जगत म असत‌ माननवाल बहत होव, उसस कया और सतय धरम समभनवाल थोड ही हो, उसस कया ? उसस कोई असत‌ की कीमत बढ जाव और सत‌ की कीमत घट जाव - ऐसा नही ह । कीडी क दल बहत स हो और मनषय थोड हो- इसस कोई कीडी की कीमत बढ नही जाती 1 जगत म सिदध सदा थोड और ससारी जीव बहत ह, बया उसस

सिदध की अपकषा ससारी की कीमत बढ गई ? जस गरफीम का चाह बडा ढला हो तो भी वह कडवा ह और शककर की छोटी-सी कणिका हो तो भी वह मीठी ह; उसीधपरकार मिथयामारग म करोडो जीव हो तो भी बह मारम

25 | [ शरावकधरम परकाश

AST HAL AMT समयकमारग म चाह थोड जीव हो तो भी वह मारग गरमत जसा ह ।

जस थाली चाह सोन की हो, परनत यदि उसम जहर भरा हो तो बह नही शोभता और खानवाला मरता ह; उसीपरकार कोई जीव चाह पणय क ठाठ क मधय म पडा हो, परनत यदि वह भिथयातवरपी जहर सहित ह तो वह नही शोभता, वह‌ ससार म भावमरण कर रहा ह।

रनत जिसपरकार थाली चाह लोह की हो, किनत उसम अमत भरा हो तो वह शोभा पाती ह और खानवाल को तपति दती ह।उसीपरकार चाह परतिकलता क समह म पडा हो; परनत जो जीव समयगदशनतरपी अमत स भरा हआ ह, वह शोभता ह, वह आतमा क परमसख को अनभवता ह और अमत जस सिदधपद को परापत करता ह।

परमातमपरकाश' की टीका म कहा ह :-

“बर नरकवासोउपि समयकतवन हि सयतः। न त समपकतवहीनसथ निवासो दिवि राजत ॥7

समयकतव सहित जीव का नरकवास भी भला ह और समयकक‍तव रहित जीव का दवलोक म निवास होना भी नही शोभता | समयपदशन क बिना दवलोक क दव भी दःखी ही ह ।

वही शासतर म उनह पापी कहा ह :-

“समपवतवरहिता: जीवाः पणयसहिता झरपि पापजीवा भणयनत ।*

ayaa ter जीव पणयसहित होन पर भी पापजीव कहलात ह ।

ऐसा जानकर शरावक को सबस पहल समयकतव की आराधना करनी चाहिए ।

1. शरी बरहमदव सरी : परमातमपरकाश, दोहा १८५ की सरकषत टीका

2. बही

(३)

समयरदरशन की दलभता

बोज मोलकषतरोद रश भवतरोभिथयातवमाहजिना: परापताया इशि तनपमकषभिरल यततो विधयो बधः।

ससार बहयोनिजालजठिल अआसयत‌ ककरमावतः कब पराणी लगत महतयपि गत काल हिता तामिह wan

सामानयारथ :- जिननदर भगवान न समयरदरशन को मोकषरपी वकष का बीज तथा सिथयादरशन को ससारखपी बकष का बीज बतलाया ह: - ऐसा समयरदरशन परापत हो जान पर मोकषामिलाबी विहजजनो को उसक सरकषण आदि क विषय म सहात‌ परयतत करता जाहिए, कयोकि यह जीव पापकरम स आचछतत होकर बहत (चौरासी लाख) योनियो क समह स जठिल इस ससार म परिशरमश करक दीरधकाल क बीतन पर भी हितकारक समयःदरशन को कस परापत कर सकता ह ? शररथात‌ तही परापत कर सकता ह।

( शलोक ३ का परवचन ) पहली गाथा म भगवान सरवजवव की और उनकी वाणी की पहि-

चान तथा शरदधा होन पर ही शरावकरषरम होता ह! -- ऐसा बतलाया और दसरी गाथा म 'ऐसी शरदधा करनवाल समपमदषटि जीव थोड हो तो भी व परशसनीय ह - ऐसा बतला कर उसकी आराधना का उपदश दिया ह ।

अब, तीसरी गाथा म शरी पदमनदी सवामी उसत समयरदरशन को मीकष का बीज कहकर उसकी परापति क लिय परम उदयमर करन को कहत ह ।

मोकषरपी वकष का बीज समयनदरशश ह और ससाररपी वकष का बीज मिधयातव 8 ~ ऐसा भगवान जिननदरदव न कहा ह। इसलिए ममकष को समपनदशन की परापति हत अतयधिक परयतन करता करतवय ह। अर !

Re | [ शरावकथमपरकाश

ससार म अनत भव म समयरदरशन क बिना जीव ककरमो स भटक रहा ह, दीघकाल वयतीत होन पर भी पराणी समयगदरशन को कया पा सका ? पर ! समयरदरशन की परापति महादरलभ ह; अरतः ह जीव ! त समयगदशन की परापति क लिए परम उदयम कर और उसको पाकर अतयनत यतन स उसकी रकषा कर । ~

कनदकनद सवामी न अषटपाहड क परारमभ म ही कहा ह कि “दसण- मलो धममो उबइटठो जिखवरहि सिससाण ? शररथात‌ जिनवरदव न दरशन जिसका मल ह - ऐसा धरम शिषयो को उपदशा ह। जस बिना मल वकष नही; वस समयरदरशत बिना धरम नही। चौदह गरणसथानो म समयगदशन चौथ गणसथान म होता ह और बरत पाचव गणसथान म होत ह, मनिदशा छठव-सातव गणसथान म होती ह | समयगदरशन क बिना मातर शभराग स

ही पाचवा-छठवा गणसथान अरथवा धरम मान, मोकषमाग मान ल तो उसम मिथयातव का पोषण होता ह! मोकषमारग क कर की भी,उस खबर नही ह । मोकषमारग म पहल समयगदशन ह. उसक बिना धरम का परारमभ नही होता, उसक बिना शरावकपना या मनिपना सचचा नही होता । भर जीव ! घरम का सवरप कया ह और मोकषमारग का करम कया ह, उस पहल जानो। समयगदरशन क बिना पणय तन शरतन‍तबार किया तो भी त ससार म ही भटका और तन दःख ही भोग, अतः समझ ल कि पणय कोई मोकष का साधन नही ह । मोकष का बीज तो समयगदशन ह।

वह समयगदरशन कसा होता ह ? रागादि की शदधता स रहित

शरातमा का शदध भतारथसवभाव कसा ह - इसकी अनभति स ही आतमा समयगदषटि होता ह। जिससमय स समयरदषटि होता ह, उसीसमय स ही

मोकषमारगी होता ह। पशचात‌ इसी भतारथसवभाव क अवलमबन म आग

बढत-बढत शदधि अनसार पाचवा-सातवा इतयादि गरणसथान परकट होत ह ।

चौथ की भरपकषा पाचव गणसथान म सवभाव का विशष अवलमबन ह, वहा शपरतयाखयान समबनधी चारो कषाय भी छट गई ह और वीतरागी आननद बढ गया ह। सरवारथसिदधि क दव की शरपकषा पचम गणसथानवरती मढक को झातमा का आननद अधिक ह, परनत यह दशा (पचम गणसथान की )

समयरदरशनपरवक ही होती ह; भरतः समयरदरशत की परापति का परमपरयतन करना कतवय ह ।

शर ! चौरासी क गरवतार म समयगदशतत की परापति बहत दलभ ह ।

1. शरषटपाहड; दरशनपाहड, गाथा र

समयरदरशन की दरलभता ] [ ३१

समयकतवी को रागादि परिणाम आत हए भी उसकी अनतर की दषटि म स शदधसवभाव कभी भी खिसकता नही ह। यहा शरावक क बरतरप शभ- भाव करन का उपदश दिया जावगा, तो भी धरमी की दषटि म राग की मखयता नही, परनत शदधसवभाव की ही मखयता ह। दषटि म यदि सवभाव की मखयता छटकर राग की मखयता हो जाव तो समयरदरशन भी न रह ।

शदधसवभाव म मोकषदशा को विकसित कर दन की शकति ह। जिसन इस

शदधसवभाव को परतीति म लकर समयगदरशन परगट किया, उसन मोकष का वकष शरातमा भ बो दिया और चौरासी क भरवतार का बीज जला दिया; अतः ह ममकष ! त ऐस समयकतव का परम उदयम कर ।

जहा समयगदरशन नही, बहा धरम नही ह। जिस भतारथसवभाव का भान नही और राग म एकतवबदधि ह, उस धरम कसा ? वह शभराग स बरतादि कर तो वह भी बालबनत ह शरौर उस बालबरत क राग को धरम मान तो “बकरी निकालत ऊट परवश कर गया' - ऐसा होता ह। थोडा अरशभ को छोडकर शभ को धरम मानन गया, वहा मिथयातव का मोटा अशभरपी ऊट ही परवश कर गया: अत: शरावक को सबस पहल सरवजञ क बचना- नसार यथारथ वसतसवरप जानकर-परम उदयमपरवक समयकतव परगट करना चाहिय। जीव की शोभा समयकतव स ही ह ।

सयोग चाह जितन परतिकल हो, परनत अनतरग म चिदाननदसवभाव की परतीति करक शरदधा म परण आतमा की अनकलता परगठ की तो वह धनय ह ।

आतमा क सवभाव स विरदध मानयतारप उलटी शरदधा बडा अवगण ह, बाहर की परतिकलता होना अवगण नही ह ।

अनतर म चिदाननदसवभाव की परतीति करक मोकषमारग wae करना महान सदगण ह, बाहर म शरनकलता का ठाठ होना कोई गरण नही ह।

शरोतमा की घरमसमपदा किसस परमट होती ह ? उसकी जिस खबर नही, वही महान दरिदरी ह और भव-भव म भठककर दःख को भोगता ह । जिस घधरमातमा को आतमा की सवभावसमपदा का भान हआ ह, उसक पास तो इतना बडा चतनयलजाना भरा ह कि उसम स कवलजञान और सिदधपद परगटगा । बतमान म पणय का ठाट भल न हो तो भी वह. जीव महान परशसनीय ह। अहो ! दरिदर समकिती भी कवली का अनगामी ह,

RR | [ शरावकथर परकाश

सरवजञ क मारग पर चलनवाला ह। उसन आतमा म मोकष क बीज बो दिय ह, अरलपकाल म उसम स मोकष का भाड फलगा। पणय म स तो सयोग फलगा और समयरदरशन म स मोकष का मीठा फल पकगा ।

दखो, इस समयगदरशन की महिमा ! समरकिती भरथात‌ परमातमा का पतर। जनकल म जनम हआ - इसस कोई मान ल कि हम शरावक ह, परनत भाई ! शरावक अरथात‌ परमातमा का पतर । परमातमा का पतर कस हो ? उसकी यह रीति कही जाती ह :-

भदविजञान जगयो जिनहक घट, शीतल चितत भयो. जिम चदन १ कलि कर शिवमारग म, जगरमाह जिनशवर क लघननदन॥

जहा भदजञान और समयगदरशन परगट किया, वहा अतर म परपरव शाति को अनभवता हगना जीव मोकष क मार म कलि करता ह और बह जगत म जिनशवरदव का लघननदन ह। मनि बडा पतर ह और समकितती छोटा पतर ह।

आदिपराण म भी (सरग २, इलोक &४) जिनसन सवामी न गौतम गणधर को 'सरवजञपतर' कहा ह; यहा समकिती को जिनहवर का लघननदन अरथात‌ भगवान का छोटा पतर कहा ह। अहा | जिस जब समयगदरशन हआ; तभी ag कवली भगवान का पतर हआ, भगवान का उततराखिकारी gal, TANTS का साधक हआ |

किसी को परणययोग स पिता को विशाल समपतति का उततराधिकार मिल, परनत वह समपतति तो कषण म नषट हो जाती ह और यह समकिती तो कवलजञानी सरवजञ पिता की शरकषयनितरि का उततराधिकारी हशना ह,

यह निधि कभी समापत नही होती, आरादि-अननत रहती ह। समयगदरशन cal case कर, वह आरावक कहलाता ह; अतः शराबकथरम क

उपासक को निरनतर परयतनपरवक समयगदरशन घारण करना चाहिए ।

जिसपरकार आम का बीज आम की यठली होती ह, किसी कडवी निमबोली क बीज म स मधर आम नही पकत; उसीपरकार मोकषरपी मीठ गराम का बीज तो समयरदरशन ह, पणयादि विकार मोकष का बीज नही ह। भाई ! तर मोकष का बोज तर सवभाव की जाति का हो, उसस विरदध न हो । मोकष अरथात‌ परण आननदरप बीततरागदशा, अतः उसका बीज राग

1. कविवर बनारसीदास : समयसार नाटक, भगलाच रख, छनद ६

समयगदरशन की दलभता ] [ रई

कस हो ? राममिशरित विचारो स भी पार होकर निविकतप शराननद क अनभव सहित आतमा की परतीति करना ही समयरदरशन ह और वही मोकष का मल ह ।

मोकष का बीज समयगदरशन ह और उस समयरदशन का बीज झातमा

का भतारथसवभाव ह :- “भदतथमससिदो खल सममादिटठो हवदि जीवो'

भतारथसवभाव का आशरय करनवाला जीव समयरदषटि ह मोकष का मल समयगदशन ह - ऐसा कहा ह, परनत यदि कोई उस

समयगदरशन का सवरप अनयपरकार मान तो उस भी मारग की खबर नही ह। समयगदरशन अनय क आशरय स नही, आतमा क सवभाव क आशरय स ही ह।

परशन :- मोकषमारग तो समयगदशन-जञान-चारितररय कहा ह न ?

उततर :- यह सतय ही ह, पर उसम बीजरप समयरदशन बिना जञान अथवा चारितर नही होत | पहल समयगदशन होता ह, पीछ ही जञान- चारितर परण होन पर मोकष होता ह। परषारथ सिदध गपाय म शरी अमतचनदर सवामी न भी कहा ह :-

“एव समयरदशनबोधचरितरतरयातमको नितयम। तसयापि मोकषमारगो भवति निषवयो यथाशकति: ॥॥२०॥। ततरादा समयकतव समपाशरयणीयमखिलयतनन । तसमिन‌ सतयव एतो भवति जञान चरितर च॥२१॥

समयगदशन-जञान-चा रितर - इन तीन सवरप मोकषमारग ह, उसका गहसथो को सदा यथाशवित सवन करना चाहिय । उन तीन म सबस पहल परण परषारथ दवारा अगीकार करन योगय समयकतव ह; कयोकि उसक होन पर हो जञान और चारितर होत ह ।

समयगदशन क बिना जञान या चारितर मोकष क साधक नही होत और समयवतव सहित मोकषमारग का सवन गहसथ को भी यथाशकति होता ह - ऐसा यहा बतलाया ।

समयगदरशन क पशचात‌ जो रागर-हव प‌ ह, व भरतयनत शरलप ह और

उनम धरमी को एकतवबदधि नही ह। मिथयाटषटि को राग-दव ष म एकतवबदधि ह अरथात‌ उसको अरननतानबनधी राग-दवघष अननत ससार का कारण ह।

1. समयसार, गाथा ११

२४ ] [ शरावकधरम परकाश

इसपरकार ससार का बीज भिथयातव ह और समयगदरशन होन पर उसका छद होकर मोकष का बीजारोपण होता ह । समयगदरशनरपी बीज उतपनन होन पर वह बढकर कवलजञानरपी परण वकष होकर रहगा।

समयकतव कहता ह “मझ गरहण करन स गरहण करनवाल की इचछा न हो तो भी मरक उस जबरन साकष ल जाना पडता ह, इसलिए मझ गरहण करन क पहल यह विचार कर लो कि मोकष जान की इचछा पलटन पर भी वह काम आन की नही । मझ गरहण करन क पशचात‌ तो मझ उस मोकष पहचाना ही चाहिय - यह मरी परतिजञा gs”

- यह कथन शरीमद‌ राजचनदरजी का ह। ऐसा कहकर उनहोन

समयकतव की महिमा बतलाई ह और उस मोकष का मल कहा ह।

समयकतव अगीकार कर और मोकष न हो - ऐसा नही बनता और समयकतव बिना मोकष हो जाय - ऐसा भी नही बनता, इसलिए परमयतन

स समयगदरशन परगट करन का उपदश ह।

अहा ! समयगदरशन होत ही चतनय क भडार की तिजोरी खल गई । गरब उसम स जञान-पराननद का माल जितना चाहो, उतना बाहर निकालो |

पहल भिथयातव क ताल म चतनय का खजाना बद था; शरब समयगदशनरपी चाबी स खोलत ही चतनय का शरकषय भडार परगट हआ; अब यदि सादि

अननतकाल परयनत इसम स कवलजञान और परणाननद लिया ही कर....लिया ही कर .. तो भी वह भडार समापत हो जाय - एसा नही ह । किसी परकार ag कम हो जाय - ऐसा भी नही ह ।

अहम ! सरवजञ परभ और वीतरागी सनन‍तो न ऐसा चतनयभडार खोलकर बतलाया ह; तो उस कौन न ल ? कौन अनभव न कर ?

समयगदशन बिना चाह जितना कर तो भी चतनय का भडार नही खलता, मोकषमारग परगट नही होता, शरावकपना भी नही होता । जो जीव सचच दव-गर-धरम का विरोध करता ह और कदव-कगर-कधरम का भरादर करता ह, उस तो वयवहार स भी शरावकपना नही होता | वह तो मिथयातव क तीबर पाप म डबा हआ ह । ऐस जीव को यदि परव का पणय हो तो वह भी घट जाता ह । ऐस जीवो को तो महापापी कहकर पहली ही गाथा म निषघ किया ह । उनम तो धरम की भी योगयता नही ह। यहा तो सचचा शरावक धरमातमा होन क लिय सबस पहल सरवजदव की पहचानपरवक समयगदरशन को शदध करन का उपदश ह।

समयगदरशन की दरलभता | [ 34

कोई कह कि हमन दिगमबर धरम क सपरदाय म जनम धारण किया ह, इसलिय समयगदरशन तो हमको होता ही ह तो यह बात सचची नही ह | जसा सरवजञदव न कहा, वसा अपन चतनयसवभाव को पहचान बिना कभी समयगदरशन नही होता । दिगमबर धरम तो सचचा ह; परनत त सवय समभ तब न ? समझ बिता इस सतय का तझ क‍या लाभ ? तर भगवान और गर तो सचच ह, परनत उनका सवरप पहचान, तभी त सचचा होगा | पहचान बिना तझ कया लाभ ? (समर बिना उपकार क‍या ? )

धरम की भमिका समयगदशन ह और मिथयातव बडा पाप ह। भिथयादषटि मनदकषाय करक उस मोकष का कारण मान तो वहा उस अलप पणय क साथ मिथयातव का बडा पाप बधता ह, इसलिए मिथयातव को भगवान न भव का बीज कहा ह। मिथयादषटि जीव पणय कर तो भी उस वह परणय मोकष का कारण नही होता, समकिती को पणय-पाप होत हए भी उस व ससार का बीज नही ह। समकिती को समयकतव म मोकष की फसल आवगी और मिथयादषटि को मिथयातवः म स ससार का फल आवगा, इसलिए मोकषाभिलाषी जीवो को समयमदशन की परापति का और उसकी रकषा का परम-उदयम करना चाहिय।

जो समयगदशन का उदयम नही करता और पणय को मोकष का साधन समभकर उसकी रचि म अटक जाता ह, उसस कहत ह कि अर मढ ! तझ भगवान की भकति करना नही आती, भगवान तरी भकति को सवीकार नही करत; कयोकि तर जञान म तन भगवान को सवीकार नही किया ! अपन सरवजषसवभाव को जिसन पहचाना, उसन भगवान को सवीकार किया और भगवान न उस मोकषमारग म सवीकार किया, वह भगवान का सचचा WAT EAT दनिया चाह उस न मान या पागल कह; परनत भगवान न और सन‍तो न उस मोकषमारग म सवीकार किया ह, भगवान क घर म वह परथम ह ।

भगवान क जञान म जिसकी महापातरता भासित हई तो इसक समान बडा अभिननदन ( सन‍मान ) क‍या ? वह तो तीनलोक म सबस महान‌ सरवजञता को परापत. होगा और दनिया भछ पजती हो, परनत भगवान न जिस धरम क लिए अरयोगय कहा तो उसक समान अपमान अनय कया ? अहा ! भगवान की वाणी म जिस जीव क लिए ऐसा आया कि यह जीव तोरथकर होगा, यह जीव गणधर होगा तो उसक समान महा-

३६ ] | शरावकधरम परकाश

भागय अनय कया ? सरवजञ क मारग म समयरदषटि का बडा सममान ह और मिथयादषटिपता ही बडा अरपमान ह।

इस घोर दःख स भर हय ससार म भटकत जीव को समयरदशन परापत होना बहत दरलभ ह; परनत “वह धरम का मल ह” - ऐसा समभकर आतमारथी को पहल उसका ही उदयम करना चाहिय। यदि मनिदजषा हो सक तो करना और यदि वह न हो सक तो शरावकधरम का पालन करना - ऐसा कहत ह; परनत उन दोनो म 'समयगदशन तो पहल होवा चाहिए! - यह मलभत रखकर पीछ मनिधरम या शरावकधरम की बात ह।

परशन :- समयगदशन किसपरकार होता ह ? उततर :- भदतथमससिदो खल सममादिटठी हवदि जौवी शररथात‌

सयोग और विकार रहित शदध चिदाननदसवभाव कसा ह, उस लकष म लकर अनभव करन स समयगदशन होता ह; शरनय किसी क आशरय स समयगदशन नही होता। सयोग या बनधभाव जितना ही परातमा का अनभव करना और जञानमय अबनधसवभावी शरातमा को भल जाना मिथयातव ह। मिथयातव सहित की सब करियाए एक इकाई बिना की झन‍यो की तरह धरम क लिए वयरथ ह। छहढाला म पडित दोलतरामजी न भी कहा ह कि :-

“मनिवरत धार शरननतबार गरीवक उपजायो; प निज आतमजञान बिता सख लश न पायो ।?

गणधरादि सनन‍तो न समयगदरशन को मोकष का बीज कहा ह। यदि कोई बीज क बिना वकष उगाना चाह तो कस उग ? उस लोग मरख कहत ह; उसीपरकार समयगदशन क बिना जो धरमरपी वकष लगाना चाहत ह, व परमारथ स मरख ह। जिनह अनतर म राग क साथ एकताबदधि गअतयचत टट गई ह भर बाहय म वसतरादि का परिगरह छट गया ह - ऐस बीतरागी: सनत महातमा का यह कथन ह।

जीव को अननतकाल म अनय सब-कछ मिला ह, परनत शदध

समयगदरशन की परापति नही हई। महान दव और राजा-महाराजा अननतबार हआ, उसीपरकार घोर नरक-तियच क द:ख भी अननतबार भोग; परनत म सवय जञानयण का भणडार और झाननदसवरप ह - ऐसी आतमपरतीति या अनभव उसन परव म कभी नही किया। सनत करणा-

1. छहढाला; चौथी ढाल, छनद ५

समयरदरशन को दरलभता | [ ३७

परवक कहत ह कि ह भाई ! तझ ऐस चतनयतततव की परतीति का अवसर पनः पन: कहा मिलगा ? इसलिय ऐसा अवसर परापत कर उसका उदयम कर, जिसस तरा भवद:ख स छटकारा हो ।

इस समयगदरशन का साधन कया ह ? तो कहत ह कि भाई ! तर समयगदशन का साधन तर म होता ह या तर स बाहर होता ह ? झातमा सवय सतसवभावी, सरवजञसवभावी परमातमा ह; उसक अनतम‌ ख होन स ही परमातमा होता ह, बाहर क साधन स नही। अनतर म दखनवाला अनतरातमा ह शरौर बाहर स माननवाला बहिरातमा ह।

जिसपरकार शराम की गरठली म स आराम और बबल म स बबल फलता ह; उसीपरकार आझातमपरतीतिरप समयदशन म स तो मोकष क शराम फलत ह और मिथयातवरप बबल म स बबल जसी ससार की चार गति फलती ह | शदधसवभाव स ससरण करक ( बाहर निकलकर ) विकार- भावरप परिणमित होना ससार ह | शदधसवभाव क grea स विकार का अभाव और परणाननद की परापति मोकष ह ।

इसपरकार आतमा का ससार और मोकष सभी सवय म ही समा- विषट ह, उनका कारण भी सवय म ही ह! बाहर की शरनय कोई वसत आतमा क ससार-मोकष का कारण नही ह ।

जो आरातमा का परण असतितव मान, ससार और मोकष को मान, चार गति मान, जिस चारो गतियो म दःख लग और जो उसस छटना चाह - ऐस शरासतिक जिननास जीव की यह बात ह। जगत म भिनन-भिनन अननत आतमाए अनादि-अननत ह। आतमा अभी तक कहा रहा? गरातमभान क बिना ससार की भिनन-भिनन गतियो म भिनन-भिनन शरीर धारण करक दःखी हआ | शरब उनस कस छटा जाय और मोकष कस परापत हो - इसकी यह बात ह।

शरर जीव ! अजञान स इस ससार म तन जो दःख भोग, उनकी क‍या बात ? भरब सतसमागम - सतय समभन का उततम WATT AAT ZI ऐस समय म यदि शरातमा की दरकार करक समयगदशन परापत नही कर तो समदर म डाल दिय रतन को तरह इस भवसमदर म तरा कही ठिकाना नही लगगा। ऐसा उततम शरवसर पनः पनः हाथ नही आता; अतः समयरदरशन की परापति महादलभ जानकर उसका परम-उदयम कर ।

यहा तो समयगदशन क पशचात‌ शरावक क बरत का परकाशन करना

sa | ( शरावकधमपरकाश

ह; परनत उसक परव यह बताया ह कि बरत की भमिका समयकतव ह, समयरदषटरि को राग करन की बदधि नही, राग दवारा मोकषमाग सधगा - ऐसा वह नही मानता, उस भमिकानसार राग क तयागरप बरत होत ह । बरत म जो शभराग रहता ह, उस वह शरदधा म आदरणीय नही मानता ।

चतनयसवरप म थोडी एकागरता होत ही शरननतानबनधी कषाय क पचचात‌ शरपरतयाखयान समबनधी कषायो का भी अभाव होकर पचम गरणसथान क योगय जो शदधि हई, वह सचचा धरम ह। चौथ शणसथानवरती सरवारथसिदधि क दव की अपकषा पाचव गणसथानवाल शरावक को आतमा का आननद विशष ह, भल ही वह मनषय हो या तियच । उततम परषो को समयगदरशन परगट कर मनि क महदातरत या शरावक क दशबरत का पालन करना चाहिय । राग म करिसीपरकार एकतवबदधि नही हो और शदधसवभाव की दषटि. नही छट - इसपरकार समयगदरशन क निरनतर पालनपरवक धरम का उपदश ह ।

अर जीव ! इस तीकर सकलश स भर ससार म भरमण करत हए समयगदरशन की परापति अतिदरलभ ह । जिसन समयगदरशन परगट किया, उसन आतमा म मोकष का वकष बोया ह; इसलिए सरव उदयम स समयरदशन का सवन FT I

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| || निरखत जिनचनद बदन सव-पदसरतचि झाई। ठटक॥ ) | परगटी निज शरान की पिछान जञान भान को। \ |. कला salt होत काम जामिनी पलाई॥१॥ की | शाशवत झाननद सवाद पायो बविनसथो fanz ॥| | att म अनिषट इषठ कलपना नसाई ॥२॥ \ M साधी निज साध को समाधि मोह वयाधि को। Ht i उपाधि को विराधिक झाराघना सहाई॥३॥ \

घन दिन छिन शराज सगन चिनत जिनराज wat #' \ सधर सब काज 'दौल' अचल सिदधि पाई ॥४॥ | \ - कवबिवर दोलतरास \ a aT ST ee We Se ee “ee ee “ae ees = ee ee oe ee CE 6 ee See ee See See ae

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शरावक क छह आवशयक समपरापतचतर भव कथ कथमपि दराधोयसाइनहसा । सानषय शचिदरश च महता कारय तपो मोकषदस‌ ॥

नो चललोकनिषधतोईषथ महतो मोहादशकतरथो ।

समपदयत न तततदा गहवता षटकमयोगय बरत ॥४॥

सामानयारथ :- इस ससार म यदि किसी परकार स अरतिशय दीघ- - काल म मनषयमव झौर निरमल समयगदरशन परापत हो गया ह तो फिर महापरषो को मोकषदायक तप का शराचरण करना चाहिए । यदि कदमबी- जनो (लोक) शरादि क रोकन स, महामोह स अथवा अशकत स वह तपशच रण नही किया जा सक तो गहसथ शआावको को छह गरावशयक (दव- पजादि) करियाओ क योगय बरत का परिपालन तो करना हो चाहिए।

शलोक ४ पर परवचन

समयगदशन परापत करन क पशचात‌ कया PLAT, Ae Ta aT इलोक म कहत ह ।

अनादिकाल स इस ससार म भरमण करत हए जीव को मनषयपना परापत होना कठिन ह और उसम भी समयगदरशन की परापति अतिदरलभ ह । इस भव म way करत-करत दीघकाल म ऐसा मनषयपना और समयगदशन परापत करक उततम परषो को तो मोकषदायक ऐसा तप करना योगय ह अरथात‌ मनिदका परगट करना योगय ह शरौर यदि लोक क निषध स मोह की तीवरता स शलौर निज की अशवकति स मनिपना नही लिया जा सक तो उस गहसथ क योगय दवपजा आदि षदकरम तथा बरतो का पालन करना चाहिए।

मनिराज कहत ह कि ह भवय ! ऐसा दलभ मनषयभव परापतकर आतमहित क लिए त मनिधरम अगीकार कर और यदि तमस इतना न

४० ] [ शरावकषरमपरकाश

हो सक तो शरावकघरम का पालन तो अवशय कर; परनत दोनो समयगदरशन सहित होन की बात ह । मनिधरम या शरावकधरम दोनो क मल म समयरदरशन और सरवजञ की पहिचान सहित आग बढन की बात ह। जिस समयगदरशन न हो तो परथम उसका- उदयम करना चाहिय - यह बात तो परथम तीन गाथाओ म बता भराय ह; उसक परचात‌ शराग की भमिका की यह बात ह |

समयरदषटि की भावना तो मनिपन की ही होती ह | शरहो ! कब चतनय म लीन होकर सरव सग का परितयाग करक मनिमारग म विचरण कर ? शदधरतनतरयसवरप जो उतकषट मोकषमारग, उसछप कब परिणमित होऊ ? तीथकर और अरिहत मनि होकर चतनय क जिस मारग पर बिचर, उस मारग पर विचरण कर - ऐसा धनय सवकाल कब आयगा ।

अपरव शरवसर ऐसा कब मझ आयगा, बाहयानतर निगन न‍थ दशा जब पाऊगा। सरव समबनध का बनधन तीकषण Benz, कब विचरगा महतपरष क पन‍थ पर ॥

इसपरकार झातमा क भानपरवक धरमीजीव मनिपन की भावना भात ह, तथापि निजशकति की मदता स और निमिततरप चारितरमोह की तीबरता स तथा कठमबीजनो भरादि क शरागरहवश होकर सवय ऐसा मनिपद गरहण न कर सक तो वह घरमातमा गहसथपन म रहकर शरावक क धरम का पालन कर - ऐसा यहा बतलाया ह।

शरी पदमननदी सवामी न शरावक क छह करतवय बतलाय ह :-

“दवपजा गरपासतिः सवाधयाय: सयमसलप:। दान चति गहसथाना षटकरमारि दिन दिन ॥

भगवान जिननदरदव की पजा, निमन नथ गरओ की उपासना, वीत- रागी जनशासतरो का सवाधयाय, सयम, तप शरौर दान -य छह कारय गहसथ शरावक को परतिदित करन योगय ह ।

मनिपना न हो सक तो दषटि की शदधतापवक - इन छह कतबयो दवारा शरावकधरम का पालन तो अरवशय करना चाहिए।

भाई ! ऐसा गरमलय मनषयजीवन परापत कर यो ही War द और सरवजदव की पहिचान न कर, समयगदरशन का सवन न कर, शासतर- सवाधयाय न कर, घरमातमा की सवा न कर और कषायो की मन‍दता न

1, पदमनरदि-पचबिश तिका; उपासक ससकार, शलोक ७

शरावक क छह भरावशयक ] [ ४१

कर तो इस जीवन म तन कया किया ? पबरातमा को भलकर ससार म भटकत हए शरननतकाल बीत गया; उसम महा मलयवान‌ यह मनषयभव शरौर धरम का ऐसा दरलभयोग मिला तो शरब जो तरा परमातमा क समान सवभाव ह, उस दषटि म लकर मोकष का साधन कर ! यह शरीर और सयोग तो कषणभगर ह, इनम तो कही खख की छाया भी नही ह ।

सखियो म परण सखी तो सरवजञ परमातमा ह; दसर सखी मनिवर ह, जो आननद की ऊरमपरवक सरवजञगद को साध रह ह और तीसर सखी समयगदषटि धरमातमा ह, जिनहोन चतनय क परम-आननन‍दसवभाव को परतीति म लिया ह और उसका सवाद चखा ह; अरतः वासतविक सख का अभि- लाषी जीव परथम समयगदरशन परगट करक मनिधरम या शरावकधरम का पालन करता ह - ऐसा उपदश ह ।

ससार-परिभरमण म जीव को परथम तो निगोदादि एकनदरिय म स निकलकर जसपना पाना बहत दलभ ह, जसपन म भी पचनदरिययना और मनषयपना परापत करना अतिदरलभ ह। अतिदरलभ होत हए भी जीव अननतबार उस परापत कर चका ह, परनत समयगदशन उसन कभी परापत नही किया, इसलिय मनिराज कहत ह कि ह भवय जीव ! ऐस दरलभ मनषयपन म त समयगदरशन की परापति करक शदधोपयोगरप मनिधरम की उपासना कर; यदि इतना न बन सक तो शरावकधरस का पालन अवशय कर ।

दखो ! यहा यह भी कहा कि यदि मनिपना न हो सक तो शरावक- धरम पालना, परनत म‌ निपन का सवरप शरतयथा नही मानना। शदधोपयोग क बिना मातर राग (अटठाईस मलगणादि क शभराग) को या बसतर क तयाग को मनिपना मान ल तो वह शरदधा भी सचची नही रहती शररथात‌ उस तो शरावकधरम भी नही होता । चाह कदाचित‌ मनिपना न छ सक, परनत भरततरग म उस सवरप की परतीति बराबर परजवलित रख तो समयगदरशन

टिका रहगा; इसलिए तकस विशष न हो सक तो जितना हो सक, उतना ही करना शरदधा सचची होगी तो उसक बल स मोकषमारग टिका रहगा । शरदधा म ही गडबडी करगा तो मोकषमारग स भरषट हो जायगा।

समयगदरशन क दवारा जिनहोन शदधातमा को परतीति म लिया हो; उनको उगर लीनता स शदधोपयोग परगट हो और परचर आननद का सवदन परनतर म हो रहा हो, बाहय म वसतरादि परिगरह छट गया हो - ऐसी मनिदशा ह| अरहो ! इसम तो बहत वीतरागता ह, यह तो परमषठी पद ह । कनदकनद सवामी सवय ऐसी मनिदशा म थ। उनहोन परवचनसार क

डर] [ शलावकधरम परकाश

मगलाचरण म पचप रमषठी भगवनतो को वनदन किया ह। उनहोन कहा ह कि जिनहोन परमशदधोपयोग भमिका को परापत किया ह - ऐस साधगरो को परणाम करता ह ।

शदधोपपोग का नाम चारितरदशा ह, मोह और कषोभ बिना जो शरातमपरिणाम,- वह चारितरधरम ह, वही मनिपना ह। मनिमारग कया ह - इसकी जगत को खबर नही ह। कनदकनदाचाय जिस पद को नमसकार कर, वह मनिपद कसा ? यहा 'णमो लोए सबब साह - ऐसा कहकर पचपरमषठी पद म उनह नमसकार किया जाता ह। साधपद की महिमा की क‍या बात ? यह तो मोकष का साकषात‌ कारण ह ।

यहा कहत ह कि ह जीव ! मोकष का साकषात‌ कारण घदधचारितर को त अगीकार कर, समयगदरशन पशचात‌ एसी चारितरदशा परगट कर ! चारितरदशा बिना मोकष नही ह। कषायिक समयवतव और तीन जञान सहित ऐस तीरथदभर भी जब शदधघोपयोगरप चारितरदशा परगठ करत ह, तभी मनिपना और कवलजञान परापत करत ह; इसलिए समयरदरशन परापत करक ऐसी चारितरदशा परगट करना ही उततम मारग ह। परनत लोकनिषध स (कटमबीजनो क सना करन पर) और सवय क परिणाम म उसपरकार की शिथिलता स यदि चारितरदशा न ली जा सक तो शरावक क योगय बरतादि कर ।

दिगमबर मनिदशा पालन म तो बहत वीतरागता ह। परिणामो की शवित न दख और जिस-तिस परकार स मनिपना ल ल तथा पीछ पालन न कर सक तो उलट मनिमारग की निन‍दा होती ह; इसलिय अपन

शदधपरिणाम की शकति दखकर मनिपना लना । शकति की भनदता हो तो मनिपन की भावनापरवक शरावकधरम का आचरण करना, परनत उसक

मल म समयगदशन तो पहल होता ही ह। उसम कमजोरी नही चलती, समयकतव म थोडा या अधिक - ऐसा भद नही पडता ह ।

भतारथ क झराशचित शरावक को दो कषायो क शरभाव जितनी शदधि ह और मनि को तीन कषायो क गरभाव जितनी शदधि ह । जितनी शदधता ह, उतना निरचयधरम ह, सवरपाचरणरप सवसमय ह, उतना मोकषमाग ह शरोर उस भमिका म दवपजा- आदि का या पच महावरतादि का जो शभराग ह; वह वयवहारधरम ह, मोकष का कारण नही ह, परनत पणयाखव का कारण ह - इसपरकार शदधता और राग क मधय का भद पहिचानना चाहिय । समयकतवरप भावशदधि क बिना मातर शभ या अशभभाव तो

शरावक क छह आवशयक ] [ ४३

अनादि स सब जीवो म हआ ही करत ह; उस अकल शभ को वासतविक वयवहार नही कहत । निशचय बिना वयवहार कसा ? निशचयपरवक जो शभरागरप वयवहार ह, वह भी कोई वासतविक धरम नही ह; तो फिर निशचय बिना अकल शभराग की कया बात ? वह तो वासतव म वयवहार- धरम भी नही कहलाता ।

समयगदरशन होत शदधता परकट होती ह और धरम परगट होता ह । धरमी की राग म एकतवबदधि न होत हए भी दवपजा, गरभकति, शासतर-

सवाधयाय भरादि समबनधी शभराग होता ह, “बह उस राग का करता ह - ऐसा भी वयवहार स कहा जाता ह झौर उस ही वयवहारधरम कहा जाता ह; परनत निशचयधरम तो शरनतरग म भतारथसवभाव क आराशनय स जो शदधि परगट हई, वही ह ।

गर | वीतरागमारग की अरगमय लीला राग क दवारा जञान म नही गराती | वया तझ राग म सथित रहकर वीतरागमारग की साधना करना ह ? राग दवारा वीतरागमारग का साधन कभी नही हो सकता । राग दवारा धरम मान - ऐस जीव की यहा चरचा.नही ह। यहा तो जिसन भतारथ- सवभाव की दषटि स समयगदशन परगट किया ह, उसक आग बढत हए मनिधरम या शरावकधरम का पालन किसपरकार होता ह - इसकी चरचा ह ।

जिससमय समयरदहन हआ, उसीसमय सवसवदन म अतीनदरिय आरानद का सवाद तो झराया ह, ततयशचात‌ मनिपन म तो उस गरतीनदरिय आनद का परचर सवसवदन होता ह। शरहम ! मनियो को तो शदधातमा क सव- सवदन म शराननद की परचरता ह। समयसार की पाचवी गाथा म अपन निज वभव का बरणन करत हए आचारय शरी कनदकनद सवामी कहत ह कि गरनवरत झरत हए सनदर आननद की मदरावाला जो तीबर सवदन, उस- रप सवसवदन स हमारा निजवभव परगट हआ ह| । सवय को निःशक अनभव म आता ह कि ऐसा आतमवभव परगठ हआ ह ।

दखो, यह मनिदशा ! मनिपता तो सवरतततव की उतकषटता ह। जिस एसी मनिदशा की पहचान नही, उस सवरतततव की पहचान नही दिगमबरपना हआ या पच महातरत का शभराग हआ, उस ही मनिपना मान लना कोई सचचा नही ह और वसतर सहित दशा म मनिपना मान, उस तो गहीत मिथयातव भी छटा नही | मनिदशा क योगय परमसवर की भमिका म तीवर राग क किसपरकार क निमितत छट जात ह - इसकी भी उस खबर नही अरथात‌ उस भमिका की जदधता को भी उसन नही जावा

xe ] [ शरावकभरम परकाश

ह । वसतर रहित हआना हो, पच महाशरत दो षरहित पालता हो, परनत जो अनतरग म तीन कषाय क अभावरप शदधोपयोग नही तो उस भी मनिपना नही ह ।

मनिमारग तो शरलौकिक ह | महाविदहकषतर म वतमान म सीमधर परमातमा साकषात‌ तीरथक ररप म विराज रह ह, व ऐसा ही मारग परकाशित HC WEI Ts aaa ATT ge, aval ata wa वरतमान म उस कषतर म विचर रह ह और भविषय म अननत होग; उनहोन वाणी (दिवयधवनि ) म मनिपन का एक ही मारग बतलाया ह । यहा कहत ह कि

ह जीव ! ऐसा मनिपना अरगीकार करन योगय ह, यदि उस अगीकार न कर सक तो उसकी शरदधा करक शरावकधरम को पालना ।

परशन :- शलवावक को कया करना चाहिए ?

उततर :- परथम तो शरावक हमशा दवपजा कर। दव शररथात‌ सवजञदव, उनका सवरप पहचानकर उनक परति बहमानपवक रोज-रोज दशन-पजन कर | पहल ही सरवजञ की पहचान की बात कही थी। सवय न सरवजष को पहचान लिया ह और सवय सरवजञ होना चाहता ह, वहा निमिततरप म सरवजञता को परापत अरहत भगवान क पजन - बहमान का उतसाह धरमी को गाता ह ।

जिनमदिर बनवाना, उसम जिनपरतिमा सथापित करवाना, उनकी

पचकलयाणक पजा-अभिषक आदि उतसव करना - ऐस कारयो का उललास शरावक को शराता ह - ऐसी उसकी भमिका ह; इसलिए उस शरावक का कततवय कहा ह । यदि उसका निषध कर तो मिथयातव ह और मातर इतन शभराग को ही धरम समझ तो उसको भी सचचा शरावकपना नही होता- ऐसा जानो ।

सचच शरावक को तो परतयक कषण परण शदधातमा क शरदधानरप समयकतव वरतता, ह और उसक गराधा र स जितनी छदधता परगठ हई, उस ही धरम जानता ह । ऐसी दषटिपरवक वह दवपजा आदि कारयो म परवतता ह। समनतभदर सवामी, मानतग सवामी आदि महात मनियो न भी सवजञदव की नमरतापरवक महान सतति की ह; एक भवावतारी इनदर का रोम-रोम उललसित हो जाय - ऐसी गरदभत भकति करता ह। ह सरवजञ परमातमा ! इस पचमकाल म हम शरापक जसी परमातमदशा का तो विरह ह और इस भरतकषतर म शरापक साकषात‌ दरशन का भी बिरह ह । नाथ ! आपक दरशन बिना कस रह सक - इसपरकार भगवान क विरह म उनकी परतिमा को

शरावक क छह शरावशयक ] [ ४५

साकषात‌ भगवान क समान समभकर शरावक हमशा दरशन-पजन कर। 'जिनपरतिमा जिनसारखो; क‍योकि धरमी को सवजञ का सवरप अपन जञान म भास गया ह, इसलिय जिनबिमब को दखत ही उस उनका समरण हो जाता ह।

नियमसार टीका म शरी पदमपरभभलधारि मनिराज कहत ह कि जिस भवभय रहित ऐस भगव।न क परति भकति नही, वह जीव भवसमदर क बीच मगर क मह म पडा हआ ह। जिसपरकार ससार क रागी पराणी को यवा सतरी का विरह खटकता ह और उसक समाचार मिलत परसनन होता ह, उसीपरकार धरम क परमी जीव को सरवजञ परमातमा का विरह खटकता ह झौर उनकी परतिमा का दशन करत था सतो दवारा उनका सनदश सनत ( शासतर का शरवण करत ) उस परमातमा क परति भकति का उललास आता ह। अरहो मर नाथ ! तन स, मन स, धन स - सरवसवरप स शरापक लिए कया-कया कर ?

पदमननदी सवामी न शरावक क छहकतवय बताय ह। व 'उपासक ससकारः म कहत ह कि जो मनषय जिननदर भगवान को भकत स नही दखता तथा उनकी पजा-सतति नही करता, उसका जीवन निषफल ह और उसक गहसथाशरम को घिवकार ह। मनि इसस जयादा क‍या कह ? इसलिय भवयजीवो को परातः उठकर सरवपरथम दव-गर क दशन, भवित स वनदन और शासतरशनवण कतवय ह, अनय कारय पीछ करना चाहिय ।

परभो |! शरापको पहिचान बिना मरा अननत काल निषफल गया; परनत अब मन शरापको पहिचान लिया ह, मन भरापक परसाद स आपक जसा मरा आतमा पहचाना ह, आपकी कपा स मझ मोकषमारग मिला और मरा जनम-मरण का अनत आ गया - ऐसा धरमीजीव को दव-मर क परति भकत का परमोद आता ह। शरावक को समयगदरशन क साथ ऐस भाव होत ह । इसम जितना राग ह, उतना पणय ह; राग बिना जितनी शदधि ह, उतना धरम ह ।

शरावक जिनपजा की तरह हमशा गर की उपासना तथा शासतर का सवाधयाय कर । समसत तततवो का निरदोष सवरप जिसस दिख - ऐसा जञाननतर गरओो क परसाद स ही परापत होता ह। जो जीव निमन न‍य गरओरो

1. परदमतनदि पचविशतिका, उपासक ससकार, गाथा १५ स २७

४६ ] ..[ शरवावकधरम परकाश

को नही मानता, उनकी पहिचाव और उपासना नही करता, उसको तो सरय उग हए भी अनधकार ह। इसीपरकार वीतरागी गरओ क दवारा परकाशित सत‌ शासतरो का जो अभयास नही करता, उसको नतर होत हए भी विदवान लोग अनधा कहत ह। विकथा पढा कर और शासतरसवाधयाय न कर, उसक नतर किस काम क ? शरीगर क पास रहकर जो शासतर नही सनता शरौर हदय म घारण नही करता, उस मनषय क कान तथा मन नही ह - ऐसा कहा ह ।*

इसपरकार दवपजा, गरसवा और शासतरसवाधयाय -य शरावक क हमशा क करतवय ह । जिस घर म दव-गर-शासतर की उपासना नही होती; वह तो घर नही, जलखाना ह। जिसपरकार भकतिवान‌ पतर को अपनी माता क परति कसा झादरभाव और भकति आती ह। अहो मरी माता ! तर उपकार अपार ह, तर लिय कया-कया कर ? उसीपरकार धरमातमा शरावक को तथा जिजञास जीव को भगवान क परति, गर क परति शर

जिनवाणी माता क परति हदय स परशसत भकति का उदरक आता ह; अरहो मर सवामी ! आपक लिय म कया-कया कर, किसपरकार आरापकी सवा कर ? - ऐसा भाव भक‍त को झाय बिना नही रहता, तो भी उसकी जितनी सीमा ह, उतनी वह जानता ह। कवल वह उस राग म धरम मानकर नही रक जाता। धरम तो अनतर क भतारथसवभाव क अवलमबन स ह - उसन सवभाव को परतीति म लिया ह। ऐस समयगदरशन सहित मनिधरम को न पाल सक तो शरावकधरम का पालन कर, उसका यहा वरणन ह ।

शरावकधरम म छह कतवयो को मखय बताया ह। एक जिनपजा, दसरा गरपजणा और तीसरा शासतरसवाधयाय - इन तीन की चरचा की ! उसक बाद अपनी भमिका क योगय सयम; तप और दान शरावक हमशा कर । विषयो स सखबदधि तो पहल ही छट गई ह, ततपशचात‌ विषयकषायो म स परिणति मोडकर अनतर म एकागरता का परतिदिन शरमयास कर।

मनिराज को तथा साधरमी धरमातमा को झाहारदान, शासतरदान इतयादि करन की भावना भी परतिदिन कर।

भरत चकरवरती जस भी शरावक अवसथा म भोजन क समय परतिदिन मनिवरो को याद करत ह कि कोई मनिराज पचार तो उनह आरहार-

2. पदमनदि-पचाविशतिका, उपरापतक ससकार, याथा १८ स २१

शरावक क छह आवशयक ] [ ४७

दान दन क पशचात‌ म भोजन कर । मनिराज क पधारन पर शरतयनत भवितपवक आहारदान करात ह ।

दान बिना गहसथअरवसथा को निषफल कहा ह। जो परष मनि इतयादि को भक‍तपरवक चतविधदान (गराहारदान , शासतरदान, गौषधदान और गरभयदान ) नही दता, उसका घर तो वासतव म घर नही, परनत उसको बाधन क लिय बनधपाश ह - ऐसा दान समबनधी बहत उपदश पदमननदी सवामी न दिया ह।' शरावक की भमिका म चतनय की दषटि सहित इसपरकार छह कारयो क भाव सहज होत ह ।

शराव कधमपरकाश का मतलब ह कि गहसथाशरम म समयवतवपरषक

धर का परकाश होकर वदधि हो, उसका यह वररान ह ।

परथम तो समयगदशन की दरलभता बतलाई। वस तो समयरदशन सदाकाल दलभ ह, उसम भी शराजजल तो उसकी सचची बात सनन को मिलना भी दलभ हो गई ह और सनन को मिल तो भी बहत स जीवो को उसकी खबर नही पडती । यहा कहत ह कि ऐसा दरलभ समयगदशन पाकर उततम परष मनिधरम को अगीकार कर, वरागयरप म रमणता aera |

परशन :- शासतर म तो कहा ह कि पहल मनिदशा का उपदश दो । आप तो पहल समयगदशन का उपदश दकर पीछ मनिदशा की बात करत हो ? समयगदरशन बिना मनिपना होता ही नही - ऐसी बात करत हो ?

उततर :- यह बराबर ह; शासतर म पहल मनिपना का उपदश दन की जो बात कही ह, वह तो शरावकपना और मनिपना - इन दो की

अपकषा स पहल मनिपन की बात कही ह; परनत समयगदरशन क पहल मनिपना ल लन की बात नही की । समयगदशन बिना तो मनिधरम अथवा शरावकधरम होता ही नही, इसलिए पहल समयगदरशन की मखय बात करक मनिधरम और शरावकधरम की बात ह (area म आता ह कि कषायिक समयरदषटि जीवो म दशसयम की अपकषा सीधा मनिपना लनवाल जीव बहत होत ह) ।

भाई ! ऐसा मनषयपना परापत करक समयकतव सहित यदि मनिदशा हो तो अवशय करना, वह तो उततम ह; परनत यदि तरी शकति की हीनता

1. पदमननदि-पचविशतिका, उपासक ससकार, गाथा ३१ स ३६

va ] | कषावकभमपरकाश

स इतना न हो सक तो शरावकधरम क पालन दवारा मनषयभव की सारथकता करना | एसा मनषयभव बार-बार मिलना दरलभ ह | यह शरीर कषण म नषट होकर उसक रजकण हवा म उड जायग । कहा भी ह :-

तर रजकरा बिखरग, जस बिखरती रत । फिर नरभव पायगा कस ? चत चत नर चत ।॥।

जिसपरकार एक वकष बिलकल हरा हो और जलकर भसम हो जाय, उसकी राख हवा म चारो ओर उड जाय; पीछ फिर स व ही परमाण उसी वकषरप हो जाय शररथात‌ एकतरित होकर फिर स उसी सथान पर वस ही वकषरप परिणमित हो - यह कितना दलभ ह? मनषयपना तो उसकी शरपकषा और भी दरलभ ह, इसलिए त इस धमसवन क बिना विषय-कषायो म ही नषट न कर !

शरावक क जिनदरशन आरादि छह कारय परतिदिन होत ह। यहा समयगदरशन स सहित शरावक की बात मखय ह। समयगदरशन क परव जिजञास भमिका म भी गहसथो दवारा जिनदरशन-पजा-सवाधयाय आदि कारय होत ह । जो सचच दव-गर-शासतर को नही पहिचान, उनकी उपासना नही कर; वह तो वयवहार स भी शरावक नही कहलाता ।

परशन :- दव-गर-शासतर की तरफ का भाव तो पराशचितभाव ह न ?

उततर :- भदजञानी को तो उससमय सवय क धरमपरम का पोषण होता ह। ससार सबधी सतरी-पतर-शरी र-वयापार भरादि की तरफ क भाव म तो पाप का पोषण होता ह; उसकी दिशा बदलकर धरम क निमितत की तरफ क भाव आ व, तो राग की भनदता होती ह तथा वहा सचची पहिचान का - सवाशरय का अवकाश ह। भाई ! पराशरयभाव तो पाप

और पणय दोनो ह, परनत धरम-जिजञास को पाप की तरफ का लगाव छटकर घरम क निमिततरप दव-गर-घरम की तरफ का लगाव होता ह। जो जीव इसका विवक नही कर और सवछद पाप म परवरत यार कदवादि को मान, उस तो धरमो होन की पातरता भी नही ह ।

wan कस होत ह ? उनक साधक गर कस होत ह? उनकी वाणीरप शासतर कस होत ह? शासतरो म गरातमा का सवभाव कसा बतलाया ह ? - इनक अभयास का रस होना चाहिए | सतशासतरो का सवाधयाय जञान की निरमलता का कारण ह। लोकिक उपनयास और अखबार पढ,

उसम तो पापभाव ह । जिस धरम का परस हो, उस दिन-परतिदिन नय-

शरावक क छह आवशयक ] [ ४६

नय वीतरागी शर‌त क सवाधयाय का उतसाह होता ह। यहनिरणय म तो ह कि जञान मर सवभाव म स ही शराता ह; परनत जबतक इस सवभाव म VHT Tet रहा जाता, तबतक वह शासतरसवाधयाय दवारा बारमबार उसका घोलन करता ह।

सवरथसिदधि क दव ततीस सामरोपम तक तततवचरचा करत ह। इन सब दवो को आतमा का भान ह, एक भव म मोकष जानवाल ह, अनय कोई काम (वयापार-घनधा या रसोई-पानी का काम) उनको नही ह। ततीस सागरोपम शररथात‌ असखयात वरषो तक चरचा करत-करत भी जिसका रहसय परण नही होता - ऐसा गमभीर शर‌ तजञान ह; धरमी को उसक TATA का बडा पर म होता ह, जञान की रचि होती ह । जो चौबीस घट कवल विकथा म या वयवहार-धनध क परिणाम म लगा रह और जञान क अभयास म जरा भी रस न ल, वह तो पाप म पडा हआ ह। अरहो, धरमी शरावक को तो जञान का कितना रस होता ह !

परशन :- परनत शासतर-अरभयास म हमारी बदधि न चल तो ?

उततर :- यह बहाना खोटा ह। कदाचित‌ नयाय, वयाकरण या गणित जस विषय म बदधि न चल; परनत यदि आतमा को समभन का परम हो तो शासतर म शरातमा का सवरप क‍या कहा ह, उसस धरम किस परकार हो - यह सब समभ म कस न आव ? न समझ तो गर दवारा या साधरमी को पछकर समभनता चाहिय; परनत पहल स ही 'समभ म

नही झाता' - ऐसा कहकर शासतर का अभयास ही छोड द, उस तो जञान का परम नही ह।

सरवजञदव की पहिचानपरवक सवा-पजा, सन‍त-गरर-धरमातमा की सवा, साधरमी का आरादर - य शरावक को जरर होत ह। गरसवा अरथात‌ धरम म जो बड‌ ह, धरम म जो उचच ह शलौर उपकारी ह; उनक परति विनय-बहमान का भाव होता ह। वह शासतर का शरवण भी विनयपरवक करता ह। परमादपरवक या हाथ म पखा लकर हवा खात-खात शासतर सन तो शरविनय ह । शासतर सनन क परसग म विनय स धयानपरवक उसका ही लकष रखना चाहिए। इसक पदचात‌ भमिका क योगय राग घटाकर सयम, तप और दान भी शरावक हमशा कर । इसक पशचात‌ शरावक क वरत कौन स होत ह, व आग की गाथा म कहग ।

इन शभ कारयो म कोई राग का आदर करन को नही समझाया, परनत घरमातमा को शदधदषटिपवक किस भमिका म राग की कितनी

५० | [ शरावकधरम परकाश

मनदता होती ह - यह बतलाया ह। भगवान सरवजञ परमातमा क अनरागी, वन म बसनवाल वीतरागी सनत नौ सौ वरष पहल हए पदमननदी मनिराज' न इस शरावकधरम का परकाश किया ह |

सरवजञवव की पजा, धरमातमा गरओ की सवा, शासतर-सवाधयाय करना शरावक का कतवय ह- ऐसा वयवहार स उपदश ह। शदधोपयोग करना, यह तो परथम बात ह; परनत वह न हो सक तो. शभ की भमिका म शरावक क कस कारय होत ह, उस बतलान क लिए यहा उस कतवय कहा ह - ऐसा समभना | इसम जितना शभराग ह, वह तो पणयबनध का कारण ह और समयगदरशन सहित जितनी शदधता ह, वह मोकष का कारण ह | समयगदरशन परापतकर जो मोकषमारग म गमन कर रहा ह - ऐस शरावक को मारग म किसपरकार क भाव होत ह, उस आराचायशरी न बतलाकर शरावकधरम को परकाशित किया ह। ह

ऐसा मनषय अवतार और ऐसा उततम जनशासन पाकर ह जीव ! उस त वयरथ न गवा; परथम तो सरवजञ जिनदव को पहिचानकर समयगदशन परगट कर, इसक पशचात‌ मनिदशा क महातरत घारण कर ! यदि महाबरत न पाल सक तो शरावक क धरमो का पालन कर और शरावक क दशतबत घारण कर ! शरावक क बरत कौन स होत ह, व आग की गाथा म कहत ह।

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मनषयभव की उपयोगिता

ह भाई ! आतमा को भलकर भव म भटकत हए अरननतकाल बीत गया, उसम अति मलयवान यह मनषय शरवतार और धरम का ऐसा दरलभ योग तझ परापत हआ ह तो भरब परमातमा जसा ही तरा

( जो सवभाव ह; उस दषटि म लकर मोकष का साधन कर, परयतन- # परवक समयकतव परगट कर, शदधोपयोगरप मनिधरम की उपासना कर, | गऔौर यदि इतना न बन सक तो शरावकधरम का जरर पालन कर। |

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समयगदशनपरवक शरावक क बरत

हममलतबरतमषठथा तदनत‌ च सयातपचधाणकरत, शीलाखय च‌ गरातरततरयमतः शिकषाशचतसर: पराः । राजो भोजनवरजन शचिपटात‌ पय पयः शकतितो, मोनादिवरतमपयनषठितसिद पणपाय भवयातमतास‌ ॥५॥॥

सामसान‍यारथ :- समयरदरशन क साथ शराठ Fay WT ast अनसरण करक पाच शरणबरत होत ह।तथा तीन gaat एव चार शिकषातरत - य सात शीलबनत होत ह। साथ ही रातरि म मोजन का परितयाग, पवितर वसतर स छान गय जल का पीना तथा शकषित क झनसार

मौनवत आदि का आचरण भवय जीवो क लिए पणय का काररप होता ह

शलोक ५ पर परवचन

यह दशबरतोदयोतन परथात‌ शरावक क बरतो का परकाशन चल रहा ह । सबस पहल सरवजञदव दवारा कह गय धरम की पहिचान करन को कहा गया ह, पशचात‌ समयरदषटि अरकला ही मोकषमारग म शोभा को परापत होता ह - ऐसा कहकर समयकक‍तव की पररणा की ह। तीसरी गाथा म समयरदरशन को मोकषवकष का बीज कहकर उसकी दरलभता बतलाई तथा यतलपरवक समयकतव परापत करक उसकी रकषा करन को कहा गया ह। समयकतव परापत करन क पशचात‌ मनिधरम का अथवा शआआवकरषरम का पालत करन

का उपदश दिया ह, उसम शरावक क हमशा क छह करतगयो को भी

FTAA | AT इस इलोक म शरावक क बरतो का वरणन करत ह।

दखो ! इसम दो बात बताई ह। एक तो दग‌ शररथात‌ सरवपरथम

समयगदशन होता ह - यह बात बताई और दसरी बात यह बताई ह कि

घर ] [ शरावकधमपरकाश

शभ झराच रण पणय का कारण ह भररथात‌ शरासतव का कारण ह, मोकष का कारण नही ह। मोकष का कारण तो समयगदरशनपरवक सवदरवय क आलमबन दवारा जितनी वीतरागता हई, वह ह ।

जिसको आतमभान हआ ह, कषायो स भिन‍न गरातमभाव अनभव म

आराया ह, परण वीतरागता की भावना ह, परनत अभी परण वीतरागता नही हई; उस शरावक अवसथा म किसपरकार का आचरण होता ह, वह यहा बताया गया ह।

जिसपरकार गतिमान को धरमासतिकाय निमितत ह; उसीपरकार सवाशवित शदधातमा क बल स जो मोकषमारग म गमन कर रहा ह, उस जीव को बीच की भमिका म यह बरतादिरप शभ आचरण निमिततरप स होता ह | समयगदशन होन पर चौथ गणसथान स निशचय-मोकषमारग क जघनय अरश की शरआत हो गई ह, पशचात‌ पाचव गणसथान म शदधता बढ गई ह और राग बहत कम हो गया ह; उस भमिका म शभराग क गराचरण की मरयादा कितनी ह और उसम किसपरकार क बरत होत ह - यह बताया ह।

यह शभरागरप आचरण शरावक को पणयबनध का कारण ह अरथात‌ धरमीजोव अरभिपराय म इस राग को कतवय भी नही मानत; राग क एक अश को भी धरमीजीब मोकषमारग नही मानत, शरतः उस करतवय नही मानत; परनत शरशभ स बचन क लिए शभ को वयवहार स कतवय कहा जाता ह; कयोकि उस भमिका म उसपरकार का भाव होता ह।

जहा शदधता की जरआरात हई ह, परनत परणता नही हई; वहा बीच म साधक को महातरत या दशबरत क परिणाम होत ह। परनत जिस अभी बदधता का अश भी परगट नही हआ ह, जिस पर म करतवयबदधि ह, जो राग को मोकषमारग सवीकारता ह; उस तो शरभी मिथयातव की शलय

ह। ऐस शलयवाल जीव को बरत होत ही नही; कयोकि बरती तो निःशलय होता ह । “नि:शलयो बरती'? - यह भगवान उमासवामी का सतर ह। जिस मिथयातव की शलय न हो, जिस निदान की शलय न हो; उस ही पाचवा गणसथान गरौर बरतीपना होता ह ।

पहली बात दग‌ गररथात‌ समयगदरशन की ह। सरवजञदव की परतीति- परवक समयगदशन होता ह - यह पहली शरत ह: बाद म आग की बात

1. मोकषशासतर : बरधयाय ७, सतर (८

समयरदरशनपरवक आवक क बरत | [ ५३

ह । शरावक को समयगदशनपवक अरषट मलगरणो का पालन नियम स होता ह । बड का फल, पीपर, ऊमर, कठमर तथा पाकर -इन पाच फलो को उदमबर फल कहत ह, य तरसहिसा क सथान ह - इनका तयाग तथा तीन मकार गशररथात‌ मदय, मास, मध -इन तोनो का नियम स तयाग; य अरषट मलगण ह गरथवा पाच अखतरतो का पालन शरौर मय का, मास का, व मध का निरतिचार तयाग -य शरावक क गरषट मलगण ह । य तो परतयक शरावक को तियम स ही होत ह; चाह वह मनषय हो, तियच हो या सतरी हो ।

अढाईदवीप क बाहर तिरयचो म अरसडयात समयरदषटि ह, उनही म शरावक पचमगणसथानी भी असखयात ह। समयरदषटि को जसा शदध सवभाव ह, वसा परतीति म आ गया ह और परयाय म उसका अलप शदधपरिणमन हआ ह | शदधसवभाव की शरदधा क परिणमनपवक शदधता का परिणमन होता ह और ऐसी शदधि क साथ शरावक को आठ मलगण, असहिसा क शरभावरप पाच शअरादरत, रातरिभोजन-तयाग इतयादि होत ह। उस समबनधी जो शभभाव ह, व पणय का उपारजन करनवाल ह - “पणपाय भवयातसनाम‌। कोई उसको मोकष का कारण मान ल तो वह भल ह ।

) शरी उमासवामी न मोकषजषासतर क सातव अधिकार म भी बरतो का वरणन शभ आाखव क परकरण म किया ह; उनहोन उनका सवररप स वरणन नही किया ह ।

यहा शरावक को मदय, मास इतयादि का तयाग [होता ह - ऐसा कहा; परनत यह धयान रखना कि पहली भमिका म साधारण जिजञास को भी मदय, मास, मध, राजिभोजन आदि तीवर पाप क सथानो का तो तयाग होता ह और शरावक को तो परतिजञापबक नियम स उसका तयाग होता ह।

रातरिभोजन म तरसहिसा होती ह, इसलिए शरावक को उसका तयाग होता ही ह। इसीपरकार अनछन पानी म भी तरसजीव होत ह। शदध और मोट कपड स छानन क पशचात‌ ही शरावक पानी पीता ह।

असवचछ कपड स पानी छान तो उस कपड क मल म ही जीव होत ह; इसलिए कहत ह कि शदध वसतर स छन हए पानी को काम म छव। रातरि को तो पानी पियही नही और दिन म छानकर fea । रातरि को चसजीवो का सचार बहत होता ह; इसलिए रातरि क खान-पान म तरसजीवो की

__ ५४ ) [ शरावकधरम परकाश

हिसा होती ह। जिसम तसहिसा होती ह - ऐस कोई कारय क परिणाम wat sae को नही हो सकत ।

भकषय-अभकषय क विवक बिना अरथवा दिन-रात क विवक बिना चाह जस वरतता होव और कह कि हम शरावक ह, परनत भाई ! शरावक को तो कितना राग घट गया ह? उसको विवक कितना होता ह? एकभवावतारी इनदर और सरवारथसिदधि क दवो की अपकषा ऊची जिसकी पदवी; उसक विवक की MI Tas Aes राग की कया बात ? वह शरनदर शदधातमा को दषटि म लकर साध रहा ह और परयाय म राग बहत ही घट गया ह। मनि की शरपकषा थोडी ही कम इसकी दशा ह। यह शरावकदशा अलौकिक ह | वहा चअसहिसा क भाव कस ? अनदर चरसहिसा क भाव नही होत, शरतः बाहर म भी तरसहिसा का शराचरण सहज ही नही होता - ऐसी सधि ह। अनदर चरसहिसा क परिणाम न हो और बाहर हिसा की चाह जसी परवतति बना कर - ऐसा नही बनता। कोई कह कि सभी गरभकषय खाना, परनत भाव नही करना; तो वह सवचछनदी ह, अपन परिणाम का उसको विवक नही ह ।

भाई ! जहा अनदर स पाप क भाव छट गय, वहा बाहर म पाप की करिया भल ही होव - ऐसी उलटीवतति उठ ही कस ? मख म कनदमल पकषण करता हो शरौर कह कि हम राग नही ह - यह तो सवचछनदता ह। भाई ! यह तो वीतरागरमारग ह | त सवचछनदतापवक राग का सवन कर और तझ वीतरागमारग हाथ म झा जाव - ऐसा नही ह। सवछनदतापरवक राग को सव और अपन को मोकषमारगी मान ल, उसकी तो दषटि भी चोखी (सतय) नही, समयगदशत ही नही; फिर वहा शरावकपन की शरथवा मोकषमारग की बात कसी ?

बीडी-तमबाक का वयसन अथवा बासी शरथाणा - मरबबा इन सबम तसहिसा ह, शरावक को इत सब का सवन नही होता 1 इसपरकार तबरसहिसा क जितन सथान हो, जहा जहा तरसहिसा की समभावन! हो;

- बस आचरण शरावक को नही होत - ऐसा समझ लना । ह

सदय, मास और मध ( शहद ) तथा पाच परकार क उदमबर फल - इनका तयाग तो शरावक को परथम ही होता ह| - ऐसा परषारथ- सिदधवपाय म अरमतचनदराचारयदव न कहा ह।! जिनह इनका तयाग नही,

1. परषाथ सिदधयपाय, शलोक ६१

समयगदशनपरवक शरावक क बरत ] [ ५५

उनह वयवहार स भी शरावकपना नही होता और व धरमशरवण क भी योगय नही ह ।

समनन‍तभदर सवामी न शरी रतनकरणड शरावकाचार म तरसहिता क तयागरप पाच अशकवत का पालन तथा मदय-मास-मध का तयाग -

इसपरकार भराठ मलगरण कह ह ।*

मखयता तो दोनो म जसहिसा समबनधी Aa पापपरिणामो क तयाग की ह। जिस गहसथ को समयगदशनपरवक पाच पाप और तीन म-का र क तयाग की दढता हई ह, उपतन समसत FRA age at ala

डाली। शरनादि स ससार-अमण का कारण जो मिथयातव और तीकतर पाप - इसका अभाव होत ही जीव अनक गण-गरहण का पातर हआ ह; इसलिए इन आठ तयागो को भरषट मलगण कहा ह। बहत स लोग दवा आदि म मधसवन करत ह, परनत मास की तरह ही मध को भी अभकषय गिना ह। रातरि क भोजन म भी तरसहिसा का बडा दोष ह। शरावक को ऐस परिणाम नही होत ।

भाई, अननतकाल म तझ ऐसा मनषय अवतार मिला तो उसम आतमा का हित किसपरकार हो - इसका विचार कर [ एक अगल जितन कषतर म अरसखयात . शरौदारिक शरीर । एक दरीर. म wat जीव ह; व कितन ह ? जि गरभी तक सिदध हए, उनस भी अनतततगन ह। निगोद जीव एक-एक वारीर म ह; उस निगोद म स निकलकर तरसपना परापत करना

शौर उसम यह मनषयपना और जनधरम का ऐसा भरवसर मिलना तो बहत ही दलभ ह। भाई ! तक उसकी परापति हई ह तो आतमा का जिजञास होकर मनिदशा या शरावकदशा परगट कर ! यह अवसर धरम क सवन बिता निषफल न गवा । सरवजञ परभ दवारा कह हय आतमा क हित का सचचा रासता अननतकाल म तन नही दखा; सवन नही किया। वह मारग यहा सरवजञ परमातमा क अनगामी सत तझ बता रह ह।

सती राजमती, दरौपदी, तीसाजी, बराहमी-सनदरी, चदना, अजना तथा रामचनदरजी, भरत, सदरशन, वारिषणकमार आदि परव म राजपाट म थ, तब भी व ससार स एकदम उदासीन थ। व भी आतमा क भान सहित धरम का सवन करत थ भररथात‌ गहसथ-अवसथा म हो सक - ऐसी ( शरावकधरम की ) यह बात ह। पशचात‌ छठवब-सातव गणसथानरप

1. रततकरणड शकरावकाचार, शलोक ६६

ue ] f शरावकषरमपरकाश

मनिदशा तो विजष ऊची दशा ह। वह यहसथ-अवसथा म रहकर नही हो सकती; परनत गहसथ-परवसथा म रहकर जो समयगदशनपरवक शकति- अनसार वीतरागधरम का सवन करत ह, व भी भरलपकाल म मनिदकषा और कवलजञान परगट कर मोकष को परापत होग ।

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SIGH का करम

चरणानयोग म तोत कबायो का कारय छडाकर HABIT रप कारय करन का उपदश दत ह। यदयपि कधाय करना बरा ही ह, तथापि सरव कषाय न छटत जानकर जितन कषाय घट, उतना ही भला होगा - ऐसा! परयोजन वहा जानना. जस जिन जीवो क आरमभादि करन को व मनदिरादि (सकानादि) बनवान की, व विधय-सवन की व करोधादि करन की इचछा सवथा दर होतो न जान, उनह पजा-परभाववादिक करन का व चतयालयादि बनवान का व जिनदवादिक क आग शोभादिक, नतय-गानादिक करन का व धरमातमा परषो को सहाय आदि करन का उपदश दत ह; कयोकि

ह इनम परसपरा KAT HT TAT Te होता । ह te

\ पाप कारयो म परमपरा कषाय का पोषण ह, इसलिय |] # पापकारयो स छडाकर इन कारयो म लगात ह। तथा थोडा-बहत i \ जितना छटता जान, उतना पापकारय छडाकर उनह समपक‍तव व \

अगशकषतादि पालन का उपदश दत ह। तथा जिन जीवो क सरवथा ( आरमभादिक की इचछा दर हई ह, उनको परवॉबित पजादिक कारय व

सरव पापकारय छडाकर महावरतादि करियायो का उपदश दत ह, तथा किचित‌ रागादिक छटत जानकर उनह दया, धरमोपदश, परतिकरमरणादि कारय करन का उपदश दत ह । जहा सरव राग दर हआ हो, वहा कछ करन का कारय ही नही रहा; इसलिय उनह कछ उपदश ही नही ह - ऐसा करम जानना । ह

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शरावक क बारह बरत

हनति सथावरदहिनः सवविषय सरवान‌ तऋसान‌ रकषति,

बतत सतयमचौरयबततिमबला gat fant aad दिगदशबरतदणडवरजनमतः. सासायिक परौषघ, aa भोगयगपरमाणमररीकरयाद गहीति बरती ॥६॥

सामान‍यारथ :- बरती शरावक शरपन परयोजनवश सथावर पराणियो का घात करता हआ भी सब जसजोवो की रकषा करता ह, सतय बचन बोलता ह, चोयदतति का तयाग करता ह, मातर अपनी शदध सतरी का सवन करता ह, दिगवरत शलोर दशवषत का पालन करता ह, शरमरथदणडो

(पापोपदश, हिसादान, अरपधयान, दःक‌ति ओर परमादचरया) का तयाग करता ह; तथा सामायिक, परौषधोपवास, दान (अतिथिसविभाग) और भोगोपभोगपरिसासण को सवीकार करता ह ।

शलोक ६ पर परवचन

पाचवी गाथा म पाच अरसतरत, तीन भणवत और चार शिकषा- वरत - ऐस जो बारह बरत कह ह, व कौन-कौन ह ?! - यह बतलाकर उनका पालन करन को कहत ह ।

दशबरती शरावक को परयोजनवश (शराहमार आदि म) सथा८रजीवो की हिसा होती ह; परनत समसत तरसजीवो को तो रकषा करता ह, सतय बोलता ह, शरचौयतरत पालता ह, शदध सवसतरी क सवन म सतोष शरथात‌ परसतरी-सवन का तयाग ह तथा परिगरह की मरयादा भी शरावक को होती ह।अभी उसक मनिदशा नही अरथात‌ सरव परिगरह का भाव नही छटा; परनत उसकी मरयादा आ गई ह| परिगरह म कही सख नही ह - ऐसा भाव ह और “कोई भी .परदरवय मरा नही ह, म तो

us | [ शकरावकरम परकाश

जञानमातर ह - एसी शरनतह बटि म तो सरव परिगरह get gata 2; परनत गहसथ को चारितर-परपकषा स शरभी सरव परिगरह नही छटा । मिथयातव का परियगरह छट गया ह.और दसर परिगरह की मरयादा हो गई ह।

इसपरकार पाच अखबरत तथा दिगवरत, दशबरत और अनरथदड का तयागरप बरत -य तीन गणबरत तथा सामायिक, परौषधोपवास, दान भरथात‌ अतिथिसविभाग और भोगोपभोगपरिमाण - य चार शिकषाबरत - इसपरकार शरावक क बारह बरत होत ह। य बरत पषय क कारण ह - यह बात पाचवी गाथा म कही गई ह ।

चार गरननतानबनधी और चार शरपरतयासयान - इन झाठ कषायो क परभाव स शरावक को समयकतवपरवक जितनी शदधता परगट हई ह, उतना मोकषमारग ह । जहा ऐसा मोकषमारग परगट हआ हो, वहा तरसहिसा क परिणाम नही होत । झरातमा परजीव को मार सक या जिला सक - ऐसी बाहर की करिया क कतवय की यह बात नही ह, परनत अनदर ऐस हिसा क परिणाम ही उस नही होत ।

परतयक दरवय-गण-परयाय की मरयादा सवय की वसत क परवरतन म ही ह, पर म परवरतन नही होता' - ऐस वसतसवरप क भानपरवक अतरग म कछ सथिरता हो, तभी बरत होता ह और उस शरावकपना कहा जाता ह। ऐस शरावक को (टवीनदरिय स पचनदरिय) तरसहिसा क सरवथा तयागरप झगरौर सथावरहिसा क भी मरयादारप भरहरसावरत होता ह।

इसीपरकार सतय का भाव हो और असतय का तयाग हो । चोरी का तयाग हो । परसतरी का.तयाग तथा सवसतरी म सन‍तोष हो और वह भी शदध हो तभी शररथात‌ जब ऋतमती - परशदध हो, तब सवसतरी का भी तयाग - इसपरकार का एकदश बरहमचय हो। परिगरह की कछ मरयादा हो - इसपरकार शरावक को पाच भअरशबरत होत ह। पाच भरशतरत क बाद शरावक को तीन गणबरत भी होत ह :-

१. दिगशवत :- दशो दिशा म निशचित मरयादा तक ही गमन करन की जीवनपरयनत परतिजञा करना ।

२. दशबनत ;- दिगबत म जो मरयादा ह, उसम भी निशचित कषतर क बाहर नही जान का नियम करना ।

३. शरनरथदणडपरितयागबनत :- बिना परयोजन क पापकारथ करन का तयाग करना | इसक पाच परकार ह :- ATTA, ATT का उपदश, परमाद-

शरावक क बारह बरत ] ह [ xe

चरया, जिनस हिसा हो - एस शसतर गरादि का दान ( हिसादान ) और दःअ ति शरथात‌ जिसस राग-दवरष की वदधि हो ऐसी दषट कथाओ का शरवण - इनका तयाग करना अनरथदणडपरितयागबरत ह ।

- इसपरकार शरावक क तीन गणबरत होत ह ।

शरावक क चार शिकषातरत भी होत ह :-

१. सामरायथिक :- पचमगणसथानवरती शरावक परतिदिव परिणाम को अतर म एकागर करन का अभयास कर ।

२. परौषधोषदास :- अषटमी, चतरदशी क दिनो म शरावक उपवास करक परिणाम को विशष एकागर करन का परयोग कर । सभी आरमभ छोडकर घरमधयान म ही परा दिन वयतीत कर |

३. दान :- अपनी शकति क अरनसार योगय वसत का दान कर। आहारदान, शासतरदान, औषधदान, झरभयदान - इसपरकार शरावक चार परकार क दान कर; इतका विशष वरणन आग करग। अतिथि क परति

अरथात‌ मनिया धरमातमा शरावक क परति बहमानपवक आहारदानादि कर, शासतर दव, जञान का परचार कस बढ - ऐसी भावना रख। इस

अतिथिसविभागबरत कहत ह ।

४. भोगोपभोगपरिमारतरत :- खान-पीन इतयादि की जो वसत एक बार उपयोग म भराती ह, उस भोगसामगरी कहत ह और वसतरादि जो सामगरी बार-बार उपयोग म आाव, उस उपभोगसामगरी कहत ह; उनका परिमाण कर, मरयादा कर। उसम सखबदधि तो पहल स ही छट गई ह; कयोकि जिसम सख मान, उसकी मरयादा नही होती ।

इसपरकार पाच अशकनत, तीन गणबरत और चार शिकषातरत - एस बारह बरत शरावक को होत ह। इन बरतो म जो शभविकलप ह, वह तो पणयबनध का कारण ह और उससमय सवदरवय क आलमबनरप जितनी शदधता होती ह, वह सवर-निरजरा ह। जञायक आतमा राग क एक अश का भी करतता नही और राग क एक अश स भी उपत लाभ नही - ऐसा भान धरमी को बना रहता ह। यदि जञान म राग का कतत तव मान अरथवा राग स लाभ मान तो मिथयातव ह। मदजञानी शभराग क दवारा पाप स बचा, इतना लाभ कहलाता ह; परनत निशचयधरम का लाभ उस शभराग म नही ह। धरम का लाभ तो जितना वीतरागभाव हशरा, उतना ही ह। समयकतव सिहत भराशिक वीत रागभावपरवक शरावकपना शोभित होता ह।

६० ] [ शरावकधरम परकाश

भाई ! शरातमा क खजान को खोलन क लिए ऐसा अवसर मिला; विकथा म, पापसथान म और पापाचार म ऐसा समय गवाना कस निभ ? सववजञ परमातमा दवारा कह हए आतमा क शदधसवभाव को लकष म लकर बारमबार उसको अनभव म ला और उसम एकागरता की वदधि कर ।

लोक म ममतावाल जीव भोजन आदि सरव परसगो म सतरी-पतरादि को ममता स याद करत ह; उसीपरकार धरम क परमी जीव भोजनादि सरव परसगो म परमपवक धरमातमा को याद करत ह कि मर आगन म कोई धरमातमा अथवा कोई मनिराज पधार तो उनको भकतिपरवक भोजन दकर म भोजन कर। भरत चकरवरती जस धरम तमा भी भोजन क समय रासत पर आकर मनिराज क आगमन की परतीकषा करत थ शनौर मनिराज क पधारन

. पर परमभकतिपरवक आहारदान करत थ । अरहा ! एसा लग कि आगन म कलपवकष फलित हशरा, इसस भी अधिक शआानद भोकषमागसाधक मनिराज को अपन झागन म दखकर धरमातमा को होता ह।

जहा अरपनी राग रहित चतनयसवभाव की हषटि ह और सरव सग- तयाग की बदधि ह, वहा गहसथ को ऐस शभभाव झात ह। उस शभराग की मरयादा जितनी ह, उतनी वह जानता ह। अनतर का मोकषमारग तो राग स पार चतनयसवभाव क झराशनय स परिणमता ह। शरावक क बरत म मातर शभराग की बात नही ह।जो शभराग ह, उस तो जनशासन म पणय कहा ह और उससमय शरावक को सवभाव क आशरय स जितनी शदधता वरतती ह; उतना धरम ह, वही परमारथ शबरत ह और वही मोकष का साधन ह - ऐसा समझना ।

\ get | afaeen |] | :. अपन आगन म सनिराज को दखत ही धरमातमा को शरतयनत |

को शराननद होता ह। शकरावक को शराठ परकार की कषाय क \ अभाव म सभयक‍तवपवक जितनो शदधता परगट हई ह, उतना ॥ i सोकषमारग ह। ऐसा मोकषमारग हो, वहा तऋरसहिसा क परिसणयाम नही 1 \ होत | भाई ! शबरातमा का खजाना खोलन क लिय यह अवसर \

मिला, उसम विकथा म समय नषट करना कस शोस ? समयक‍तव \ सहित शराशिक बीतरागतापरवक शरावकपना शोभता ह । \

\ -- पजय शरी कानजी सवामी \ SS eS SS SS ESS EEE EEE EE EE ES eee 2

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सतपातर दान को परमखता

दवाराधनपजनादिबहष. वयापारकारयष.. सत, पणयोपाजनहतष. परतिदिन सजायमानषवपि । ससाराशवतारण परवहण सतपातरमददशय aq, तह शबरतधारिणो धनवतो दान परकषटो FT: noi

सामानयाथ :- दशवती शरावक को परतिदिन पणयोपाजन क कारणभत दवाराधना एव जिनपजनादिरप बहत कारय होत ह। उनम धनवान गहसथ का ससाररपी समदर क पार होन म नौका क समान जो सतपातर दान ह, वह महान‌ गण ह ॥७॥॥

शलोक ७ पर परवचन

समयगदशनपरवक दशबरती शरावक BY gor मलगण और बारह अरबरत होत ह - यह बतलाया Bias कहत ह कि गहसथ को यदयपि जिनपजा आदि अनक काय होत हतो भी उनम सतपातर दान सबस मखय ह ।

शरावक को सतपणयोपारजव क कारणरप जिनदव का आराधन- पजन आदि अनक कारय हमशा होत ह; उसम भी धनवान शरावक का तो ससारसमदर को पार करन क लिए नौका समान ऐसा सत‌पातर दाव उततम गण ह भरथात‌ शरावक क सब कारयो म सतपातर दाव मखय कारय ह ।

धरमीजीव परतिदिन घरम की परभावना, जञान का परचार, भगवान की पजा-भकति आदि कारयो म शरपनी लकषमी का सदषयोग किया करता ह; उनम धरमातमा को मनि आदि क परति भकतिपरवक दान दना मखय ह।

RR ] [ शरावकधमपरकाश

Wa, औषधदान, जञानदान और अभयदान - य चार परकार क दान आग क चार इलोक म बतावग ।

धनवान गररथात‌ जिसन अभी परिगरह नही छोडा - ऐस शरावक का मखय कारय सत‌पातरदान ह | जहा ऐस दान-पजादि का शभराग आता ह वहा शरनतद षटि म उस राग का भी निषध वतता ह wala उस धरमो को उस राग स सतपणय' बघता ह।अरजञानी को सतपणय' नहो होता; कयोकि उस तो पणय की रचि ह, राग क आदर की बदधि स उसत पणय क साथ मिथयातवरपी बडा पापकरम बघता ह ।

यहा दान की मखयता कही ह, उसस अनय का निषध न समझता । जिनपजा आदि को भो सतपणय का हत कहा ह, वह भी शरावक को परतिदिन होता ह। कोई उसका निषध कर तो उस शरावकपन की या धरम की खबर नही ह ।

यदि कोई जिनपजा को परमारथ स घरम ही मान ल तो वह उसकी भल ह और यदि कोई जिनपजा का निषध कर तो वह भी भल ह। जिनपरतिमा जनधरम स शरनादि की वसत ह, परनत वह जिनपरतिमा वीतराग हो - जिनपरतिसा जिनसारखी । किसी न इस जिनपरतिमा पर

चनदन पषप-परभरण-मकट-वसतर शरादि चढाकर उसका सवरप बिकत कर दिया हो और किसी न जिनपरतिमा क दशन-पजन म पाप बतललाकर उसका निषघ किया हो - यह दोनो की भल ह। इस समबनधी एक हषटानत परसतत किया जाता ह :-

दो मितर थ । एक मितर क पिता न दसर मितर क पिता को १०० (एक सौ) रपय उधार दिय और बही म लिख लिय । पशचात‌ दसर मितर का पिता मर गया | कितन ही वरषो क बाद परान बही-खात दखत हए पहल मितर को खबर लगी कि मर पिता न मितर क पिता को एक सौ रपय दिय थ, परनत उस तो बहत वरष बीत गय - ऐसा समभकर एक सौ क आग दो बिनद लगाकर १०००० (दस हजार ) बना दिय और पशचात‌ मितर को कहा कि तमहार पिता न मर पिता स दस हजार रपय लिय थ, इसलिय लौटाओ । तब मितर न कहा कि म मर परान बही-चोपड दखकर फिर कहगा । घर जाकर पिता की बहिया दखी तो उसम दस हजार क बदल सौ रपय निकल । इस पर उसन विचार किया कि यदि रपय सवीकार करता ह तो मभ दस हजार रपय दना पड ग; भरतः उसको नीयत खराब हो गई औऔौऔर उसन तो मल स ही उडा दी कि मरी बहियो म कछ नही

सतपातर दान की परमखता ] [ ६३

निकलता । दखो ! इसम सौ रपय की रकम तो सचची थी, परनत एक न लोभवश उसम दो बिनद बढा दिय और दसर न वह रकम ,समपरण उडा दी। ह -

उसी परकार अनादि जिनमारग म जिनपरतिमा, जिनमदिर, उनकी पजा आदि यथारथ ह; परनत एक न दो बिनदओ की तरह उसक ऊपर वसतर-आभरण आदि परिगरह बढाकर विकति कर डाली और दसर न तो

शासतर म मति ही नही ह - ऐसा गलत अरथ करक उसका निबध किया ह। इन दोनो क गरतिरिकत वीतरागी जिनपरतिमा को सवीकार करक भी उस तरफ क शभराग को जो मोकष क साधनरप धरम बताव, उसन भी धरम क सचच सवरप को नही समझा ह भाई ! जिनपरतिमा ह, उसक दरशन-पजन का भाव होता ह; परनत उसकी सीमा कितनी ? कि शभराग जितनी । यदि इसस शराग बढकर त उस परमारथधरम मान ल तो वह तरी

भल ह। — एक शभ विकलप उठ , वह भी वासतव म जञान का कारय नही ह।

म तो सरवजञसवभावी ह; जस सवजञ म विकलप नही, बस ही मर जञान म भी रायरपी विकलप नही ह । य विकलप उठत ह न? तो कहत ह कि वह करम का कारय ह, मरा नही ! म तो जञान ह, जञान का कारय राग स HT हो ? - इसपरकार जञानी को राग स पथक‌ तरकालिक सवभाव क भानपरवक उस टालन का उदयम होता ह।

जिसन राग स पथक‌ अपन सवरप को नही जाना और राग को अपना सवरप माना ह, वह राग को कहा स टाल सकगा ? ऐस भदजञान क बिना सामायिक भी सचची नही होती | सामायिक तो दो घडी अनतर म निविकतप आननद क अरनभव का एक शरभयास ह, दिन-रात चौबीस

घणट आननद क अनभव की जाच - इसका नाम परौषध ह और शरीर छटन क परसग म शरनतर म एकागरता क विजयष शरभयास का नाम सललखना अथवा सथारा ह; परनत जिस राग स भिन‍न शरातमसवभाव का अनभव ही नही, उस कसी सामायिक ? और कसा परौषध ? और कसा सथारा ? भाई ! यह वीतरागमारग जगत स नयारा ह।

यहा भरसी जिसन समयगदशन सहित बरत अगीकार किय ह - ऐस , धरमी शरावक को जिनपजा आदि क उपरानत दान क भाव होत ह; उसकी

चरचा चल रही ह। तीतर लोभरपी कय की खोल म फस हए जीबो को उसम स बाहर निकलन क लिए शरी पदमननदी सवामी न करणा करक

gy ] [ शरावकधरम परकाश

दान का विशष उपदश दिया ह। उनहोन दान अधिकार की छियालीसवी गाथा म कौव का दषटानत दकर कहा ह कि जो लोभी परष दान नही दता और लकषमी क मोहरपी बनधन स बधा हआ ह, उसका जीवन वयरथ ह। उसकी अपकषा तो वह कौवा शरषठ ह, जो शरपन को मिली हई जली खरचनत को काव-काव करक दसर कौवो को बलाकर खाता ह। जिससमय म तर गण जल अरथात‌ उनम विकत हई, उससमय म राग स पणय बघा, उस पणय स कछ लकषमी मिलीऔर शरब त उस सतपातर क दान म नही खरच शरौर मातर पापहत म ही खरच तो तक सिफ पाप का ही बनधन होता ह; तरी यह लकषमी तझ बनधन का ही कारण ह। सतपातर दान रहित जीवन निषफल ह; क‍योकि जिस धरम और धरमातमा का परम नही ह; उस आतमा का कया लाभ हो सकता ह ?

भाई ! यह दान का उपदश सत तर हित क लिए दत ह। सत तो वीतरागी ह और उनह तर घन की वाञछा नही ह; व वो परिगरह रहित दिगमबर सत वन - जगल म बसनवाल और चतनय क आननद म भलनवाल ह। यह जीवन, यौवन और घन - सब सवपन' समान कषणभगर ह तो भी जो जीव सत‌पातर दान आदि म उसका उपयोग नही करत शौर लोभरपी कय की खोल म भर हए ह; उन पर करणा करक उदधार क लिए सतो न यह उपदश दिया ह ।

अनतर म समयक दषटिपरवक अनय धरमातमाओ क परति दान-बहमान का भाव शराव, उसम सवय की धरमभावना पषट होती ह;-इसलिय ऐसा कहा कि दान शरावक को भवसमदर स तिरन क लिए जहाज क समान ह। जिस निजधरम का परम ह; उस अनय धरमातमा क परति परमोद, परम और बहमान आता ह। धरम घरमीजीव क आधार स ह; इसलिए जिस धरमी जीवो क परति परम वही, जो मनषय साधरमी-सजजनो क परति शकिति-अनसार वातसलय नही करता, उसकी शरातमा परबल TT J Tat हई ह और वह घरम स विमख ह शररथात‌ वह घमरम का अभिलाषी नही ह। भवय जीवो को साधरमी-सजजनो क साथ परीति अवशय करनी चाहिए - ऐसा पदमननदी सवामी न उपासक ससकार की गाथा ३६ म कहा ह।

ह जीव ! लकषमी आदि का परम घटाकर धरम का परम बढा | सवय को धरम का उललास शराव तो घमपरसग म तन-मन-धन खरच करन का भाव उछल बिना नही रह; धरमातमा को दखत ही उस परम उमडता ह। वह जगत को

सतपातर दान की परमखता ] [ ६५

दिखान क लिए दानादि नही करता, परनत सवय को शरनतर म घरम का ऐसा परम सहज ही उललसित होता ह।

घरमातमा की दषटि म तो शरातमा क शरातनदसवभाव की ही मखयता ह, परनत उसको शभ कारयो म दान की मखयता ह। दषटि म आननद की Tera waa gu भमिका-अनसार दानादि क थभभावो म वह परवरतता ह | वह किसी को दिखान क लिय नही करता, परसत अचतर म धरम क परति उसको सहजरप स उललास आता ह।

लोग सथलहषटि स धरमी को मातर शभभाव करत हए दखत ह; परनत धरमी की मलभत दषटि अनदर की गहराई म वरतती ह, जो सवभाव का अवलमबन कभी नही छोडती और राग को आतमरप कभी नही करती; उसको दनिया नही दखती, जब कि धरम का मल तो वह हषटि ह। धरम का मल गहरा ह। गहरा ऐसा जो अन‍नतरगसवभाव, वह धरम का वटवकष ह; उस शरव पर दषटि डालकर एकागरता का सीचन करत- करत इस वटवकष म स कवलजञान परगट हीगा। अजञानी क शभभाव अरथात‌ परलकषी शासतरपठन -य तो भादरपद महिन क भिणडी क पौध जस ह अरथात‌ व लमब काल तक टिकग नही ।

धरमातमा को धर‌ वसवभाव की हषटि स धरम का विकास होता ह। बीच म शभराग और पणय शराता ह, उसको तो वह हय जानता ह। जो विकार ह, उसकी महिमा क‍यो और उसस शरातमा की महतता क‍या? गरजञानी तो राग दवारा अपनी महतता मानकर सवभाव की महतता को भल जाता ह और ससार म भटकता ह। जञानी को सतसवभाव की हषटिपरवक जो पणयबनध होता ह, उस सतपणय कहत ह; अजञानी क पणय को सतषणय नही कहत ।

जिस राग - पणय की और उसक फल की परीति ह, वह तो अभी सयोग गरहण करन की भावनावाला ह शररधात‌ उस दान की भावना सचची नही होती । सवय तषणा घटाव तो दाव का भाव कहा जाता ह; परनत जो अभी किसी को गरहण करन म ततपर ह और जिस सयोग की भावना ह, वह राग घटाकर दान दन म राजी कहा स होगा ? मरा आतमा जञानसवभावी सवय स परण ह, पर का गरहण अरथवा सथाग मर म ह हो नही - ऐस अरसगसवभाव की हषटिवाला जीव परसयोग हत माथापचची न कर। अरहो, इस सयोग की भावना कितनी ठल गई ह | परनत इसका art seag पिट बिना पहिचाना नही जा सकता ।

१६ ] [ शरावकधरमपरकाश

भाई ! तभ पणयोदय स लकषमी मिली और महाभागय स जनधरम क सचच दव-गर महारतन मिल | शरब यदि त धरमपरसग म लकषमी का उपयोग करन क बदल सतरी-पतर तथा विषय-कषाय क पापभाव म ही धन का उपयोग करता ह तो हाथ म आया हआ रतन समदर म फक दन जसा तरा कारय ह । धरम का जिस परम होता ह, वह तो धरम की वदधि किसपरकार हो, धरमातमा कस आग बढ, साधमियो को कोई भी परतिकलता हो तो वह

कस दर हो - ऐस परसग विचार-विचार कर उनक लिए उतसाह स धन खरच करता ह ।

घरमीजीव बारमबार जिननदरपजन का महोतसव करता ह। पतर क विवाह म कितन उतसाह स धन खरच करता ह! उधार करक भी खरच करता ह यहा तो धरम की लगन म दव-गर की परभावना क लिए और साधरमी क परम क लिए उसस भी विशष उललासपरवक परवरतना योगय ह। एक बार शभभाव म कछ खरच कर दिया, इसलिय बस ह - ऐसा नही; परनत बारमबार शभकाय म उललास स वरत !

दान अपनी शकति-अनसार होता ह। लाख करोड की समपतति म स सौ रपया खरच हो, वह कोई शकति-अनसार नही कहा जा सकता । उतकषटरप स चौथा भाग, मधयमरप स छठवा भाग तथा कम स कम दसवा भाग खरच कर; उसको शकति-अनसार दान कहा गया ह।

दखिय ! यह कोई पर क लिए करन की बात नही ह, परनत आतमा क भान सहित परिगरह की ममता घटान की बात ह। नय-नथ महोन‍कवी क परसग तयार करक शरावक अपन धरम का उतसाह बढाता जात! ह और

पापभाव घटाता जाता ह। उन परसगो म अरपन आगन म owe APT को गरथवा धरमातमा को भकति स आहारदान करना उसका परषमन कतवय कहा गया ह; क‍योकि उसम धरम क समरण का और घरमभावन * की पषटि का सीधा निमितत. ह। मनिराज इतयादि धरमातमा को दखत ही सवय क रतनतरय धरम की भावना तीवर हो जाती ह ।

कोई कह कि हमार पास बहत समपतति नही ह, तो कहत ह कि भाई [ कम पजी हो तो-कम ही खचच कर। तझ तर भोगविलास क लिए लकषमी मिल जाती ह और धरमपरभावना का परसग आता ह, वहा त हाथ खीच लता ह तो तर परम की दिदया धरम! की तरफ नही, परनत ससार की तरफ ह । धरम क वासतविक परमवाला धरमपरसग म नही छिपता ।

सतपातर दान की परमखता | [६७

भाई ! लकषमी की ममता तो कवल पापबनध का कारण ह । सतरी-पतर क लिए या शरीर क लिए त लकषमी खरच करगा, वह तो तभ मातर पापबनध का ही कारण होगी और यदि वीतरागी दव-गर-धरम,शा सतर, जिनमदिर शरादि म तरी लकषमी का सदपयोग कर तो वह पणय का कारण होगी तथा तर धरम क ससकार भी हढ होग; इसलिए ससार क निमितत और धरम क निमितत - इन दोनो का विवक कर । धरमातमा शरावक को तो सहज ही यह विवक होता ह और उस सपातरदान का भाव होता ह ।

जस रिबतदार को परम स - झरादर स जिमाता ह, उसीपरकार सचचा समबनध साधरमी स ह। साधरमी धरमातमाओ को परम स - बहमान स घर बलाकर जिमाता ह - ऐस दान क उसक भाव को ससार स तिरन का कारण कहा ह; कयोकि मनि क या धरमातमा क भरनतर क जञानादि की पहिचाव ससार स तिरन का हत होता ह। सचची पहिचान- पवक की यह बात ह | समयगदशन बिना अकल दान क शभपरिणाम स भव का अनत हो जाय - ऐसा नही बनता। यहा तो समयगदरशनपरवक शरावक को दान क भाव होत ह - इसकी मखयता ह ।

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धरम क परमी शरावक

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| भाई ! लकषमी तो कषणभगर ह; त दान दवारा लकषमी शरादि का

| परम हटाकर धषरम का परम बढा। जिस धरम का उललास होता ह, \ ह! उस धरमपरसग म तन-मन-धन खरच करन का उललास झाय बिना \

i नही रहता । घरम की शोभा किसपरकार बढ, धरमातमा किसपरकार ह

| आराग बढ और साधमियो को कोई परतिकलता हो तो वह कस दर | ॥| हो - ऐसा परसग विचार कर शरावक उसम उतसाह स वततता ह। \

ऐस धमम क पर मी शरावक को दान क भाव होत ह । i

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सरवो वाञछति सौसयभव तनभत‌ तनमोकष एव सफरट हषटयावितरय एव सिदयति स तननिगन न‍थ एव सथितस‌ ।

तदधतिवपषोषसय वततिरशनात‌ तददीयत saa:

काल कलिषठतरषपि मोकषपदवी परायसततो बतत ॥९६॥।

सामानयाथ : - सरव जीव सख चाहत ह; वह सख परगटरप स मोकष म ह, उस मोकष की सिदधि समयगदरशनादि रतनननय दवारा होती ह, रतनतरय निगर न‍थ दिगमबर साध को होता ह, साध की सथिति शरीर क निरमितत स होती ह; शरोर को सथिति भोजन क निभितत स होती ह और बह भोजन भरावको दवारा दिया जाता ह - इसपरकार इस अरतिशय विलषट- तर काल म भो सोकषमारग की परवति पराय: उन शरावको क निमितत स ही

हो रही ह । इलोक ८ पर परवचन

गरब दान क जो चार परकार ह - गराहदरदान, औषधदान, जञान- दान, और अभयदान; उनका वरणन करत ह।

परथम घरमी शरावक को आराहारदान क कस भाव होत ह, बह यहा बतलात ह ।

वयवहार का कथन ह, इसलिए पराय: शबद रखा ह; निशचय स तो

आतमा क शदध भाव क आराशनय स हो मोकषमारग टिका-हआ ह और उस भमिका म यथाजातरपघर निगर न‍थ शरीर. आहार शरादि बाहय निमितत होत ह अरथात‌ दान क उपदश म पराय: इसक दवारा ही मोकषमारग परवरतता

ऐसा निमितत स कहा जाता ह, वाहतव म कोई झराहार या शरीर स मोकषमारग टिकता ह - ऐसा नही बताता ह। अर ! मोकषमारग क टिकन म जहा महाननत आदि क शभराग का सहारा नही, वहा शरीर और

आहारदान का सवरप ] [ ६६

आहार की कया बात ? इसक आधार स मोकषमारग कहनो वह सब निमितत का कथन ह ।

यहा तो गराह रदान दन म धरमोजीव का - आवक का धयय कहा ह ? - यह बतलाना ह। दान आदि क शभभाव क समय ही धरमी गहसथ को शअनतर म मोकषमारग का बहमान ह। पणय का बहमान नही, बाहय करिया का करतवय नही; परनत मोकषमारग का ही बहमान आता ह कि अहो ! घनय य सनत ! धनय आज का दिन !! कि मर आगन म मोकषमारगी मनिराज पधार; शराज तो जीता-जागता -ोकषमारग मर आगन FH grat wet! घनय यह मोकषमारग ! ! ऐस मोकषमारगी मनि को दखत ही शरावक का हदय बहमान स उछल उठता ह; मनि क परति उस शरतयनत भकति और परमोद उतपनन होता ह। साच र सगपण साधरमीतझस ?"। अनय लौकिक समबनध की अपकषा उस धरमातमा क परति विशष उललास आता ह ।

मोही जीव को सतरी, पतर, भाई, बहिन गरादि क परति पर मरप भकति आती ह; वह तो पापभकति ह। धरमोजीव को दव, गर, धरमातमा क परति परमपरीतिरष भकति उछल पडती ह; वह परणय का कारण ह और उसम चवीतराग-विजञानमय धरम क परम का पोषण होता ह। जिस-घरमी क परति भकति नही, उस धरम क परति भी भकति नही; कयोकि धरमी क बिना

ay नही होता । जिस धरम का परम हो, उस धरमातमा क परति उललास आए बिना नही रहता।

सीताजी क विरह म रामचनदरजी की चषटा साधारण लोगो को तो पागल जसी लग, परनत उनका अचन‍तरग कछ भिनन ही था | अहो, सीता मरी सहधरमिणी ! उसक हदय म धरम का वास ह, उस आतमजञान वरत रहा ह, वह कहा होगी ? इस जगल म उसका कया हआ होगा ? - इसपरकार साधरमीपन क कारण रामचनदरजी को सीता क हरण स विशष दःख आया था| भर, यह धरमातमा दव-गर की परमभकक‍त । इस मरा वियोग हआ, मझ ऐसी धरमातमा-साधरमी का विछोह हआ - ऐस घरम की परधानता का विरह ह; परनत जञानी क हदय को सयोग की झोर स दखनवाल ye जीव परख नही सकत ।

घरमी करावक शरनय धरमातमा को दखकर आननदित होत ह और उनह

1. यह एक गजराती पदम की पकति ह, जिसम बताया गया ह कि अर ! सचचा साथ तो साधरमी का ही होता ह ।

wo J | शरावकधरमपरकाश

जो बहमान स आहारदान आदि का भाव गाता ह, उसका यह वरणन चल रहा ह| मनि को तो कोई शरोर पर राग नही ह, व तो चतनयसाधन म लीन रहत ह शरौर जब कभी दह की सथिरता क लिय आहार की वतति उठती ह, तब झराहार क लिए नगरी म पधारत ह। ऐस म‌नि को दखत ही गहसथ को ऐस भाव आत ह कि गरहो ! रतववय को साधनवाल इन मनि को शरीर की अनकलता रह- ऐसा आराहार-आऔषध दऊ, जिसस य रतनतरय को निविधन साध सक ।

इसपरकार वयवहार स शरीर को धरम का साधन कहा ह और उस शरीर का निमितत अनन ह अरथात‌ वासतव म तो आहारदान दन क पीछ गहसथ की भावना परमपरा स रतनतरय क पोषण की ही ह, उसका लकषय रतनतरय पर ही ह और उस भकति क साथ अपन शरातमा म रतनतरय की भावना पषट करता ह। शरी रामचनदरजी और सीताजी जस भी मनियो को परमभकित स आझराहार दत थ । ,

मनियो क आहार की विशष विधि ह। मनि जहा-तहा आहार नही करत | व जनधरम की शरदधावाल शरावक क यहा ही नवधा भकति गरादि विधिपरवक शराहाार करत ह। शरावक क यहा भी बलाय बिता (भकति स पडगाहन क बिना ) मनि आहार क लिए नही पधारत | और पीछ शरावक अतयनत परसननतापरवक नौ परकार भवित स निरदोष

शराहार मनि क हाथ म दत ह। (१.परतिगरहण शररथात‌ आदरपरवक निमतरण, २. उचच शरासन, ३. पाद-परकषालन, ४. पजन-सतति, ५. परणाम, ६. मन शदधि, ७. वचनशदधि, 5. कायशदधि, ६. आहारशदधि - ऐसी नवधा भकति परवक शरावक आहारदान द ।) जिस दिन मनि क आहारदान का परसग अपन आगन म हो, उस दिन उस शरावक क आननद का पार नही होता ।

शरीराम और सीता जस भी जगल म मनि को भकत स शराहार- दान दत ह, इसीसमय एक गदधपकषी ( जटाब ) भी उस दखकर उसकी अनमोदना करता ह और उस जातिसमरण जञान होता ह। शरयासकमार न जब ऋषभमनि को परथम आहारदान दिया, तब भरत चकरवरती उस धनयवाद दन उसक घर गय थ ।

यहा मनि की उतकषट बात ली, उसीपरकार अनय साधरमी शरावक धरमातमा क परति भी आहारदान भरादि का भाव धरमी को होता ह। ऐस

शभभाव शरावक की भमिका म होत ह, इसलिए उस saw ar ae कहा ह; तो भी उसकी मरयादा कितनी ? कि पणयबनध हो - इतनी, इसस

आहारदान का सवरप ] (७१

अधिक नही । दान की महिमा का वरणन करत हए उपचार स ऐसा भी कहा ह कि मनि को झाहा रदानशरावक को मोकष का कारण ह - यहा वासतव म तो शरावक को उससमय म जो परणता क लकष स समयक शरदधा- जञान वरतता ह, वही मोकष का कारण ह; राग कही मोकष का कारण नहो - ऐसा समझता ।

० सब जीवो को सख चाहिय। ० परण सख मोकषदशा म ह। ० मोकष का कारण समयरदरशन-जञान-चा रितर ह। ० यह रतनतरय निगर नथ मनि को होता ह।

मनि का शरीर गराहारादि क निमितत स टिकता ह । शराहयार का निमितत गहसथ शरावक ह।

- इसलिए परमपरा स गहसथ मोकषमारग का कारण ह।

जिस शषावक न मनि को भकति स आराहरदान दिया, उसन मोकष- मारग टिकाया - ऐसा परमपरा निमितत शरपकषा स कहा- ह; परनत इसम आहार लनवाला और दनवाला दोनो समयगदरशन सहित ह, दोनो को राग का निषध और परण विजञानघनसवभाव का आरादर वतता ह। आहारदान दन वाल को भी सतपातर और कपातर का विवक ह। चाह जस मिथयाहषटि अनयलिगी को गर मानकर आदर करन म.तो मिथयातव की पषटि होती ह।

घरमी शरावक को तो मोकषमारग की परवतति का परम ह। सख तो मोकषदशा म ह - ऐसा उसन जाना ह अरथात‌ उस अनयतर कही सखबदधि नही ह। ऐस मोकषसख को रतनतरयधारी दिगमसबर मनि साध रह ह - इसस मोकषाभिलाषी जीव को एस मोकषसाधक मनि क परति परम-उललास, भकति और अनमोदना आती ह; वहा आहारदान आरादि क परसग सहज ही बन जात ह ।

दखी ! यहा तो शरावक ऐसा ह कि जिस। मोकषदशा म ही सख भासित हआ ह, जिस ससार म भररथात‌ पणय म -राग म - सयोग म कही सख नही भासता । जिस पणय म मिठास लग, राग म सख लग; उस मोकष क भरतीनदरियसख की परतीति नही और उस मोकषमारगी मनिवर क परति सचची भवित उललसित नही होती । मोकषसख तो राग रहित ह; उस पहि- चान बिना राग को सख का कारण मान, उस मोकष की अथवा मोकषमारमी सतो की पहिचान नही और पहिचान बिना की गई भवित को तचची भकति नही कहत ।

6 ॥०।

e J [ शरावकचरम परकाश

मनि को आहार दनवाल शरावक का लकषय मोकषमारग पर-ह कि wet! a धरमातमा मनिराज मोकषमारग को साध रह ह। शरावक मोकषमारग क बहमान स और उसकी पषटि की भावना स झराहा रदान दता ह, अतः उस मोकषमारग टिकान की भावना ह और अपन म भी वसा ही MAA परगट करन की भावना ह; इसलिए कहा ह कि आहारदान दनवाल शरावक दवारा मोकषमारग-परवतति. होती ह ।

जस बहत बार सघ जिमानवाल को ऐसी भावना होती ह कि इसम कोई बाकी नही रहना चाहिए, कयोकि इसम कदाचित‌ कोई जीव तीरथकर होनवाला हो तो ? - इसपरकार जिमान म उस अरवयकतरप स तीरथकर आदि क बहमान का भाव ह । उसोपरकार यहा मनि को आहार दनवाल शरावक की दषटि मोकषमारग पर ह; आराहार दऊ और पषय बघ - इस पर उसका लकषय नही ह ।

इसका एक दषटानत शराता ह कि किसी न भकति स एक मनिराज

को गराहरदान दिया wit उसक शरागन म रतनवषटि हई। दसरा कोई लोभी मनषय ऐसा विचारन लगा कि म भी इन मनिराज को आराहारदान

द, जिसस मर घर रतनो की वषटि होगी। दखो ! इस भावना म तो लोभ का पोषण ह, शरावक को एसी भावना नही होती; शरावक को तो

मोकषमारग क पोषण की भावना ह कि अहो ! चतनय क अनभव स जसा मोकषमारग मनिराज साध रह ह, वसा मोकषमारग म भी साध | ऐसी मोकषमारग की परवतति को भावना उस वतती ह, इसलिए इस कलिषट काल म भी परायः ऐस कषावको हारा मोकषमारग की परवतति ह- ऐसा कहा जाता ह। '

अनदर म शदधदषटि तो ह, राग स पथक चतनय का वदन हआ ह वहा शरावक को ऐसा शभभाव आय, उसक फल स वह मोकषफल को साधता ह - ऐसा भी उपचार स कहा जाता ह; परनत वासतव म उससमय अनतर म जो राग स पर दषटि पडी ह, वही मोकष को साध रही ह। (परवचनसार गाथा २५४ म भी इसी अपकषा बात की ह।) अनतह षटि को समभ बिना मातर राग स वासतविक मोकषपरापति मान छ; तो उस शासतर क शररथ की अथवा सन‍तो क हदय की खबर नही ह, मोकषमारग का सवरप वह नही जानता । यह अरधिकार ही वयवहार की मखयता स ह; इसलिए इसम तो वयवहार-कथन होगा; परमारथ स अनतहषटि को लकषय म रखकर समभना चाहिए

गराहरदान का सवरप ] छ३ 1]

एक ओर जोरशोर स भार दकर ऐसा कहा जाता हकि भतारथसवभाव क गराशरय स ही धरम होता ह और यहा कहा कि आहार या शरीर क निमितत स धरम टिकता ह, तो भी उनम कोई परसपर विरोध नही ह; कयोकि पहला परमारथ-कथन ह और दसरा उपचार-कथन ह। मोकषमारग की परवतति पराय: गहसथ दवारा दिय हए दान स चलती ह - इसम 'पराय:' शबद यह यचित करता ह कि यह नियमरप नही ह, जहा

शदधातमा क गराशरय स मोकषमारग ठिक, वहा शराहरादि को निमितत कहा जाता ह शररथात‌ यह तो उपचार ही हआना | शदधातमा क शराशरय स ही मोकषमारग टिकता ह, इसक बिना मोकषमारग हो नही सकता - यह नियमरप सिदधानत ह ।

सख शररथात‌ मोकष | आतमा की मोकषदशा ही सख ह - इसक अलावा मकान म, पस म, राग म कही सख नही ह; धरमी को आतमा सिवाय कही सखबदधि नही ह। चतनय क बाहर किसी परवतति म कही सख ह ही नही । आतमा क मकतसवभाव क अनभव म खख ह। समयगहषटि न ऐस आतमा का निदचय किया ह और उसक सख का सवाद Tar F 1 we जो अनभव दवारा मोकष को साकषात‌ साध रह ह - ऐस मनि को अतयनत उललास और भकति स वह आहारदान दता ह ।

आननदसवरप आतमा म शरदधा-जञान-सथिरता मोकष का कारण ह और बीच क बरतादि शभपरिणाम पणयबनध क कारण ह। आतमा क आननदसागर को उछालकर उसम जो मगन ह - ऐस नगन मनि रतलतरय को साध रह ह, उसक निमिततरप दह ह और दह क ठिकन का कारण आहार ह; इसलिए जिसन भकति स मनि को आहार दिया, उसन मोकषमारग दिया शररथात‌ उसक भाव म मोकषमारग टिकन का शरादर हआ । इसपरकार भगति स शराहारदान दनवाला शरावक इस दःषमकाल म मोकषमारग को परवतति का कारण ह। धरमातमा शरावक ऐसा समझकर मनि शरादि सतपातर को रोज भकति स दान दता ह ! अहो ! मर घर कोई धरमातमा सत पधार, जञान-आननद का भोजन करनवाल कोई -सत मर घर पधार; तो भकति स उनह भोजन द - ऐसा भाव गहसथ शरावक को रोज-रोज आता ह।

ऋषभदव क जीव न परव क आठव भव म मनिवरो को परमभकति स आहार दिया था और तियचो न भी उसका अशरनमोदन करक उततम फल परापत किया था - यह बात पराणो म परसिदध ह। शरयासकमार न आदिनाथ मनिराज को आहारदान दिया था - य सब परसग परसिदध ह।

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(९)

गरोीषधिदान का सवरप

सवचछाहारविहारजलपनतया नोरगवपरजायत, साधना तन सा ततसतदषद परायरा सभावयत । करयादोषधपथयवारिभिरिद चारितरभारकषम, यततसमादिह बतत परशमिना धरमो गहसथोततमात‌ ven

सामानयारथ :- इचछानसार गराहररविहदर और समभाषण दवारा शरीर निरोग रहता ह; परनत घनियो को तो इचछानसार भोजनादि नही होता, इसलिए उनका शरीर परायः अरशकत ही रहता ह। उततम गहसथ योगय शरौषधि तथा सवासथयवरधक भोजन-पानोी दवारा मनियो क शरीर को चारितरपालन हत समरथ बनाता ह। इसपरकार घनिधरम की परवतति उततम शरावक दवारा होतो ह।

: इलोक € पर परवचन

चार परकार क दान म स शराहरदान की चरचा की | अब दसर. ओझओषधिदान का उपदश दत ह। शरावक मनि आदि को औषधिदान किसपरकार दता ह - यह कहत ह ।

जो समयगदशन और समयगजञानपरवक शदधोपयोग दवारा कवलजञान क कपाट खोल रह ह- ऐस मनिराज शरीर स भी अतयनत उदासीन होत ह,

व वन जगल म रहत ह, ठड म शरोढना अथवा गरमी म सतान करना उनह

नही होता, रोगादि हो तो भी शरौषधि नही लत, दिन म एक बार आहार लत ह, उसम भी कभी ठडा आहार मिलता ह और कभी तीब गरमी म गरम आहार मिलता ह - इसपरकार इचछानसार शराहार उनको नही

मिलता, अत: मनि को कई बार निरबलता आदि रोग हो जात ह; परनत

गरौषधिदान का सवरप | [७५

एस परसग म धरमातमा उततम शरावक मनि का धयान रखत ह, उनको रोग वगरह हआ हो तो उस जानकर आराहदर क साथ निरदोष आऔषधि भी दत ह तथा ऋत-पभरनसार योगय आहार दत ह। इसपरकार शरावक भकतिपरवक मनि का धयान रखत ह।

यहा उतकषटरप स मनि की बात ली ह। इसस यह न समभता कि मनि को छोडकर अनय जीवो को आहार अरथवा झौषधिदान दन का निषध ह ! शरावक गरनय जीवो को भी उनकी भमिका क योगय शरादर स

अरथवा करणाबदधि स योगय दान द; परनत जहा धरमपरसग की मखयता हो, वहा घरमातमा को दखत ही विशष उललास शराता ह। मनि उततम-पातर ह, इसकारण उनकी मखयता ह ।

we ! मनिदशा क‍या ह - उसकी जगत को खबर नही ह। छोटा-सा राजकमार हो और मनि होकर चतनय को साधता हो, चतनय क परतीनदरिय आननद का परचर सवसवदन जिसको परगठ हआ हो - ऐस मनि दह स तो गरतयतत उदासीन ह ।

चाह जितनी ठड हो, परनत दह सिवाय गनय परिगरह जिस नहो; बाहमदषटिवाल जोबो को लगता ह कि ऐस मनि बहत दःखी होग । अर भाई ! उनक अनतर म तो ऐस आननद की धाराए बहती ह कि ।जस आराननद की कलपना भी तझ नही आ सकती । चतनय क इस बराननद की अभिलाषा म ठड-गरमी का लकषय हो कहा ह ?

जिसपरकार मधयबिनद स सागर उछलता ह; उसीपरकार चतनय क तर क मधय म स मनि को आराननद की लहर उछलती ह। Ta ala

को रोगादि हो तो भकतिपरवक धयान रखकर उततम गहसथ पथय आहार क साथ योगय औषधि भी दत ह - इसका नाम साध वयावतय ह, वह गरभकति का एक परकार ह। शरावक क कतवय म पहल दवपजा और दसरी गर-उपासना कही, उसम इसपरकार क भाव शरावक को होत ह । मनि सवय तो बोलत नही कि मझ ऐसा रोग हआ ह, भरतः ऐसी खराक गरथवा ऐसी दवा दो; परनत भकतिवान शरावक इसका धयान रखत ह ।

दखिय ! इसम मातर शभराग की बात नही; परतत सवजञ को शरदधा और समयरदशन कस हो, वह पहल बताया गया ह।.शरदधापरवक शरावकधरम को ऐसी यह बात ह। जहा शरदधा ही सचचो नही और कदव-कगर का सवन होता ह, वहा तो शरावकधरम नहो होता । शरावकर को मनि aris

७६ ] [ शरावकधरम परकात

धरमातमा क परति कसा परम होता ह, वह यहा बताना ह। जिसपरकार

अपन शरीर म रोगादि होन पर दवा करवान का राग होता ह,

उसीपरकार मनि इतयादि धरमातमा क परति भी धरमी को वातसलयभाव स

परौषधिदान का भाव आता ह। गहसथ पयार पतर को रोगादि होन पर

उसका भी धयान कस रखत ह ! तो धरमी को ता सबस परिय मनि भरादि gate ह; उनक परति उस झराहचरदान, औषधिदान, शासतरदान इतयादि

का भाव आय बिना नही रहता । यहा कोई 'दवा स शरीर अचछा रहता ह अथवा शरीर स धरम

टिकता ह' - ऐसा सिदधानत सथापित नही करना ह, परनत 'धरमी को राग किसपरकार होता ह! - यह बताना ह। जिस धरम की अपकषा ससार की तरफ का परम शरधिक रह, वह धरमी कसा ? ससार म जीव सतरी-पतर आदि की वरषगाठ, लगनपरसग आदि क बहान राग की पषटि करता ह;

वह तो अशयभभाव ह तो भी पषटि करता ह; तो जिस धरम का रग ह, वह धरमी क जनमकलयाणक-मोकषकलयाणक, कोई यातरापरसग, भकतिपरसग, जञानपरसग आदि क बहान धरम का उतसाह वयकत करता ह ।

शभ क अनक परकारो म औषधिदान का परकार शरावक को होता ह, उसकी बात की । .

। । । । | ! । ॥ ' ॥ ! ! घनय | आज का दिन |!

aaa की मसतो म मसत मनि को दखत हए गहसथ को ऐसा भाव आता ह कि अहा ! रतनननय साधनवाल सत को शरीर की गनकलता रह - ऐसा आराहार-शरोषध दऊ, जिसस व रतनतरय को निविधन साथ, इसम मोकषमारग का बहमान ह। गरहो ! धनय य सन‍त और धनय आज का दिन कि मर आगन म मोकषमारगी सनिराज क चरण पड" आज तो मर आगन म साकषात‌ मोकषमारग गराया “| वाह ! धनय ऐस मोकषमारगो सनियो को जिनह दखत ही शरावक का हदय बहमान स उछल जाता ह। जिस धरमो क परति भकति नही, आदर नही; उस धरम का भी परम नही ।

-- पजय शरी कानजी सवामी

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जञानदान का सवरप

वयाखया पसतकदानमसतततधिया पाठाय भवयातमना

भकक‍तया यतकरियत शर‌ ताशरयभिद दान तदाहब घाः ।

सिदध $समिन‌ जननानतरष कतिष तरलोकयलोकोतसव-

शरीकारिपरकटीकताखिलजगत‌ कवलयभाजो जना:॥१०॥

सामानयारथ : - उननत बदधि क धारक भवयजीबो को पढन क लिए भकतति स जो पसतक का दान किया जाता ह शरथवा उनक लिए

तततव का वयाखयान किया जाता ह, उस विदवतजन शर‌ तदान (जञान- दान) कहत ह। इस जञानदान क सिदध हो जान पर मनषय थोड स हो भवो म उस कवलजञान को परापत कर लत ह, जिसक दवारा argqar विशव साकषात‌ दखा जाता ह तथा जिसक परगट होन पर तीनो लोको क पराणी उस कवलजञान महोतसव की शोना मनात ह ।

शलोक १० पर परवचन अब तीसर जञानदान का वरणन करत ह। जञानदाव की महिमा

ओर उसका महान फल कवलजञान बतात ह ।

सरवजञदव क कह हए शासतरो का वयाखयान करना तथा विशाल बदधिवाल जीवो को सवाधयाय हत पसतक दना, उस जञानीजन शासतरदान या जञानदान कहत ह। एस जञानदान का फल कया ? तो कहत ह कि ऐस जञानदान दवारा भवय जीव थोड ही भवो म तीन लोक को आननदकारी गरथात‌ समवसरण आदि लकषमी को करनवाली और लोक क समसत पदारथो को हसतरखा समान दखनवाली - ऐसी कवलजननानजयोति परापत करता ह अरथात‌ तीरथथरपद सहित कवलजञान को परापत करता ह। जञान की आराधना का जो भाव ह, उसक फल म कवलजञान परापत होता ह और बीच म जञान क बहमान का, धरमी क बहमान का जो शभभाव ह, उसस

ea ] [ शरावकणरम परकाश

तीरथकरपद झादि मिलता ह; इसलिए अपन हित को चाहनवाल शरावक को हमशा जञानदान करना चाहिए।

दखो इस जञानदान की महिमा ! सचच शासतर कौन ह - उनकी जिसन पहचान की ह और सवय समयसगजञान परगट किया ह, उस ऐसा भाव शगराता ह कि अहो ! ऐसी जिनवाणी का जगतन म परजार हो और जीव समयजजञान परापत करक अरपना हित कर। ऐसी जञानपरचार की भावना-

परवक सवय शासतर लिख, लिखाव, पढ, परसिदध कर, लोगो को सरलता स

शासतर मिल - ऐसा कर | ऐस जञानदान का भाव धरमोजीव को झाता ह | धरमजिजञास को भी ऐसा भाव आता ह !

जञानदान म सवय क जञान का बहमान पषट होता ह। वहा किसी समयगहषटि जीव को ऐसा ऊचा पणय बधता ह कि वह तीरथकर होता ह, समवशरण म दिवयधवनि खिरती ह, इस दिवयधवनि को भलकर बहत-स

जीव धरम परापत करत ह। 'अभीकषण जञानोपयोग' शररथात‌ जञान क तीवर रस

स बारमबार उसम उपयोग लगाना, उस भी तीरथकर परकति का कारण

कहा ह; परनत ऐस भाव वासतव म किस होत ह ? जञानसवरप आतमा को

जानकर जिसन समयगदशन परगट किया हो शररथात‌ सवय धरम परापत किया

हो, उस ही जञानदान या अभीकषण जञानोपयोग यथारथरप स होता ह। सचचा मारग जिसन जान लिया ह - ऐस शरावक क धरम की यह बात ह ।

समयरदशन बिना तो बरत, दान आदि शभ करत हए भी ag भरनादि स ससार म परिभरमण कर रहा ह। यहा तो जो भदजञान परगट कर

Hemet म आरढ ह - ऐस जीव की बात ह। जिसन सवय ही जञान

नही पाया, वह अनय को जञानदान क‍या करगा? जञान क निरणय बिना

शासतर आदि क बहमान स पसतक गरादि का दान कर, उसम मोकषमारय रहित पणय वघता ह; परनत यहा शरावकधरम म तो मोकषमारग सहित

दानादि की परधानता ह गरथात‌ समयगदशन की परापति तो परथम करनी

चाहिय, उसक बिना मोकषमारग नही होता ।

जञानदान - शासतरदान करनवाल शरावक को सतशासतर शर

कशासतर का अनतर मालम ह । सरवजञ की वाणी मलकर गणधरादि सन‍तो

दवारा रच हए वीतरागी शासतरो को पहिचान कर उतका दान AT TAT कर; परनत मिथयाहषटियो क रच हए, तततवविरदध, कमारग का पोषण करन- वाल - ऐस कशासतरो को वह नही मान, उनका दान या परचार नही

कर; अनकानतमय सतशासतर को पहिचान कर उनका ही दानादि कर।

जञानदान का सवरप | [ ee

aay aie aySat HY रचि छोडकर शरपन चिदाननदसवभाव की टषटि - रचि - परीति करना ही समयगदशन ह; वह धरम की पहली वसत ह; उसक बिना पणय बघता ह; परनत कलयाण नही होता, मोकषमारग नही होता पणय की रचि म रका, पणय क विकलप म कतत‌ तवबदधि स तनमय होकर रका; उस पणय. क साथ-साथ मिथयातव का पाप भी बधता ह| पडित करी टोडरमलजी मोकषमारगपरकाशक क छठव अधयाय म पषठ १६२ पर

कहत z Le

: “जिनधरम म तो यह आमनाय ह कि पहल बडा पाप छडाकर फिर छोटा पाप छडाया ह, इसलिए इस मिथयातव को सपतवयसनादिक स भी बडा पाप जानकर पहल छडाया ह; इसलिए जो पाप क फल स डरत ह, अपन शरातमा को दःखसमदर म नही डबाना चाहत, व जीव इस मिथयातव को अवशय छोडो । निन‍दा-परशसादिक क विचार स शिथिल होना योगय नही ह |”

कोई कह कि समयकतव तो बहत ऊची भमिका म होता ह, पहल तो बरत-सयम होना चाहिय; तो उस जिनमत क करम की खबर नही ह ।

“जिनमत म तो ऐसी परिपाटी ह कि पहल समयकतव हो, पीछ बरत हो? तथा “मनिषद लन का करम तो यह ह - पहल तसवजञान होता ह, पशचात‌ उदासीन परिणाम होत ह, परिषहादि सहन की शकति होती ह; तब वह सवयमव मनि होना चाहता ह और तब शरीगरर मनिधरम भगीकार करात ह ।

यह कसी विपरीतता ह कि - तततवजञान रहित विषय-कषायासकत जीवो को माया स व लोभ दिखाकर मनिपद दना, पशचात‌ अनयथा परवतति कराना; सो यह बडा अनयाय ह |”?

थघ क पाच कारणो म मिथयातव सबस मखय कारण ह। मिथयातव छोड बिना अननत अथवा कषाय आदि नही छटत । मिथयातव छटत ही अरनन‍त बनधन एक कषण म टट जात ह। जिस अभी मिथयातव छोडन की तो इचछा नही, उस अननत कहा स छटग ? और बरत कहा स आवग ? आतमा क‍या ह - उसकी जिस खबर नही, वह किसम सथिर रहकर बरत करगा ? चिदाननदसवरप क अनभव होन क पशचात‌ उसम

1, मोकषमारगपरकाशक, परषठ २६३

2 मोकषमारगपरकाशक, पषठ १७६

so J [ शरावकषरमपरकाश

कछ विजयष सथिरता करत ह, तो दो कषायो. की चौकडी क अभावरप पचम गणसथान परगट होता ह और उस सचच बरत होत ह। ऐस शरावकधरम क उदयोत का यह अधिकार ह । ह

समयरदरशन बिना कलश सहन करक मर जाय तो भी भव नही: घट सकत । समयसारकलशटीका, इलोक १४२ म पडित राजमलजी कहत ह :-

: उसकी ( शभकरिया की ) परमपरा आग मोकष का कारण होगी - एसा भरम उतपनन होता ह, सो झठा ह। 'च और कस ह मिथयाहषटि जीव ? “महावरततपोभारण चिर भगनाः कलिशयनता' हिसा, अरनत, सतय, gaa एव परिगरह स रहितपना, महापरिषहो का सहना, उनका बहत AMG GIR FIT AGT HUT TAT ACH ALT Aa हए बहत कषट करत

ह तो करो, तथापि ऐसा करत हए करमकषय तो नही होता । अजञानी की य सब करिया तो कषटरप ह, दःखरप ह, शदधसवरप क

अनभव की तरह य कोई सखरप नही; अनभव का जो परम-आननद ह, उसकी गध भी शभराग म नही ह। ऐस शभराग को कोई मोकष का कारण मान, परमपरा स भी इस राग को मोकष का कारण होना मान तो कहत ह कि वह भठा ह, भरम म ह । मोकष का कारण यह नही ह; मोकष का कारण तो शदधसतररप का अनभव ह।

परशन :- चौथ काल म शदधसवरप का अनभव मोकष का कारण भल हो, परनत इस कठिन पचम काल म तो राग मोकष का कारण होगा न ?

उततर :- पचम काल म हए मनि पचम काल क जीवो को यह बात समभात ह। चौथ काल का धरम जदा और पचम काल का घरम जदा - ऐसा नही ह। धरम अरथात‌ मोकष का मारग तीनो काल म एक ही परकार का ह। जब झौर जहा जो कोई जीव मोकष परापत करगा, वह राग को छोडकर शदधसवरप क शरनभव स हो परापत करगा । चाह किसी भी कषतर म, कोई भी जीव राग दवारा मोकष परापत नही करता - ऐसा नियम ह !

परथम जिसन मोकषमारग क ऐस सवरप का निरणय किया ह और समयरदशन दवारा अपन A sant Aa परगटठ किया ह, उस बाद म राग की मदता क कौन स परकार होत ह- उनक कथन म चार परकार क दान की बात चल रही ह। मनि आदि घरमातमा क परति भकति स शराहा र-

जञानदान का सवरप | [८६

दान, औषधिदान क पशचात‌ शासतरदान का भी भाव शरावकर को AAT ह | उस वीतरागी शासतरो का बहत विनय और बहमान होता ह। वीत- रागी जञान की परभावना कस हो, बहत जीवो म इसका परचार कस हो - इसक लिए वह अपनी शवित लगाता ह। इसम अनय जीव समभया न समभ - इसकी मखयता नही; परनत धरमी को अपन समयगशान का बहत पर म ह, उसकी मखयता ह शररथात‌ शरनय जीव भी सचचा तततवजञान कस परापत कर - ऐसी भावना धरमी को होती ह।

सरवशदव दवारा कह गय शासतरो का रहसय सवय जानकर अनयको उस समभझाना और भकत स उसका परचार करता, वह जञानदान ह। अनतर म तो सवय न सवय को समयसजञान का दान दिया तथा बाहय म अनय जीव भी ऐसा जञान परापत कर और भवदःख स छट' - ऐसी भावना घधरमी को होती ह। शासतरदान क बहान अनय Bl AWA Waar परचार करन क बहान अपनी मान-परतिषठा भरथवा बडपपन की भावना हो तो वह पाप ह; धरमी को एसी भावना नही होती। घरमातमा तो कहता ह कि भर ! हमारी जञानचतना स हमारा कारय हमारो आतमा म हो रहा ह, वहा बाहर अनय को बतान का क‍या काम ह ? गरनय जीव जान तो उस सन‍तोष हो - ऐसा नही ह, उस तो अनतर म आरातमा स ही सनतोष ह ।

जो सवय एकाकी शरनतर म शरपनी आतमा का कलयाण कर ल, वह बडा अथवा बहत स जीवो को समभाव, वह बडा ?

अर भाई ! अनय समरक यान समझ, उसक साथ इसका क‍या समबनध ? कदाचित‌ शरनय बहत स जीव समझ तो भी उस कारण स इस

जरा भी लाभ हआ हो -ऐस। नही ह और धरमी को कदाचित‌ वाणी का योग कमर हो ( मककवली भगवान की तरह वाणी का योग न भी हो ) तो उसस कोई उसक अरनतर का लाभ रक जाव -ऐसा नही ह।. बाहय म अनय जीव समझ - इस पर स जो धरमो का माप करना चाहत ह, उनह धरमी की अनतरदशा की पहचान नहो ह ।

यहा जञानदान म तो यह बात ह कि सवय को ऐसा भाव होता ह कि अनय जीव भी सचच जञान को परापत कर; परनत अनय जीव समझ या न समभ,- यह उनकी योगयता पर ह, उनक साथ इस कोई लना-दना नही ह । सवय को पहल अजञान था और महाद:ख था, वह दर होकर सतरय को HAM EA और शरपरव सख परगट हशरा शरथात‌ सवय को समयगजान

a [ शरावकधम परकाश

की महिमा भासी ह, अतः: 'भशरनय जीव भी ऐस समयगजञान को परापत हो तो उनका दःख मिट और सख परगट” - इसपरकार धरमी को अनतर म जञान की परभावना का भाव आता ह और साथ म उसी समय अनतर म शदधातमा की भावना स जञान की पर-भावता - उतकषट भावना की शरनतर म और बदधि हो रही ह।

दखो, यह शरावक की दशजञा ! ऐसी दशा हो, तभी जन को शरावकपना कहलाता ह और मनिदरशा तो उसक पशचात‌ होती ह। उसन सरवजञ का और सरवजञ की वाणी का सवय निरणय किया ह। जिस सवय निरणय नही, वह सचच जञान की कया परभावता करगा ? यह तो अपन जञान म निरणय कर लनवाल धरमातमा की बात ह और घरमातमा को, विशष बदधिमान को बहमानपरवक शासतर दना, वह भी जञानदान ह। शासतरो का सचचा शरथ समझना, परसिदध करना भी जञानदान का भद ह।

किसी साधारण मनषय को जञान का विशष परम हो और उस शासतर न मिलत हो तो धरमी उस परमपरवक परबनध कर द, ऐसा भाव धरमी को आता ह। अपन पास कोई शासतर हो और दसर क पासन हो तथा पढन क लिए शासतर मागन पर “अनय पढगा तो मझस आग बढ

जायगा, मरा समझना कम हो जावग।' - ऐसी ईषयाविश या मानवश बह न द - ऐस जीव को जञान का सचचा पर म नही और घभभाव का भी ठिकाना नही ।

भाई ! अनय जीव जञान म झाग बढता हो तो भल बढ, तम उसका अनमोदन करना चाहिए । तझ जञान का पर म हो तो अनय भी जञान परापत कर - इसम गरनमोदन होगा या ईरषया ? भरनय क जञान की जो ईरषया शराती ह तो इसस जञात होता ह कि तझ शासतर पढ-पढकर मान का पोषण करना ह, जञान का सचचा परम नही ह।जञानपरमी को भरनय क जञान की ईरषया नही होती, परनत अनमोदना होती ह ।

एक जीव बहत समय स मनि हो, दसरा जीव पीछ स भरभी ही मनि हआ हो और शीघर कवलजञान परापत कर ल; वहा पहल मनि को ऐसी ईरषया नही होती कि शरर ! शरशी गराज ही तो दीकषा ली और मभस

“पहल इसन कवलजञान परापत कर लिया; परनत अनमोदना आती ह कि वाह ! घनय ह कि इसन कवलजञान साध लिया, मझ भी यही इषठ ह wa भी यही करना ह- इसपरकार अनमोदना दवारा अपन पषठपारथ

जञानदान का सवरप ] [ 53

को जाशत करता ह | ईरषया करनवाला तो अटकता ह और अनमोदना

करनवाला अपन परषारथ को जागत करता ह ।

अपन अनतरग म जहा जञानसवभाव का बहमान ह, वहा राग क समय भी जञान की परभावना का शौर शरनमोदना का भाव आए बिना नही रहता ।! जञान क बहमान दवारा वह थोड ही समय म कवलजञान परापत करगा । राग का फल कवलजञान नही, परनत जञान क बहमान का फल कवलजञान ह और साथ म शभराय स जो उततम पणयबनध ह, उसक फल म समवशरण गरादि की रचना होगी और इनदर महोतसव करग। गरभी यहा चाह किसी को खबर न हो, परनत कवलजञानः होत ही तीन लोक म आइचयकारी हलचल हो जावगी, इनदर महोतसव करग और

तीन लोक म आननद होगा ।

mall ag तो बीतरागमागग ह। वीतराग का मारग तो वीतराग ही होता ह न ? वीतरागरभाव की वदधि हो - यही सचची मारगपरभावना ह। राग को जो आरादरणीय बताव, वह जीव वीतरागमारग की परभावना

कस कर सकता ह ? उस तो राग की ही भावना ह। जनधरम क चारो अनयोगो क शासतरो का तातपय वीतरागता ह। धरमोजीव वीततरागी तातपरय बतलाकर चारो झनयोगो का परचार कर ।

परथमानयोग म तीरथकरादि महान‌ धरमातमाओ क जीवन की कथा चरणानयोग म उनक गराचरण का वरणन, करणानयोग म गणसथान आदि का वरणन और दरवयानयोग म अरधयातम का वरणन - इन चार परकार क शासतरो म वीतरागता का तातपय ह। इन शासतरो का बहमानपरवक सवय गरभयास कर, परचार और परसार कर। जवाहरात क गहन या बहमलय वसतर शरादि का कस परम स घर म सभालकर रखत ह ! इसकी अपकषा विशष पर म स शासतरो को घर म विराजमान कर और सजाकर उनका बहमान कर - यह सब जञान का ही विनय ह।

शासतरदान क समबनध म कनदकनद सवामी क परवभव की कथा परसिदध ह। परवभव म व एक सठ क यहा गवाल थ। एक बार उस वाल को वन म कोई शासतर मिला, उसन अतयनत बहमानपरवक किन‍ही मनिराज को वह शासतर दान किया। उससमय अरवयकतरप स जञान की गरचितय महिमा का कोई भाव पदा हआ, इसस व उस सठ क घर ही

नम; छोटी उमर म हो मति हए और जञान का अगराध समदर उनको उललसित हझना । शरहम ! उनहोन तो तीरथकर परमातमा की दिवयवाणी

cy j [ शरावकधरमपरकाश

साकषात‌ सनी और भरतकषतर म जञान की नहर चलाई। इनक अनतर म जञान की बहत शदधि परगट हई और बाहय म भी शरत की महान‌ परतिषठा इस भरतकषतर म उनहोन की ।

अहा, उनक निजवभव की क‍या बात ! जञानदान स अरथात‌ जञान क बहमान क भाव स जञान का कषयोपशमभाव खिलता ह और यहा तो उसका उतकषट फल बतलात हए कहत ह कि वह जीव थोड भव म कवलजञान परापत करगा, उस समवशरण की शोभा की रचना होगी और

तीन लोक क जीव उसका उतसव मनावग; क‍योकि जञानाननदसवभाव की आराधना साथ म वरतती ह अरथात‌ आराधकभाव की भमिका म ऐसा ऊचा पणय बधता ह। उसम घरमी का लकषय जञानसवभाव की शराराधना पर ह; राग अथवा पणय पर उसका लकषय नही ह, वह तो बीच म भरनाज क साथ क भस की तरह सहज ही परापत हो जाता ह ।

जञानसवभाव की आराधना स घरमीजीव सरवजञपद को साधता ह। उस किसीसमय ऐसा भी होता ह कि अर ! हम भगवान क पास होत, भगवान की वाणी सनत और भगवान स परइनो का सीधा समाधान लत; शरब भरतकषतर म भगवान का विरह हआना, किनस परइन पछ और कौन समाधान कर ? - धरमातमा को सरवजञ परमातमा क विरह का ऐसा भाव शराता ह । भरत चकरवरती जस को भी ऋषभदव भगवान मोकष पधार, तब ऐसा विरह का भाव आया था। अन‍नतरग म निज क परण जञान की भावना ह कि अर, इस पचमकाल म अपन सरवजञपद का हमको विरह ! गरथात‌ निमितत म भी सरवजञ का विरह सताता ह।

इस भरतकषतर म कनदकनदपरभ को विचार शझराया - अर नाथ ! पचमकाल म इस भरतकषतर म शरापका विछोह हआ, सरवजञता का विरह हआ' - इसपरकार सरवजञ क परति भकति का भाव उललसित हआ और उनका चितवन करन लग। वहा पणय का योग था और पातरता भी विशष थी, सीमघर भगवान क पास जान का योग बना । अहा ! भरतकषतर का मनषय शरीरसहित विदहकषतर गया और भगवान स मिलाप हआ | भगवान की दिवयधवनि साकषात‌ शरवण की और उनहोन इस भरतकषतर म TAMA BT AW arg उनह आराधकभाव का विशष जोर और साथ म. पणय का भी महान‌ योग था। उनहोन तो तीरथकर जसा कारय किया ह।

आराधक का पणय लोकोततर होता ह। तीरथकर क जीव को

जञानदान का सवरप ] [ 5५

गरभ म ama म छह महिन की दर हो, शरभी तो वह जीव (अशरणिक भरादि कोई) नरक म हो अथवा सवरग म हो; इधर तो इनदर-इनदराणी शराकर उनक माता-पिता का बहमान करत ह कि घनय रतनकोखधघारिणो माता ! छह महिन पदचात‌ आराप की कोख स तीन लोक क नाथ तीरथकर आनवाल ह- ऐसा बहमान करत ह और जहा उनका जनम होनवाला हो, वहा परतिदिन करोडो रतनो की वषट करत ह। छह मास परव नरक म भी उस जीव को उपदरव शात हो जात ह। तीरथकर-परकति का उदय at ated गरणसथान म कवलजञान होगा, तब आवगा; परनत उसस परव उसक साथ ऐसा पणय होता ह। (यहा उतकषट पणय की बात ह, सभी आराघधक जीवो को ऐसा पणय होता ह - ऐसा नही, परलत तोरथदधर होन- वाल भीव को ही ऐसा पणय होता ह।) यह सब तो अचितय बात ह।

आतमा का सवभाव भी अरचितय और उसका जो आराधक हभना, उसका पणय भी गरचितय । ऐस आतमा क लकषय स शरावक धरमातमा जञानदान

करता ह| उसम उस राग का निषध ह शर जञान का आदर ह; इसलिय यह कवलजञान परापतकर तीरथदधर होगा, तीन लोक क जीव उसका उतसव

मनातरग और उसकी दिवयधचनि स धरम का निरमल मारग चलगा।

इसपरकार जञानदान का वरणन किया ।

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॥ ' सचचा अरभयदान ? |! !) A \ धरमी जीव समयगदरशनादि दवारा जिसपरकार अपन दःख को \ \ दर करन का उपाय करता ह, उसीपरकार अनय जीवो पर भी उस

करणा क भाव आत ह। जिस जीव दया ही नही, उस सचचा धरम | \ अथवा दान कहा स हो? सचचा शरभयपना यह ह कि जिसस )

भवशरमण का भय दर हो, भरातमा निरभयरप स सख क मारग की | ओर परगनमर हो। शरजञान ही सबस बडा भय का कारण ह। ) \ समयशजञान दवारा ही वह भय दर होकर अभयपना होता ह; इसलिय ५

जीवो को समयगजञान क मारग म लगाना सचचा अभयदान ह। \ i — Jou शरी कानजो सवामी \ ‘= Ser ee an Tee eT “ee eer अपर ee | ee SS See, Se eee, ee eee eee eee ee 5

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अरभयदान का सवरप

सरवषासभय परवदधकरणयदवीयत.. पराणिया, दान सथादभयादि तन रहित दानतननय निषफलश‌ । शराहमरोषधशासतरदानविधिभि:. कदरोगजाडयाय, यतततपातरजन विनशयति ततो दान तदक परम ॥११॥

सामानयारथ :- अतिशय करणावान भवयजीदो दवारा समसत पराणियो को जो अरभय दिया:जाता ह, बह अभयदान ह। बाकी क तीनो दाल इस जीवदया क बिना निषफल ह। गराहरदान स कषा का दःख दर होता ह, औषधदान स रोग का भय दर होता ह और शाखदान स WAT का भय दर होता ह - इसपरकार इन तोीनो दानो स भी जोबो को शरभनव ही दन म शराता ह; इसलिए सब दातो म अभयदान ही एक शरषठ और परशसनीय ह ।

शलोक ११ पर परवचन

शरावकधरम क कथन म चार परकार क दानो का वरणन चल रहा ह । उसम शराहद रदान, शरौषधदान तथा जञानदान - इन तीन का वरणन हआ । अब चौथ अभयदान का वरणन करत ह ।

जिसपरकार धरमोजीव अपती आतमा म समयनदरशनादि दवारा दःख दर करन का उपाय करता ह; उसीपरकार “अशरनध जीवो को भी दःख न हो उनका दःख मिट' ऐस करणा क भाव होत ह । जिस जीवदया भी न हो उसका तो एक भी दान सचचा नही होता | किसी जीव को मारन की अथवा दःख दन की वतति धरमी को नही होती, उस तो सब जीवो क परति

परभवदान का सवरप ] [ 5७

करणा होती ह । दःखी जीवो क परति करणापरवक पातर-परनसार अहार, गरौषध शरथवा जञान आदि दकर उनका भय मिटाता ह। दखो ! ऐस करणा क परिणाम शरावक को सहज ही होत ह ।

सचचा अभयदान तो उस कहत ह कि जिसस भवशरमण का दःख टल और आतमो निरभयरप स सिदध क पन‍थ की ओर अगरसर हो | अजञान शरौर मिथयातव 'ही जीव क लिए सबस बडा भय और दःख का कारण ह।

समयगदशन और समयगजञान होन पर वह भय दर होकर आतमा शरभयपना परापत करता ह; इसलिय जीवो:को समयगजञान क मारग म लगाना ही बडा अभयदान ह और इसी लिय भगवान को भी अभयदाता (झरभयदयाणम‌ ) कहा जाता ह।

भगवान झौर सनत कहत ह कि ह जीव ! त शरपन सवरप को पहचानकर निरभय हो । शका का नाम भय ह; जिसको सवरप म शका ह उसको मरण आदि का भय कभी नही मिटता | समयरहषटि जीव ही निःशक होन स निरभय ह, उनह मरण nfs ara gare क भय नही होत । शरीमद‌ कनदकनद सवामी कहत ह :-

“सममाहिटठी जीवा रिससका होति शिबभया तरा। सततमयविषपपवका जमहा तमहा द णिससका॥ए

समयगहषटि जीव नि:शक होत ह, इसलिए निरभय होत ह, कयोकि व सपत भयी स रहित होत ह, इसलिए निःशक होत ह।''

सवरप को अरानति दर हई, वहा भय दर हो गया । शरीर ही म नही, म तो शाशवत जञानमय आतमा ह; तब मरा मरण कसा ? और जब मरण ही नही तो मरण-का भय कसा ? मिथयातव म मरण का भय था; भमिथयातव दर हआ, वहा मरणादि का भय मिटा। इसक अरतिरिकत रोगादि का अथवा सिह-बाघ का भय थोड समय क लिए चाह मिट जाव; परनत जबतक यह भय न मिट, तबतक जीव को सचचा सख नही होता ।

इसपरकार जञानी समभात ह कि ह भाई ! त तो जञानसवरप ह; इस दह का जनम-मरण वह वासतव म तरा सवरप नही; गजञान स तन दह को शरपता मानकर उसम सख की कलपना की ह; इसस तझ रोग का कषधा का, मरणादि का भय लगता ह; परनत दह स भिन‍न वजञ जसा जो

1, समथसार गाथा २२८५

ac | [ शरावकधरम परकाश

तरा जञानसवरप ह, वह निरभय ह, उस अनतर म दखन स परसमबनधो कोई भय तझ नही रहगा - इसपरकार नितय गरभयसवरप समभकर जञानी सचचा भरभयदान दता ह, उसम सब दान समाविषट हो जात ह । परनत जो जीव ऐसी समभन को योगयतावाल न हो - ऐस दःखी जीवो पर भी HAH -करणा करक जिसपरकार उनका भय कम हो, उसपरकार उनह आहार, औषध शरादि का दान दता ह। शरपनी आतमा BT MA FX BAT

ह और शरनय को अभय दन का शभभाव आता ह - ऐसी शरावक की: भमिका

ह । भरपना ही .भय जिसन दर नही किया, वह अनय का भय कहा स मिटावगा ? गरजञानी को भी जो करणाभाव आता ह, दान का भाव आता ह; उसम उस भी शभभाव ह, परनत जञानी जसा उततम परकार का भाव उस नही होता ।

दखो ! कितन ही जीव असयमी जीवो क परति दया-दान क परिणाम

को पाप बतलात ह. यह तो शरतयनत विपरीतता ह। भख को कोई खिलाव, पयास को पानी पिलाव, दषकाल ही, गाय घास क बिना मरती

हो और कोई दयाभाव स उनह घास आदि खिलाव तो उसस कोई पाप नही ह; उसक भाव दया क ह, व पणय क कारण ह। जीव दया क भाव म पाप बताना तो बहत बडी विपरीतता ह। धरम की बात तो दर, परनत इस तो पणय और पाप क बीच का भी विवक नही ह।

इसीपरकार कोई जीव पचरिदरय शरादि जीवो की हिसा कसक उसम घरम मानता ह, वह तो महान पापी-ह। ऐस हिसामारग को जिजञास कभी ठीक नही मानत । एक भी जीव को मारन का अथवा: दःखी करन का भाव धरमी शरावक. को नही होता । अर ! जो वीतरागमारम को-साधन गराया, उसक परिणाम तो कितन कोमल होत ह !

पदमननदि सवामी कहत ह कि मर निमितत स किसी पराणी को दःख न हो। किसी को मरी निन‍दा स अभरथवा मर दोष दखन स सनतोष होता हो तो वह इसपरकार भी सखी होव; किसी को इस: दहनाश की इचछा हो तो वह यह दह लकर भी सखी होव शररथात‌ हमार निमितत स

किसी को भथ न हो, दःख न हो अरथात‌ हम किसी क परति छ ष शरथवा कोध न हो - इसपरकार सवय अपन वोतरागभाव म रहना चाहत ह ।

यहा तो मखयता स चारितरवत मनि की बात ह, उसम शौणरप स शरावक भी आ जाता ह; कयोकि शरावक को. भी अपनी: भमिका-अभधसोर ऐसी ही भावना होती ह। सामनवाला जीव सवय अपन गण-दोष क

अभयदान का सवरप ] ६ ८&

कारण अभयपना परापत कर अथवा न कर - यह उसक आराधीन ह, परनत जञानी को अपन भाव म सब जीवो को गरभय दन की वतति ह ।

हमारा कोई शतर नही, हम किसी क शतर नही - ऐसी भावना म जञानी को अरननतानबनधी कषाय का परण भरभाव ह। ततपदचात‌ अनय राग- दष शरादि की भी बहत मदता हो गई ह और शरावक को तो (पचम गणसथान म ) इसस भी भरधिक राग दर हो गया ह, हिसादि क परिणाम छट गय ह । इसपरकार यह शरावक क दशतबरत का परकाशन ह।

आतमा का चिदानदसवभाव परण राग रहित ह, उस जिसन शरदधा म लिया ह अथवा शरदधा म लना चाहता ह- ऐस जीव को राग की कितनी मदता हो, दव-गर-धरम करी तरफ परिणाम किसपरकार क हो, सरवजञ की पहचान कसी हो - इन सब मदो का इस अधिकार म मनिराज न बहत सनदर वरणन किया ह । यह सभा म तीसरी बार पढा जा रहा ह। महापणय हो, तभी जनधरम का और सतयशरवण का ऐसा योग परापत होता ह; उस समभन क लिए अनतर म बहत पातरता होनी चाहिय -

राग का एक कण भी जिसम नही - ऐस सवभाव का शरवण करन म शर उस समभन की पातरता म जो जीव आया; उस सथल अरनीति का, तीवर कषायो का, मदय-मास-मध आदि अरभकषयो क भकषण का तथा कदव- कगरकमाग क सवत का तो तयाग होता ही ह और सचच दव-गर-शासतर का आदर, साधरमी का परम, परिणामो की कोमलता, विषयो की मिठास का तयाग, वरागय का रग - ऐसी योगयता होती ह। ऐसी पातरता बिना ही तततवजञान हो जाय - ऐसा! नही ह ।

भरतचकरवरती क छोटी-छोटी.उमर क राजकमार भी आतमा क भान सहित राजपाट म थ, उनका अतरगः जगत स उदास था। छोट राजकमार राजसभा म शराकर दो घडी बठत ह, वहा भरतजी राजभडार म स करोडो सोन की मोहर उनह दन को कहत ह; परनत छोट स कमार वरागय स कहत ह- पिताजी ! य सोन की मोहर राजभडार म ही रहन दो, हम इनका क‍या करना ह? हमतो मोकषलकषमी की साधना कर लिए आय ह, पसा एकतरित करन क लिए नही। पर क साथ हमार सख का समबनध नही ह; पर स निरपकष हमारा सख हमारी झातमा म ह - ऐसा दादाजी (ऋषभदव भगवान) क परताप स हमन समझा ह और इसी सख को. साधना चाहत ह। दखो, कितना वरागय ! यह तो पातरता समझन क लिए एक उदाहरण दिया ।

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इसपरकार धरम की योगयतावाल जीव को शरनय सब पदारथो की अपकषा आतमसवभाव का, दव-गर-धरम का विशष परम होता ह शर समयकभान सहित वह रागादि को दर करता जाता ह । वहा बीच-बीच म दान क परकार दवपजा आदि किसपरकार क होत ह - यह बताया। शरब उस दान का फल कहग।

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तझ मोकषमारगो होना ह न ? \

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अर जीव ! तम मोकषमारगी होना ह न! तो ससारमारगी | जीवो, स मोकषमारगी जीवो क लकषण सरवथा भिनन होत ह, इसलिय | परतिकलता इतयादि क समय ससारी जीवो क समान परवरतन मत \ कर; किनत मोकषमारगी धरमातमाओ की परवतति को लकषय म लकर Bad TATA TATA कर; मोकषमारग म हढ रहना मोकषमारगी |! घरमातमाशरो क जीवन को तझ आदरशरप रखना चाहिय । ||

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भाई ! जीवन म परतिकलता क छोट-बडः परसग तो शरायग \ ही, कभी मान-अपमान क परसगर परापत होग; किनत ऐस परसगो &

| क समय नितय चतनय क सवामितव और जञान-वरागय क बल स 1 ॥ मोकषमारग को सरकषित रखना। किसी को परतिकल मानकर ही # मोकषमारग स विचलित मत हो जाना; किनत म तो मोकषमारगी ह, \ wa TT Wet BY ATTA FLAT | — इसपरकार हढता स सहन- |)

\ शीलता धारण करना। ऐस परसग क समय यदि त भी साधारण +॥

ससारी जीवो क समान ही परवरतत करगा तो उनम और तर म i | अनतर क‍या रहा ? ससारी जीवो स मोकष की साधना करनवाल ||

\ जीवो क परिणामो की घारा सवथा भिनन परकार की होती ह । \

| _ - पजय vere | र

दान का फल

गराहरातसखितोषभादतितरा निरोगता जायत, शासतरातपातरनिवदितातपरभव पाणडितयमतयदभतस‌ । एततसगणशरभापरिकर:. पसोउभयात‌ दानतः qari पनरननतोननतपदपरापतिविमकतिसततः ॥१२॥

सामानयारथ :- उततम पातरो को शआराहमरदान दन स परभव म सवरगादि सख की परापति होती ह, औषधिदान स शरतिशय निरोगता गरौर सनदर रप मिलता ह, शासतरदान स शरतयनत शरदभत बिदवतता होती

ह और अमयदान स जीव को इन सब गरणो का परिवार परापत होता ह, तथा कमशः ऊची पदवी को परापत कर वह जीव सोकष परापत RATE |

शलोक १२ पर परवचन *

सरवजञकथित वसतसवरप का निरणय करक जिसन समयगदरशन परगट किया ह, उसक पशचात‌ मनिदशा की भावना होत हए भी जो महावरत अगीकार नही कर सकता, इसलिय शरावकपरमरप दशवरत का पालन करता ह - ऐस जीव को आहारदान, औषधदान, शझासतरदात, अरभय- दान - ऐस चार परकार क दान क भाव आत ह, उनका वरणन किया । अब यहा दान का फल बतलात ह :-

दखो, यह दान का फल ! शरावकधरम क मल म जो समयरदरशन ह, उस लकषय म रखकर यह बात समभनी ह! समयकतव की भमिका म दानादि शभभावो स ऐसा उतकषट पणय बघता ह कि इनदरपद, चकरवरतीपद शरादि परापत होत ह; किनत उस पणयफल म हयबदधि ह, इसलिय वह राग को छोडकर, वीतरागर होकर मोकष परापत करगा । इस गरपकषा स उपचार

8२ ] [ शरावकधरम परकाश

'करक दान क फल स आराधक जीवो को मोकष की परापति कही ह; परनत जो जीव समयगदशन परगट न कर और मातर शभराग स ही मोकष होना मानकर उनम रक जाव, वह मोकष परापत नही कर सकता, उस तो शरावकपना भी सचचा नही होता ।

दान क फलसवरप पणय स cay क सख, निरोग व रपवान शरीर, चकरवरतीपद का वभव गरादि मिल; उनम जञानी को कोई सखबदधि नही; अनतर क चतनयसख को परतीति और अनभव म लिया ह, उसक अतिरिकत अनय कही पर उस सख नही भासता |

दान क फल म किसी को ऐसी ऋदधि परगठ हो कि उसक शरीर क - सनान का पानी छिडकत ही शरनय का. रोग मिट जाव और मरचछा दर हो जाव । शासतरदान स जञान वरण का कषयोपशम होता ह और झाइचय- कारी बदधि परगट होती ह ।

दखो न! गवाल क भव म शासतरदान दकर जञान का बहमान किया तो इस भव म कनदकनदाचायदव को कसा शर‌ तजञान परगटा और कसी लबधि परापत हई ? व तो जञान क अरगाध सागर थ; उनह इस पचमकाल म

तीरथकर भगवान की साकषात‌ दिवयधवनि सनन को मिली | मगलाचरण क इलोक म महावीर भगवान शरौर गौतम गणघर क बाद “मगल कनदकनदारयो' - कहकर तीसरा नाम उनका लिया जाता ह।

दव-गर-शासतर क अनादर स जीव को तीतर पाप बघता ह और दव- गर-शासतर क बरहमान स जीव को जञानादि परगट होत ह। जिसपरकार अनाज क साथ घास तो सहज ही पकता ह; परनत चतर किसान घास क लिय बोनी नही करता, उसकी दषटि तो अनाज पर ह । इसी परकार धरमातमा को शदधता क साथ रहनवाल शभ स ऊचा पणय बघता ह और चकवरती आदि उचच पद सहज ही मिलत ह; परनत उसकी दषटि तो आतमा की शदधता क साधन पर ह, परणय अथवा उसक फल की वाजञछा उस नही । जिनह पणय क फल की बाञछा ह - ऐस मिथयाहषटि. को ऊचा पणय नही बधता; चकरबरती शरादि ऊची पदवी क योगय पषय मिथयादरशन की भमिका म नही बधघता ।

समयरदरशन रहित जीव मतिराज आदि उततम पातर को आहारदान द शरथवा अनमोदना कर तो उसक फल म वह भोगभमि म उतपनन होता ह, वहा असखय वरष की गराय होती ह और दस परकार क कलपवकष उस पणय का फल दत ह। ऋषभदव भरादि जीवो न ge म मनियो को

'दान का फल ] { 83

आराहारदान विया - इसस ब भोगभमि म जनम और वहा मनि क उपदश स समयगदरशन परापत किया था। शरयासकमार' न ऋषभदव भगवान को आाहारदान:दिया, उसकी महिमा तो परसिदध ह।

इसपरकार क भकति, पजा, आहारदान झरादि शभभाव शरावक को ' को होत ह; ऐसी ही उसकी भमिका ह। वरतमान म उसन राग की दषटि

म तो हय किया ह शरथात‌ दषटि क बल स शरलपकाल म ही चारितर परगरट 'कर - राग को सवथा दर कर वह मकति परापत करगा ।

सामनवाला जीव धरम की आराधना कर रहा हो तो उस दखकर छमी को उसक परति परमोद, बहमान शनौर भवित का भाव उललसित होता ह; कयोकि सवय को उस आराधना का तीक परम ह शररथात‌ उसक परति भकति स ( म उस पर उपकार करता ह- ऐसी बदधि स नही, परनत आदरपरवक) शासतरदान, आहारदान आदि क भाव आत ह। इस बहान वह सवय अपन रग. को घटाठता ह और आराधना की भावना को पषट

करता ह ।

दखो ! यह तो वीतरागी सतो न बसतसवरप परगट किया ह। व अतयनत निःसपह थ, उनह कोई परिगरह नही था, उनह जगत स कछ लना नही था| घरमीजीव भी निःसपह होता ह, उस भी किसी स लन की. इचछा- नही होती ह। लन की वततितो पाप ह | घरमीजीव तो दानादि दवारा राग घटाना चाहता ह । किसी धरमी को विजयष पणय स बहत वभव भी हो, उसस “उस अधिक राग ह! - ऐसा नही । राग का माप सयोग स नही ।

यहा तो धरम की निचली भमिका म (शरावकदशा म) धरम कितना हो, राग कसा हो और उसका फल कयो हो; वह बतलाया ह। वहा

जितनी वीतरागता हई ह, उतन। धरम ह और उसका फल तो आतमशानति का अनभव ह.। सवरगादि वभव मिल; वह-कोई वीतरागभावरप धरम का फल नही, वह तो राग का फल ह।

कोई जीव यहा बरहमचय पाल- और सवग म उस. अनक दविया मिल, तो क‍या बरहमचयय क फल म दविया मिली ? नही; बरहमचय म जितना राग दर हआ और वीतरागभाव हआ, उसका फल तो भरातमा म शानति हः परनत अभी वह परण बीतरा* नही हआ अरथात‌ अनक परकार क शभ शरौर अरशभ राग बाकी रह गय ह। भरभी घरमी को जो शभराग बाकी रह गया ह, उसक फल म कह कहा जायगा ? क‍या नरकादि नीच गति म

६४ ] [ शकलावकधरम परकाश

जावगा ? नही; वह तो दवलोक म ही जावगा अरथात‌ दवलोक की परापति राग का फल ह, धरम का नही ।

यहा पणय का फल बतलाकर कोई उसका लालच नही करात, परनत राग घटान का उपदश दत ह। जिसपरकार सतरी, शरीर आदि क लिए अशभभाव स शकति-परनसार उतसाहपरवक खरच करता ह, वहा अनय को यह कहना नही पडता कि त इतना खरच कर | इसीपरकार जिस घरम का परम ह; वह जीव सवपर रणा स दव-गछ-धरम की भकति, पातरदान आदि म बारमबार अपनी लकषमी का उपयोग करता ह - इसम वह किसी क कहन की राह नही दखता । राग तो अपन लिए घटाना ह न? किसी अनय लिए राग नही घटाना ह; इसलिए धरमीजीव चतविध दान दवारा

अपन राग को घटाव - ऐसा उपदश ह ।

अनक परकार क परारमभ और पाप स भर हय गहसथाशरम म षाप स बचन क लिए दान मखय कारय ह; उसका उपदश आराग की छह गाथाओ म करग।

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ES झलौकिक शरावकदशा

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आतमा क धरम को जो साधता ह, महिसापरवक वीतरागभाव म जो ( आग बढता ह और तोब राग घटन स जिस शरावकपना हआ ह - i sa Mas F ala Ha Fla 2, Gast ag ata se | aatfata w # दव की अरपकषा जिसकी पदवी ऊचो ह ओर सवरग क इनदर की शरपकषा | जिस आतमसल अधिक ह - ऐसी अलोकिक शरावकदशा ह! वह शआावक भो हसशा दान करता ह। मातर लकषमी की लोलपता म, (६ पापभाव म जीवन बिता द शरौर झरातमा को कोई जिजञासा व कर - ऐसा जीवन धरमी का अथवा जिजञास का नही होता 1

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(१३)

गहसथ दान क‍यो कर ? कतवाषकारयशतानि पापबहलानयाशरितय खद aX आनतवा बारिधिमखला वसमती दःखन यचचाजितस‌ । ततपतरादपि जीवितादपि धरन परियोषसय पनया शभो दान तन चर दोयतामिदमहो नानयन ततसगतिः ॥१३॥

सामनयारथ :- जो धन पाप स भर हए सकडो wa करक aga, Tat WI PATA VAT RH aa WAG WH क कषट स महालद भोगकर बहत दःख स परापत किया जाता ह; वह धन जीवो को छपन पतर शरोर जीवन को अपकषा भो अधिक पयारा ह। ऐस धन का उपयोग करन का उततम मारग एक दान ही ह; इसक सिवाय धन खरच करन का कोई उततम मारग नहो।

शलोक १३ पर परवचन

यहा गहसथ को दान की परधानता का उपदश दत ह। आराचायदव कहत" ह कि शरहो, भवयजीवो ! तम ऐसा दान करो।

दखो ! आजकल तो जीवो को पसा कमान क लिए कितना पाप करना और भठ बोलना पडता ह ? समदरपार क दश म जाकर अनक परकार क अपमान सहन कर, 'सरकार पसा छ छगी' - इस भय स ही दिन-रात भयभीत रहा कर - इसपरकार पस क लिए कितना कषट सहन करता ह और कितन पाप करता ह ? इसक लिए अपना बहमलय जीवन भी नषट कर दता ह, पतरादि का भी वियोग सहन करता ह!

इसपरकार वह जीवन की अपकषा रौर पतर की शरपकषा घन को पयारा गरिनता ह, तो आचारयदव कहत ह कि भाई ! ऐसा पयारा घन,

&& ] [ शरावकधरम परकाश

जिसक लिय तन कितन ही पाप किय; उस धत का सचचा - उततम उपयोग कया ? - इसका विचार कर। सतरी-पतर क लिए अथवा विषयभोगो क लिए त जितना घन खरच करगा, उसम FT TR उलटा पापबनध होगा; इसलिए लकषमी की सचची गति यह ह कि राग घटाकर दव-गर-धरम की परभावना, पजा-भकति, शासतरपरचार, दवात शरादि उततम कारयो म उसका उपयोग करना ।

परशत :- कया बचचो क लिए कछ न रखना ?

उततर :- भाई यदि तस.पतर सपतर और पणयवत होगा तो वह तमस सवाया धन परापत करगा और यदि बह पतर कपतर होगा तो तरी इकटठी की हई सारी लकषमी को भोगविलास म नषट कर दगा और पाप- म उपयोग करक तर धन को धल कर डालगा, तो फिर तभ किसक लिय

धनसचय.करना ह ? पतर का नाम छकर त अपन लोभ का पोषण

करना हो तो अलग बात ह। अनयतर कहा ह : -

qa aqa at wat धन सचय ? qa sya al att aa aa ?

अतः ह जीव ! लोभादि पाप क कए' म स तरी आतमा का रकषण

हो - ऐसा कर; लकषमी क रकषण की ममता छोड और दानादि दवारा तरी

तषणा को घटा । बीतरागी सतो को तो तर पाप स कछ नही चाहिए;

परनत जिस परण राग रहित सवभाव की रचि उतपनन हई ह वीतराग-

सवभाव की तरफ जिसका परिणमन होन लगा, उसको राग घट बिना

नही रहता । किसी क कहन स नही, परनत अपन सहज परिणाम स ही

AA HY WT घट जाता ह| घरमी गहसथ को कस विचार होत ह? - इस समबनध म समनतभदर

रवामी न रतनकरणड शरावकाचार म कहा ह :-

यदि पापनिरोधोडनयसमपदा कि परयोजनस‌ । शरथ पापासरवोउततयनयसमपदा कि परयोजनम‌ ॥२७॥

यदि मर पाप का भराखव रक गया ह तो उसस मझ, मर सवरप की समपदा परापत होगी; वहा अवय समपदा. का सभ क‍या काम? और

यदि मम पाप का आखव हो रहा ह तो Re} Bega a AS कया लाभ

ह? जिस समपदा क मिलन स पाप.बढता हो और सवरप की समपदा लटती हो - ऐसी समपदा किस काम की ?

गहसथ दान क‍यो कर ? ] [ ६७

इसपरकार दोनो तरह स समपदा का असारपना जानकर घरमी उसका मोह छोडता ह । जो मातर लकषमी की लोलपता क पापभाव म जीवन बिता द और आतमा की कोई जिजञासा न कर - ऐसा जीवन घरमी का अरथवा जिजञास का नही होता | अरहो ! जिस सरवजञ की महिमा आयी ह, जो शरनतह षटि स आतमा क सवभाव को साधत ह, महिमापरवक वीतरागमारग म शराग बढत ह शरौर जिस तीनर राग घटन स शरावकपना परगट हआ ह - ऐस शरावक क भाव कस हो, उसकी यह बात ह ।

सवारथसिदधि क दव की अपकषा जिसकी पदवी ऊची ह, सवरग क इनदर की अपकषा जिसका आतमसख अधिक ह - ऐसी शरावकदशा ह । जिस सवभाव क सामरथय का भान ह, जो विभाव की विपरीतता समभता ह और पर को पथक‌ दखता ह - ऐसा शरावक राग क तयाग दवारा अपन म परतिकषण शदधता का दान करता ह और बाहर म अनय को भी रतनतरय क निमिततरप शासतर आदि का दान दता ह।

अहो ! ऐसा मनषयभव परापत करक झरातमा की जिजञासा एव उसक जञान की कीमत आनी चाहिय | शरावक को सवाधयाय, दान आदि शभ- भाव विशषरप स होत ह । जिस जञान का रस हो - पर म हो, वह हमशा सवाधयाय कर; नय-नय शासतरो क सवाधयाय करन स जञान की निरमलता बढती जाती ह, उस नय-नय वीतरागभाव परगट होत जात ह । 'अपरव तततव क शरवण और सवाधयाय करन स उस एसा लगता ह कि अहो ! आज मरा दिन सफल हआ। छह परकार क शअरनतरग तपो म धयान क

पशचात‌ दसरा नमबर सवाधयाय का कहा ह। शरावक को सब पकषो का विवक होता ह। वह सवाधयाय आदि की

तरह दवपजा आदि कारयो म भो भकतिभाव स वरतता ह। शरावक को भगवान सबजञदव क परति परमपरीति होती ह, यह तो उसका इषट धयय ह। इसपरकार जीवन म यह भगवान को ही इचछा रखता ह। चलत- फिरत परतयक पसग म उस भगवान याद आत ह ।

ag नदी क झरन की कल-कल अरवाज सनकर कहता ह कि ह sat ! आपन पथवी का तयाग कर दीकषा ली - इसकारण अनाथ हई यह पथवी कलरव करती हई विलाप करती ह और यह उसक आसझो का परवाह ह ।

वह आकाश म सय-चनदर को दखकर कहता ह कि ह परभो ! आपन शबलधयान दवारा घातिया करमो को जब भसम किया, तब उसक सफलिग

es ] [ शरावकधरम परकाश

आराकाश म उड; व सफलिग ही इन सरय-चनदर क रप म उडत दिखाई द रह ह। धयान अरगति म भसम होकर उडत हए करम क समह बादलो क रप म शरभी भी जहा-तहा घम रह ह ।

ऐसी उपमाओ IMT Maw भगवान क शकलधयान को याद करता ह और सवय भी उसकी भावना भाता ह। धयान की अगनि वरागय .

की हवा स परजवलित हो गई और उसस करम भसम हो गय, उसम सरय-चनदररपी सफलिग उड । धयानसथ भगवातर क बाल हवा म Ge me

उडत दखकर कहता ह कि य बाल नही; य तो भगवान क अनतर म

धयान दवारा जो करम जल रह ह, उनका धआ उड रहा ह। इसपरकार उस सरवजञदव को पहिचान कर उनको भकत का रग लगा ह ।

इसक साथ गर की उपासना, शासतर का सवाधयाय आरादि भी होता ह। शासतर तो कहत ह कि अर !| कान दवारा जिसन वीतरागी सिदधानत का शरवण नही किया और मन म उसका चिनतवन नही किया, उस कान और मन मिलना न मिलन क बराबर ही ह। आरातमा की जिजञासा नही कर तो कान और मन दोनो गमाकर एकनदरिय म चला जायगा | कान की सफलता इसम ह कि धरम का शरवण कर, मन की सफलता इसम ह कि आतमिक गणो का चितन कर और घन की सफलता इसम ह कि सतपातर क दान म उसका उपयोग हो ।

भाई ! अनक परकार क पाप करक तन धन इकटठा किया तो अब परिणामो को पलटकर उसका ऐसा उपयोग कर कि जिसस तर पाप धल और तम उततम पणय बध । इसका उपयोग तो धरम क बहमानपरवक सतपातर दान करना ही ह ।

लोगो को यह घन जीवन स और पतर स भी पयारा होता ह; परनत घरमी शरावक को धन की अपकषा धरम पयारा ह, इसलिए उस धरम क लिए घन खचन म उललास शराता ह; इसलिए शरावक क घर म अनक परकार दान क कारय निरनतर चला करत ह। घरम और दान रहित घर को तो इमशानतलय गिनकर कहत ह कि ta Teste si गहर पानी म जाकर सवाहा कर दवा । जो एकमातर पापबनध का ही कारण हो - ऐस गहवास को त तिलाजलि दना, पानी म डबो दना !

अर ! बीतरागी सनत इस दान का गजार करत ह, उस. सनकर किन भवयजीवो क हदयकमल न खिल उठ ? किस उतसाह नही झराव ? अमर क गजार स और चनदरमा क उदय स कमल को कली तो खिल

गहसथ दान कयो कर ? ] [ ee

उठती ह, पतथर नही खिलता ह उसीपरकार इस उपदशरपी गजार को सनकर धरम की रचिवाल जीव का हदय तो खिल उठता ह कि बाह ! दव-गर-घरम की सवा का अवसर शराया। मरा भागय ह जो मझ दव-गर का काम मिला | इसपरकार उललसित होता ह ।

शासतर म कहत ह कि शकतिपरमाण दान करना। तर पास एक रपय की पजी हो तो उसम स एक पसा दात करना; परनत दान अवशय करना, लोभ घटान का अभयास अवशय करना ! लाखो करोडो की पजी हो, तभी दान दिया जा सक शरौर शरोछठी प जी हो, उसम दान नही दिया जा सक - ऐसा कछ नही ह| सवय क लोभ घटान की बात ह, इसम कोई पजी की मातरा नही दखना ह।

उततम शरावक कमाई का चौथा भाग धरम म खरच कर, मधयमपन छठवा भाग खरच कर और कम स कभ दसवा अश खरच कर -- ऐसा उपदश ह | चनदरकानतमणि की सफलता कब ? कि चनदरमा क सयोग स उसम पानी करन लग तब; उसीपरकार लकषमी की सफलता कब ? कि सतयातर क परति वह दान म खरच हो तब | धरमी को ऐसा भाव होता ही ह, परनत उदाहरण स शरनय जीवो को समभात ह .।

ससार म लोभी जीव धनपरापति क लिए कस-कस पाप करत ह ? लकषमी तो पणयानसार मिलती ह; परनत उसकी परापति क लिए बहत-स जीव भठ-चो री आदि अनक परकार क पापभाव करत ह। कदाचित‌ कोई जीव ऐस भाव न कर और परामाणिकता स वयापार कर तो भी लकषमी परापत करन का भाव तो पाप ही ह।

यह बतलाकर यहा ऐसा कहत ह कि भाई ! जिस लकषमी क लिए त इतन-इतन पाप करता ह और जो लकषमी तझ पतरादि की अपकषा भी अधिक पयारी ह, उस लकषमी का उततम उपयोग यही ह कि उस सतपानर दान आदि धममकारयो म खरच; सतपातर दान म खरचो गई लकषमी असखयगणी होकर फलगी |

एक आदमी चार-पाच हजार रपय क नय नोट लाया और घर आकर सतरी को दिय। उस सतरी न उनह चलह क पास रख दिया और अनय काम स जरा दर चली गई | उसका छोटा लडका पीछ सिगडी क पास बठा था। सरदी क दिन थ । लडक न नोट की गडडी उठाकर सिगडी म डाल दी | अगनि भडक गई और वह तापन लगा। इतन म मा आई। लडका कहन लगा - मा, दख ! मन सिगडी कसी कर दी दखत ही मा समझ गई

१०० ] [ शरावकधरम परकाश

कि भर ! इसन तो पाच हजार रपयो की राख कर दी | उस ऐसा करोध चढा कि उसन लडक को इतना अशरधिक सारा कि लडका मर गया। दखो ! पतर की अपकषा घन कितना पयारा ह ! !

दसरी भी एक घटना ह :- एक गवालिन दध बचकर, उसक तीन रपय लकर अपन गाव जा रही थी | अकाल क दिन थ। रासत म लटर मिल । गवालिन को डर लगा कि य लोग मर रपय छीन लग, इसलिए वह तीन कलदार रपय पट म निगल गई; परनत लटरो न वह दख लिया और गवालिन को सारकर उसक पट म स रपय निकाल लिय।

दखो, यह ऋरता ! ऐस जीव दौडकर नरक म न जाव तो अनय कहा जाव ? ऐस तीतर पाप क परिणाम जिजञास को नही होत ।

बहत-स लोगो को तो लकषमी कमान को धन म अचछी तरह खान का समय भी नही मिलता; दश छोडकर अनाय की तरह परदश म जात ह, जहा भगवान क दरशन भी न मिल, सतसग भी न मिल । अर भाई ! जिसक लिए तन इतना किया, उस लकषमी का कछ तो सदपयोग कर !

पचास-साठ वरष ससार की मजदरी कर-कर क मरन बठा हो; फिर भी यदि मरत-मरत oa AST म बच जाय और खटिया म स उठ तो भी पनः उनही पापकारयो म सलगन हो जाता ह; परनत ऐसा नही विचारता कि अर ! समसत जिनदगी घन कमान म गवा दी और मफत म पाप बाधा और फिर गरह धन तो कोई साथ जायगा नही, इसलिए राग घटाकर अपन हाथ स ही इसका कोई सदपयोग कर और जीवन म आतमा का कछ हित हो - ऐसा उदयम कर |

दव-गर-धरम का उतसाह, सतपातर दान, तीरथयातरा आदि म राग घटा- कर लकषमी का उपयोग करगा तो तझ भी शरनतरग म ऐसा सतोष होगा कि आतमा क हित क लिए मन कछ किया ह। अनयथा मातर पाप म ही जीवन बिताया तो तरी लकषमी भी निषफल जायगी और मरण समय त पछतावगा कि अर ! जीवन म आतमहित क लिए कछ नही किया और अशानतरप स दह छोडकर कौन जान कहा जाकर पदा होगा ? इसलिए ह भाई ! छठव स सातव गणसथान म भलत मनिराज न करणा करक तर हित क लिए इस शरावकधरम का उपदश दिया ह।

तर पास चाह जितना धन का समह हो; परनत उसम स तरा कितना ? त दान म खरच कर, उतना तरा। राग घटाकर दानादि सत‌-

गहसथ दान क‍यो कर ? ] [ १०१

कारय म खरच हो, उतना ही धन सफल ह। बारमबार सतपातर दान क परसग स, मनिवरो धरमातमाओ आदि क परति बहमान, विनय, भकति स तझ धरम क ससकार बन रहग और य ससकार परभव म भी साथ चलग, लकषमी कोई परभव म साथ नही चलती । इसलिए कहत ह कि ससार क कारयोदम (विवाह,भोगोपभोग आदि म) त लोभ करता हो तो भछ कर; परनत धरमकारयो म त लोभ मत कर, वहा तो उतसाहपरवक-वरतन करना ।

जो अपन को धरमी शरावक कहलवाता ह; परनत घरमपरसग म उतस।ह तो' शराता नही, धरम क लिए धन आदि का लोभ भी घटा नही सकता तो आचायदव! कहत ह कि वह व।सतव म धरमी नही; परनत दभी ह, धरमीपन का वह सिरफ दभ करता ह । धरम का जिस वासतव म रग लगा हो, उस तो धरमपरसग म उतसाह शराव ही और धरम क निमिततो म जितना घन खरच हो, उतना सफल ह - ऐसा समभकर दान आदि म वह उतसाह स वरतता ह ।

इसपरकार दान की बात की ।

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धरमातमा को शदधता क साथ रहनवाल शभभाव स ऊचा \

पणय, बघता ह, परनत उसकी दषटि तो आतमा की छदधता को

साधन पर ह । जो जीव समयगदरशन परगट नही कर और मातर \

शभराग स A Mat AAT AAHT VaR AEHT रह, वह तो \ मोकष परापत नही कर सकता, उस तो शरावकपना भी सचचा नही होता 1, कोई जीव घरम की आराधना कर रहा हो तो उस | दखकर धरमी को उसक परति परमोद आता ह, कयोकि उस सवय (

को आराधना का तीकन परम ह। |

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“ पजय शरी कानजी सवामी \

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धन का उपयोग कस कर?

पातराशामपयोगियतकिल ut aq daat aad

यनाननतगरण ata aad वयावतत ततपनः । again गत पनरधनवतः तनन‍नषटमव a सरवासामिति समपदा गहवता दान परधान फलम‌ ॥१५॥

सामान‍यारथ :- जो धन पातरो क उपयोग म शराता ह, उसी को बदधिमान सनषय शरषठ मानत ह, कयोकि वह अरनमतगरणा सख को दनवाला होकर परलोक म फिर स भी परापत हो जाता ह। इसक बविपरोत आराचररा करनवाल धनवानो का धन मोग क fafa a ave होता ह, वह वासतव म नषट हो हो जाता ह शररथात‌ दानजनित पणय क अभाव म बह फिर कभी नही परापत होता। शरतः गहसथो को समसत समपततियो क लाभ का उतकषट फल दान म ही परापत होता ह।

शलोक १५ पर परवचन

गहसथ का जो घन पाजदान म खरच हो, वही सफल ह - ऐसा कहकर दान की पररणा दत ह ।

दखो ! जो ऐसा समझ, उसक पापपरिणाम कितन कम हो जाव, पणयपरिणाम कितन बढ जाव और फिर भी धरम तो. इनस भी भिनन तीसरी ही वसत ह। भाई ! पाप और पणय क बीच म विवक करना चाहिय | ससार क भोगादि क लिए वयवसाय करना, वह तो पापबनध का कारण ह और धरमपरसग म धरमातमा क बहमान आदि क लिए वयवसाय करना, वह पणय का कारण ह और उसक फलसवरप परलोक म पणय समपदा भी मिलगी; परनत धरमातमा तो इस समपदा को भी छोडकर, मनि

दान स लाभ ] [ १०३

चरणन म शराता ह । ऐसी दषटिपवक घरमी को राग की बहत मदता होती ह । राग रहित सवभाव दषटि म ल और राग घट नही - ऐसा कस बन ?

यहा कहत ह कि जिस दानादि शभभाव का भी पता नही, मातर पापभाव म ही पडा ह; उसकी तो इस लोक म भी शोभा नही और परलोक म भी उस उततम गति नही मिलती । पाप स बचन क लिए सतपरातर दान ही say art ft मनिवरो को तो परिगरह ही नही, उनको तो अशभ परिणति छट गई ह और बहत आतमरमणता वरतती ह, उनकी तो कया बात ? यहा तो गहसथ क लिए उपदश ह । जिसम अनक परकार क पाप क परसग ह - ऐस गहसथपन म पाप स बचन क लिए पजा-दान-सवाधयाय आदि कततबय ह ।

तीतर लोभी पराणी को समबोधन करक शरी कारतिकय सवामी तो गाथा १२ म यहा तक कहत ह कि अर जीव ! यह लकषमी चचल ह, त इसकी ममता छोड । त तीतर लोभ स दव-गर-शासतर क शभ कारयो म तो लकषमी खरच नही करता, कम स कम दह क लिए तो खरच कर - इतनी तो ममता घटा। इसपरकार भी यदि लकषमी की ममता घटाना सीखगा तो कभी शभ कारयो म भी लोभ घटान का परसग आवगा ।

यहा तो धरम क निमिततो, क परति. उललासभाव स जो दानादि होता ह, उसकी ही मखय बात ह। जिस धरम का लकषय नही ह और कछ मद राग स दानादि करता ह, उस तो साधारण पणय बधता ह; परनत यहा तो धरम क लकषय सहितवाल पणय की मखयता ह शररथात‌ अधिकार क परारमभ म ही अरहनतदव की पहिचान की ह ।

. शासतर म तो जिससमय जो परकरण चलता हो, उससमय उसका ही. विसतार स वरणन होता ह, बरहमचरय क समय बरहमचय का वरणन होता ह शरौर दान क समय दान का वरणन होता ह; परनत मलभत सिदधानत को लकषय म रखकर परतयक कथन का भाव समभना चाहिए ।

जिसक पास अधिक धन हो, उस लोग धनवान कहत ह। परनत शासतरकार कहत ह कि जो लोभी ह; उसक पास चाह जितना घन पडा हो तो भी वह घनवान नही, परनत रक ह; कयोकि जो धन उदारतापरवक सतकाय म ख करन क काम न आव, अपन हित क काम न Ta, ATT पापबनध का ही कारण हो; वह धन किस काम का ? और ऐस धन स घनवानपना कौन मान ? सचचा धनवान तो वह ह कि जो उदारतापरवक अपनी लकषमी को दान म खरच करता हो | भल लकषमी थोडी हो; परनत

१०४ ] [ शरावकधमपरकाश

जिसका हदय उदार ह, वह धनवान ह और लकषमी का ढर होत हए भी जिसका हदय ओछा ह - कजस ह, वह दरिदरी ह। एक कहावत ह कि :-

रण चढा रजपत छप नही। दाता छप नही घर मागन शराय ॥॥

जिसपरकार यदध म तलवार चलान का परसग आवब तो वहा राजपत की शरवीरता छिपी नही रहती, वह घर क कोन म चपचाप नही बठता, उसका शौय उछल जाता ह; उसीपरकार जहा दान का परसग आता ह, वहा उदार हदय क मनषय का हदय छिपा नही रहता । धरम क परसग म परभावना आदि क लिए दान करन का परसग आव, वहा धरम क परमी जीव का हदय भनभनाहट करता उदासता स उछल जाता ह। वह बचत का बहाना नही ढढता अथवा उस बार-बार कहना नही पडता;

परनत वह अपन उतसाह स ही दान आदि करता ह कि अहो ! ऐस उततम

कारय क लिए जितना दान कर, उतना कम ह। मरी जो लकषमी ऐस कारय म खरच हो, वह सफल ह। इसपरकार शरावक दान दवारा अपन गहसथपन को शोभित करता ह। शासतरकार अब इस बात का विशष उपदश दत ह ।

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| \ जञानभावना ।

\ ससार म जब हजारो परकार को परतिकलता एक साथ aT H || पड , कही साग न सक; उससमय उपाय कया ? उपाय एक ही कि i धरयपवक जञानभावना भागा ।

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जञानभावना कषणमातर म सब परकार की उदासी को नषट कर £

\ हितमारग सकाती ह, शानति दती ह, कोई भरलौकिक धरय और

\ अचितय शकति दती ह । | \ गहसथ शरावक को भी 'जञानभावना' होती ह । '

| - पजय शरी कानजी सवामो \

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दाननव गरहसथता गणवतती लोकदवयोदयोतिका

सव सथान‍तन तददिना धनवतो लोकदबयधवसकत । दरवयापारशतषघ सतस fem: ad aged तननाशाय शशाकशभरयशस दान व नानयतपरम‌ ॥१४॥।

सासान‍यारथ :- धनवान सलनषयो का गहसथपना दान करन पर ही लाभदायक ह तथा दान करन स इस लोक और परलोक दोनो का उदयोत होता ह। दान रहित गहसथपना तो दोनो लोको का धवस करनवाला ह | गहसथ को सकडो परकार क दरवयापार स जो पाप होता ह, उसका नाश दान स ही होता ह शरौर दान करन स चनदर समान उजजवल यश परापत होता ह! इसपरकार पाप का नाश और यश की परापति क लिए TA BL सतपातर दान क अलावा शरनय कोई मारग नही ह; इसलिए झपना हित चाहनवाल गहसथो को दान स अपना गहसथपना सफल करना चाहिए ।

शलोक १४ पर परवचन

शरावक क नितपरति क जो छह करतगय ह, उनम स यहा दान का बरणन चल रहा ह।

दव-गर-शासतर क परति उललास क दवारा Fae HT MIT FT उललास कम होता ह, तब. वहा दानादि क घभभाव शरात ह; इसलिए 'गहसथ को पाप घटाकर शभभाव करना: चाहिय' - ऐसा उपदश ह। त शभभाव कर - ऐसा उपदश वयवहार म होता ह; परमारथ स तो राग का कतत तव आतमा क सवभाव म नही ह, राग क अश का भी कतततव मान अथवा Ga aera मान तो मिथयादषटि ह - ऐसा शदधईषटि क

१०६ ] . | शरावकधरम परकाश

होकर, राग रहित कवलजञान को शाधकर मोकष परापत करगा | इसपरकार धरमीजीव तीनो का विवक करक जबतक मनिदशा न हो सक, तबतक गहसथ अवसथा म पाप स बचकर दानादि शभकारयो म परवतता ह ।

शरी पदमननदी सवामी न दान का विशष कथन दानोपदशन नाम क

gar अधिकार म किया ह। भाई ! सतरो आदि क लिए त जो धन खचच करता ह, पतर-पतरी क लगन आदि म पागल होकर घन खरच करता ह;

वह तो वयरथ ह; वयरथ ही नही, परनत उलट पाप का कारण ह। उसक बदल ह भाई ! जिनमनदिर क लिए, वीतरागी शासतरो क लिए तथा

धरमातमा शरावक साधरमी आरादि सपातरो क लिए तरी जो लकषमी खरच हो, वही धनय ह ।

लकषमी तो जड ह; परनत उसक दान का जो भाव ह, वह धनय ह - ऐसा समभना; कयोकि aaa म जो लकषमी खरच हई, उसका फल अननतगना आवगा । इसकी हषटि म धरम की परभावना का भाव ह अरथात‌ गराराधकभाव स पणय का रस अरननतगना बढ जाता ह। नव परकार क दव कह ह :- पच परमषठी, जिनमनदिर, जिनबिमब, जिनवाणी और जिनधम - इन नव परकार क दवो क परति धरमी को भकति का उललास ala ह ।

जो जीव पापकारयो म तो उतसाह स घन खरच करता ह और धरमकारयो म कजसी करता ह तो उस जीव को धरम का सचचा परम नही,

उस धरम की शरपकषा ससार का परम गरधिक ह । धरम क परमवाला years अपनी लकषमी को ससार की अपकषा घरमकारयो म गरघिक उतसाह स खरच करता ह |

अर ! चतनय को साधन क लिए जहा सरवसगपरितयागी मनि होन की भावना हो, वहा लकषमी का मोह न घट - यह कस बन ? लकषमी म भोगो म अरथवा शरीर म धरमी को सखबदधि नही होती । आतमीय सख जिसन दखा ह अरथात‌ विषयसखो की तषणा जिस नषट हो गई ह; वह जिसम सख नही, उसकी भावना कस कर? इसपरकार घरमातमा क परिणाम अतयनत कोमल होत ह, तीतर पापभाव उस नही होत ।

लोभियो क हत कौव का उदाहरण शासतरकार न दिया ह। रसोई की जली हई खरचन मिल, वहा कौवा काव-काव करता रहता ह । वहा HAM स आचारय बतलात ह कि अर ! यह कौवा भी काव-काव करता

घन का उपयोग कस कर ? ] [ १०७

हआ अनय कौवो को इकटठा करक खाता ह और त ? राग दवारा तर गण जल, तब पणय बधा और उसक फल म यह लकषमी मिली; इस तर गण क जल हए खरचन को यदि त अकला-अरकला खाव और साधरमी-परम वरगरह म उसका उपयोग -न कर तो क‍या त कौव स भी गया-बीता हो गया ? अतः ह भाई ! पातरदान की महिमा जानकर त तरी लकषमी का सदपयोग कर ।

परदमनकमार न परवभव म औौषधिदान किया था, उसस उस कामदव जसा रप तथा गरनक ऋदधिया मिली थी । लकषमण की पटरानी विशलयादवी न परवभव म एक अजगर को करणाभाव स गरभयदान किया, उसस उस ऐसी ऋदधि मिली थी कि उसक सतान क पानी स लकषमण आदि की मरचछा उतर गई । बजजजघ और शरीमती की बात भी परसिदध ह; व आराहरदान स भोगशभमि म उतपनन हए और वहा मनिराज क उपदश स उनहोन समयगदशन पाथा था; उनक आहारदान म अनमोदन करनवाल चारो जीव (सिह, बनदर, नवला शरौर सअर) भी भोगभमि म उनक साथ ही जनम गरौर समयगदरशन परापत किया। यदयपि समयगदशन कोई परव क शभराग का कछ फल नही ह; परनत समयगदशन हआरा; इस लिए परव

क राग को परमपराकारण भी कहन म आता ह - ऐसी उपचार की

पदधति ह । दव-गरर-धरम क परसग म बारमबार दान करन स तर घरम क ससकार ताज रहा करग और धरम की रचि का बारमबार चिनतन होन स तझ आग बढत का कारण बनगा।

धरम क परम सहित जो दानादि का भाव हआ, वह 'पव म गरनन‍तकाल म नही हआ - ऐसा अपरव ह और उसक फल म जो शरीर आदि मिलग, व भी परपरव ह; कयोकि आराधकभाव सहित पणय जिसम निरमितत हो - ऐसा शरीर भी पहल अजञानदशा म कभी नही मिला था| जीव क भावो म अपरवता होन पर सयोगो म भी अरपवता हो गई। सतपातर दान क परसग स अनतर म सवय की परीति पषट होतो ह, उसकी मखयता ह; उसक साथ का राग और पणय भो भिन‍न परकार का होता ह ।

इसबरकार दान का उततम फल जानता ।

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ga राजयमशषमथिषच धन दततवाइभय परारिषष परापता नितयसखासपद सतपसा मोकष परा पाथिवा: । मोकषसयापि भरवतततः परथमतो दान निदान ge: शकतया दयभिद सदातिचपल दरवय तथा जीवित ॥१६॥

सामानयारथ :- यह जीवन और धन दोनो अतयत कषणभगर ह - ऐसा जानकर चतर परष को सदा शकति-अरनतार दान करना चाहिय; कयोकि मोकष का परथम कारश दान ह। पवव म अरनक राजाओ न याचक- जनो को धन दकर, सब पराणियो को अरमय दकर और पतर को समसत राजय दकर, ससयक‌ तप दवारा नितय सखासपद भोकष पाया ।

इलोक १६ पर परवचन

दखिय ! यहा ऐसा बतलात ह कि दान क फल म धरमीजीव को राजय-समपदा वगरह मिल, उसभ वह सख मानकर मचछित नही होता; परनत दानादि दवारा उसका तयाग करक मनि होकर मोकष को साधन

' चला जाता ह ।

जिसपरकार चतर किसान बीज की रकषा करक बाकी का ATT भोगता ह शरौर बीज बोता ह, उसक हजारोगरन दान पकत ह; उसीपरकार धरमीजीव पषयफलरप लकषमी वगरह वभव का उपभोग धरम की रकषापरवक करता ह और दानादि सतकारयो म लगाता ह, जिसस उसका फल बढता जाता ह और भविषय म तीरथकरदव का समवसरण तथा गणधरादि सत धरमातमाओ का योग वगरह धरम क उततम-निमितत मिलत ह। वहा आरा भसवरप को साधकर, बाहमपरिगरह छोडकर, मनि होकर, कवल-

जञानरप अननत गरातमवभव को परापत करता ह।

दान: मोकष का परथम कारण ] [ १०६

पणय क निषध की भमिका म (शररथात‌ वीतरागभाव को साधत- साधत) जञानी को अननतगना पणय बघता ह 1 पणय की रचिवाल अजञानी को जो पणय बध; उसस पषय का निषध करनवाल जञानी की भमिका म a wa fe, ae शरलौकिक होता ह । जिसस तीथथकरपद मिल, चकरवरतीपद fad, बलदवपद मिल - ऐसा पथय झाराधक जीव को ही होता ह; राग की रचिवाल विराघक को ऐसा पणय नही बचघता तथा जब उस पणय का फल आय, तब भी जञानी उन सयोगो को शरपशन व - कषणभगर

बिजली जस चपल जोनकर उनका तयाग करता ह और शर व ऐस सखधाम आतमा को साधन हत सरवसगतयागी मनि होता ह शौर मोकष को साधता ह।

पहल स ही दान की भावना दवारा राग घटाया था, उसस आग बढत-बढत सरवसग छोडकर मनि होता ह | पहल स ही - गहसथपन म ही दानादि दवारा थोडा भी राग घटात जिसस नही बनता, राग रहित सवभाव कया ह, इस लकषय म भी जो नही लता; वह सव राग को छोडकर मनिपना कहा स लगा ? - इस Bde a मोकष का परथम कारण दान कहा गया ह।

जञानी जानता ह कि एक तो लकषमी इतयादि बाहयसयोग म मरा सख जरा भी नही ह, फिर व सयोग कषणभगर भी ह और उनका ATA जाना तो परव क पणय-पाप क आधीन ह। पणय हो तो दान म खरच करन पर भी लकषमी समापत नही होती और पणय समापत हो तो लाख उपाय दवारा भी वह नही रहती - ऐसा जानत हए वह महापरष धन वगरह छोडकर मनि होता ह तथा सरव परिगरह छोडकर मनिपना न छ सक, तबतक उसका उपयोग दानादि म करता ह। इसपरकार तयाग अथवा दान - य दो ही लकषमी क उपयोग क उततम मारग ह ।

शजञानी तो परिगरह म सख मानन स उसकी ममता करक उस साथ म ही रखना चाहता ह। जितना बढ परिगरह, उतना बढ सख - ऐसी अजञानी की अमणा ह। जञानी जानता ह कि जितना परिगरह छट, उतना सख ह। मातर बाहमतयाग की बात नही; अनदर का मोह छट, तब परिगरह gar ee Fata zt

अरहा ! चतनय का आननदनिधान जिसन दखा, उस राग क फलरप बाहय वभव तो तणतलय लगता ह। किसी सतति म सवामी पदमनदी कहत ह कि अहो नाथ ; दिवयधवनि दवारा आपन आतमा क अगरचिततय निधान को सपषटरप स बताया, तो अब इस जगत म ऐसा कौन

११० ] ° [ शरावकरधरम परकाश

ह कि इस निघान क खातिर राजपाट क निधान को तण समान समझकर न तयाग और चतनयनिधान को न साथ ?

दखो तो ! बाहबली जस बलवान योदधा राजसमपदा छोडकर इस- परकार चल गय कि पीछ फिरकर भी नही दखा कि राजय का क‍या हाल ह ? चतनय की साधना म अडिगरप स ऐस लीन हय कि खड-खड ही कवलजञान परापत कर लिया। शातिनाथ कनथनाथ, अरनाथ जस तीरथकर चकरतरती भरत चकरवरती, एव पाणडव शरादि महाषरष भी कषणमातर म राजय-

वभव छोडकर मनि हए; उनह जीवन म परारमभ स ही भिन‍नता की भावना का घोलन था । व राग और राजय स पहल ही स शरलिपत थ; इसलिए कषणभर म ही जिसपरकार सरप skal उतारता ह, उपतीपरकार व राजय और राग दोनो को छोडकर मनि हए और सवरप की साधना की। भरजञानी को तो साधारण परिगरह की ममता छोडनी भी कठिन पडती ह चकरवरती की समपदा की तो क‍या बात ? परनत उनहोन चतनयसख क सामन उस भी तचछ समभकर एक कषण म छोड दी ।

इसलिए कवि कहत ह कि :- छवानव हजार नार छिनक म दोनी छार, गर मन! ता निहार काह त डरत ह? छहो खणड की विभति छाडत a ae agi, चम‌ चतरगन सो नह aaa gu नौ तिधान शरादि ज चोदह रतन तयाग, दह सती नह तोड बन बिचरत ह। ऐसी विभौ तयागत विलमब जिन कीनहो नाहो,

तर कहो कती निधि ? सोच कयो करत ह ? अर ! लकषमी और जीवन गतयनत ही असथिर ह, उनका कया भरोसा ?

लकषमी का दसरा ATA “ATA कहा ह; क‍योकि वह इनदरधनष Tay Wey ह, कषणम गर ह । लकषमी कब चली जावगी ओर जीवन कब समापत हो जावगा - इसका कोई भरोसा नही । कल का करोडपति अथवा राजा महाराजा आज भिखारी बन जाता ह। आज का निरोगो दसर कषण मर जाता ह। सबह जिसका राजयाभिषक हआ, सधया समय उसकी ही चिता दखन म शर। जाती ह ।

भाई ! य तो सब अधरव ह, इसलिए शरव चतनयसवभाव को हषटि म लकर इस लकषमी आदि का मोह छोड | धरमी शरावक अथवा जिननास-गहसथ अपनी वसत स शकतिशरनसार याचको को इचछितान दव।

दान: मोकष का परथम कारण | [ १११

दान योगय वसत का होता ह, शरयोगय वसत का दान नही होता । लौकिक कथाओ म शराता ह कि किसी राजा न अपन शरीर का मास काटकर दान म दिया अरथवा अरमक भकत न अपन एक पतर का मसतक दान म दिया; परनत यह वसतधरम स विरदध ह, यह दान नही कहलाता, ag तो कदान ह। दान दनवालो को भी योगय-अरयोगय का विवक होना चाहिय।

शरादरणीय धरमातमा आदि को आदरपरवक दान दव और अनय दीन-दःखी जीवो को करणाबदधि स दान दव । धरमी का ऐसी भावना होती ह कि मर निमितत स जगत म किसी पराणी को दःख न हो। यही सब पराणियो क परति अहिसाभावरप गरभयदान ह और शञासतरदान आदि का वरणन भी परव म हो गया ह - ऐस दान को मोकष का परथम कारण कहा गया ह। ह

परशन :- मोकष का भल तो समयगदशन ह, तो यहा दान को मोकष का परथम कारण कस कहा ?

उततर :- पहल परारमभ म सरवजञ की पहिचान की बात की थी, उस सहित दान की यहा बात ह। उसीपरकार शरावक को परथम भमिका म घरम का उललास और भाव गरवशय होता ह, उस बतान क लिए वयवहार स उस मोकष का परथम कारण कहा ह। इतना राग घटना भी जिस नही रक, वह मोकषमारग म कस शरावगा ? बीतरागदषटिपवक जितना राग घटा, उतना मोकषमारग ह। पहल दानादि दवारा राग घटाना सीखगा तो बढकर

मनिपना लगा और मोकषमारग को साधगा | इस शपकषा स दान को मोकष का परथम कारण कहा ह - ऐसा समझना ।

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| दव-गर-धरम क परसग म बारमबार दान करन स धरम का ससकार ताजा रहा करता ह और घरम की रचि का बारमवार

| घोलन होन स झाग बढन का कारण होता ह“““जो जीव पापकारय ॥ म तो उतसाह स घन खरच करता ह और धरम कारयो म कजसी \

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करता ह उस धरम का सचचा परम नही, धरम क परमवाला गहसथ । ससार की अपकषा विशष उतसाह स धरम कारयो म वरतता ह ।

| - पजय थरी कानजी सवामी

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मनषयभव परापत करक कया करना ? य मोकष परति नोदयताः सनभव लबधषपि zg ga:

त तिषठति गह न दानमिह चत‌ तन‍मोहपाशो रढः । मतवद गहिएा यथदधि विविध दान सदा. दोयता

ततससारसरितपति परतरण पोतायत निशचित ॥१७॥

सामतानयाथ : - उततम मनषयभव परापत करक भी जो कबदधि-जीव मोकष का उदयम नही करता शरौर गहसथपन म रहकर दान भी नही दता, उसका गहसथपना तो रढ-मोहपाश क समान ह - ऐसा समभकर गहसथ क लिए शरपनी शकति-अनसार विविध परकार स दान दना सदा कतवय ह; वरयोकि गहसथ को तो दान ससारससदर स तिरन क लिए निशचित जहाज क समान ह।

शलोक १७ पर परवचन

sae का वरणन सरवजशञ की पहिचान स शर किया था। उसम यह दान का परकरण चल रहा ह। इसम कहत ह कि ऐसा दरलभ मनषयपता परापत करक जो मोकष का उदयम नही करता अरथात‌ मनिपना भी गरहण नही करता और दानादि शरावरकधरम का भो पालन नही करता, वह तो मोहबनधन म बधा हआ ह ।

परथम तो ऐस मनषयपन को पाकर मनि होकर मोकष का साकषात‌ उदयम करना चाहिय। उतनी शकति न हो तो गहसथपन म रहकर दान तो जरर करना चाहिय। इतना भी जो नही करत और मातर ससार क पाप म ही लग रहत ह, व तो तीनर मोह क कारण ससार की दगति म कषद उठात ह । इसस बचन क लिय दान उततम जहाज क समान ह ।

मनषयभव परापत करक कया करना ? ] [ ११३

दान म दव-गर-शासतर क परसग की मखयता ह, जिसस उसम धरम का ससकार बना रह और रागर घटता जाव तथा झराग जाकर मनिपना होकर वह मोकषमारग को साध सक | शरावक क अनतःकरण म मनिदशा की परीति ह, इसलिय हमशा तयाग की ओर लकष रहा करता ह; मनिराज को दखत ही भकति स उसक रोम-रोम पलकित हो जात ह ।

मनिभावना की बात कर और अभी राग थोडा भी घटान का ठिकाना न हो, लोभादि अरसीम हो - ऐस जीव को धरम का सचचा परम नही | धरमीजीव मनि अथवा गरजिका न हो सक तो भल ही गहवास म रहता हो; परनत गहवास म रहत हए भी उसको आतमा म कितनी उदासीनता ह !

अर ! य£ मनषय भरववार मिला; जनधरम का और सतसम का एसा उततम योग मिला तो आतमा को साधकर मोकषमागग दवारा उसको सफल कर । ससार-मोह म जीवन बिताता ह, उसक बदल आनतरिक परयतन ढवारा आतमा म स माल बाहर निकाल -आरातमा का वभव परगट कर । चतनयनिधान क सामन जगत क भरनय सभी निधान तचछ ह ।

अहा ! सतो न इस चतनयनिधान को सपषटरप स दिखा दिया; उस जानकर परिगरह छोडकर इस चतनयखजान को न ल - ऐसा मरख कौन ह? चतनयनिधान को दखन क पदचात‌ बाहर क मोह म लगा रह + ऐसा मख कौन ह ? करोडो रपया दन पर भी जिस आयषय का एक समय भी बढ नही सकता - ऐस इस कीमती मनषय जीवन को जो वयरथ गमात ह और जनम-मरण क अरत का उपाय नही करत, व

दबदधि ह। भाई ! यह आतमा को साधन का अरवसर ह। तर खजान म स

जितना वभव निकाल, उतना निकल - एसी बात ह। अर, इस भरवसर को कौन खोव ? झाननद का भडार खल तो शराननद को कौन न लव ? बड-बड चकरवरतियो न शौर अलपाय राजकमारो न इस चतनयखजान

को लन हत बाहर क खजान को छोड-छोडकर वन म गमन किया; अनतर म धयान करक सरवजञपद क 4चिनतय खजान को खोला और शरपना जीवन सफल किया ।

इसपरकार घरमातमा आतमा का आननद कस बढ, उसी म उदयमी ह। जो दबर दधि जीव ऐपता उदयम नही करता, तषणा को तीननता स परिगरह को ही इकटठा किया करता ह, उसका तो जोवन वयरथ ह। दान क बिना

११४ ] [ शरावकधम परकाश

गहसथ तो मोह क जाल म फस हए क समान ह। जिसपरकार रसता

इनदरिय की तीतर लोलपी मछली जाल म फस जाती ह शरौर द:खी होती ह, उसीपरकार तीबर लोलपी गहसथ मिथयातव - मोह क जाल म फसा रहता ह और ससारभरमण म दःखी होता ह। ऐस ससारअरमण स बचन हत दान नौका समान ह, भरतः गहसथो को अपनी ऋदधि क परमाण म दान करना चाहिय ।

“ऋदधि क परमाण म' का अरथ कया ?

लाखो-करोडरो की समपतति म स पाच-दस रपया खरच, वह ऋदधि क परमाण म नही कहा जा सकता शरथवा शरनय कोई करोडपति न पाच हजार खरच किय और म तो उसस कम समपततिवाला ह, शरतः मझ तो उसस कमर खरच करता चाहिय - ऐसी तलना न कर। मझ तो मरा राग घटान हत दान करना ह न ? उसम दसर का कया काम ह?

परशन :- हमार पास थोडी समपतति ह तो दान कहा स कर ?

उततर :- भाई ! विशष समपतति हो तो ही दान हो - ऐसी कोई बात नही और त तर ससारकारयो म खरच करता ह या नही ? तो ada म भी उललासपरवक थोडी समपतति म स तरी शकतिपरमाण खच कर। दान क बिना गहसथपना निषफल ह। शरर! मोकष का उदयम करन का यह अवसर ह। उसम सभी राग न छट तो थोडा राग तो घटा । मोकष क लिय तो सभी राग छोडना पड गा। यदि दानादि दवारा थोडा राग भी घटात तभस नही बनता तो त मोकष का उदयम किसपरकार करगा ? |

अहा ! इस मनषयपन म आतमा म राग रहित जञानदशा परगट करन का परयतन जो नही करता और परमाद स विषयकषायो म ही जीवन बिताता ह, वह मढबदधि मनषयपना खो दता ह; उस पशचातताप होता ह कि भर र ! मनषयपन म हमन कछ नही किया ।

जिस धरम का परम नही, जिस घर म धरमातमा क परति भकति क उललास स तन-मन-धन नही लगाया जाता; वह वासतव म घर ही नही ह, परनत मोह का पिजरः ह, ससार का जलखाना ह। धरम की परभावना और दान दवारा ही गहसथपन की सफलता ह । मनिपन म सथित तीरथकर को अथवा अन‍य महामनियो को गराहा रदान दन पर रतनवषटि होती ह - ऐसी पातरदान की महिमा ह ।

मनषयकषव परापत करक कया करना ? ] [११५

एकबार आहारदान क परसग म एक धरमातमा क यहा रतनवषटि हई; उस दखकर किसी को ऐसा विचार आया कि म भी दान द, जिसस मर यहा भी रतन बरस । ऐसी भावता सहित उसन शराहदरदान दिया। वह आहार दता जाव और आकाश की ओर दखता जाव कि गरब मर रागन म रतन बरसग; परनत कछ नही बरसा। दखिय ! इस दान नही कहत, इसम मढ जीव क लोभ का पोषण ह। धरमीजीव को दान दन म

गणो क परति परमोद ह और राग घटान की भावना ह। पहल मखतावश कदव-कगर पर जितना परम था, उसकी अपकषा शरधिक परम यदि दव-गर क परति न आव तो उसन सचच दव-गर को वासतव म पहिचाना ही नही, माना ही नही, वह दव-गर का भकत नही, उस तो सततासवरप म कलटा स‍तरी समान कहा ह ।

दखिय, इस जनधरम का चरणानयोग भी कितना अलौकिक ह ! जन शरावक का आचरण किसपरकार होव, उसकी यह बात ह। राग को मनदता क आचरण बिना जन शरावकपना नही बनता । राग क एक अरश का कतत तव भी जिसकी हषटि म रहा नही - ऐस जीव क आचरण म भी राग कितना मद पड जाता ह! पहल जस ही राग-दवष किया कर तो समभना कि उसकी हषटि म कोई अपरवता नही भराई, उसकी रचि म कोई परिवतन नही हआ । रचि और हषटि बदलत ही सारी परिणति म अपरवता भरा जाती ह, परिणाम की उथल-पथल बद हो जाती ह।

इसपरकार दरवयानयोग क अधयातम का और चरणान‌योग क परिणाम का मल होता ह। दषटि सधर और परिणाम चाह जस हआ कर - ऐसा नही बनता | दव-गर क परति भकति, दान वगरह परिणाम की मनदता का जिसका ठिकाना नही ह, उस तो हषटि सधारन का परसग नही ह। जिजञास की भमिका म भी ससार की तरफ क परिणामो की शरतयत ही मनदता हो जाती ह और धरम का उतसाह बढ जाता ह।

दानादि शभपरिणाम मोकष क कारण ह - ऐसा चरणानयोग म उपचार स कहा जाता ह; परनत उसम सवसनमखता दवारा जितन अश म गरका शरभाव होता ह, उतन अश को मोकष का कारण जानकर उपचार

स दान को मोकष का कारण कहा। इसपरकार परमपरा स वह मोकष का कारण होगा, परनत किस ? जो शभराग म घरम मानकर नही अटक, उस । जो शभराग को ही वासतव म मोकष-कारण मानकर अक जावगा, उसक लिए तो वह उपचार स भी मोकषमारग नही। वीतरागी शासतरो का

११६ ] [ शरावकधम परकाश

कोई भी उपदश राग घटान हत ही होता ह, राग क पोषण हत नही होता ।

गरहो ! जिस अपनी आतमा का ससार स उदधार करना ह, उस ससार स उदधार करन का मारग बतानवाल दव-गरर-धरम क परति परम उललास आता ह। जो भव स पार हो गय, उनक परति उललास स राग घटाकर सवय भी भव स पार होन क मारग भ आग बढता ह। जो जीव ससार स पार होन का इचछक होता ह; उस कदव-कगर-कशासतर क परति परम शराता ही नही, कयोकि उनक परति परम तो ससार का ही कारण ह।

परशन :- सचच दव-गर क परति परम करना भी तो राग ही हन?

उततर :- यह सतय ह; परनत सचच दव-गरकी पहिचान सहित उनकी तरफ का राग सवर की लालिमा जसा ह, उसक बाद थोड समय म ही वीतरागता स जगमगाता हआ सरय उदय होगा और कदव आदि का राग तो सनधया की लालिभा जसा ह, उसक पशचात अनधकार ह अरथात‌ ससारशरमण ह ।

जहा धरम क परसग म आपतति पड, वहा तन-मन-धन शररपण करन स धरमी चकता नही। ,उस कहना नही पडता कि भाई ! तम ऐसा करो;

परनत सघ पर, धरम पर अथवा साधरमी पर जहा आपतति-परसग आव और गरावशयकता पड, वहा धरमातमा अपनी सारी शकति क साथ तयार ही रहता ह।

जिसपरकार रण-सगराम म राजपत का शोय छिपता नही, उसी परकार धममपरसग म धरमातमा का उतसाह छिपा नही रहता। धरमातमा का धरमपरम ऐसा ह कि धरमपरसग म उसका उतसाह छिपा नही रह सकता, घरम की रकषा क खातिर अथवा परभावना क खातिर सवसव सवाहा करन का परसग आव तो भी पीछ सडकर नही दखता । ऐस धरमोतसाहपरवक दानादि का भाव शरावक को भवसमदर स पार होन हत जहाज समान ह; अतः गहसथो को परतिदिन दान दना चाहिय ।

इसपरकार दान का उपदश दिया गया, शरब शराग जिननदर भगवान

क दशन का विशष उपदश दिया जाता ह।

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जिननदरदशन का भावपरण उपदश

यनितय न विलोकयत जिनवतिः न समरयत नाचयत न सतयत न दीयत सनिजन दान च भवक‍तया परम‌ । सामथय सति तदगहाशरमपद पाषाणनावा सम ततरसथा भवसागरइतिविषम मजजनति नशयनति च ॥१८॥

सामान‍यारथ :- जो गहसथ परतिदिन परभभकिति स जिननाथ क दरशन नही करता, समरण नही करता, WHAT नही करता तथा सामथय होत हए भी परमभवित र घनिराजो को दान नही दता; उसका गहसथाकरसपद पतथर की नाव क समान ह। पतथर की नौका क समान wera पद म सथित हआ वह जीव शरतयनत भयकर भवसागर A saat ह गरौर नषट होता ह!

शलोक १८ पर परवचन

भगवान सरवजञदव की शरदधायवक धरमी शरावक को परतिदित जिननदरदव क दरशन, सवाधयाय, दान शरादि कारय होत ह। उनका वरणन चल रहा ह उसम सातवी गाथा स परारमभ करक सतरहवी गाथा तक अनक परकार स दान का उपदश किया | जो जीव जिननदरदव क दरशन-पजन नही करता तथा मनिवरो को भवितिपरवक दान नही दता, उसका गहसथपनरा पतथर की नौका क समान भवसमदर म डबोनवाला

ह - ऐसा अब कहत ह ।

जिननदरदव - सरवजञ परमातमा का दरशन-पजन यह - TT का हमशा का कतवय ह। परतिदिन क छह करतवयो म भी सबस पहला कतवय जिनदवः का दरशन-पजन ह। परातःकाल भगवान क दशन दवारा निज क धययरप इषटपद को समरण करक परचात‌ ही शरावक दसरी परवतति कर । इसीपरकार सवय भोजन क परव मनिवरो को याद करक

goa ] [ शरावकधरम परकाश

अहा ! कोई सनन‍त-मनिराज अथवा धरमातमा मर आगन म पधारतो -भकतिपरवक उनह भोजन दकर पशचात‌ म भोजन कर” इसपरकार शरावक क हदय म दव-गर की भकति का परवाह बहना चाहिय ।

जिस घर म सचच दवगर की भकत नही, वह घर तो पतथर की नौका क समान डबनवाला ह ।

इसी गरनथ क छठव अधिकार उपासक ससकार? म भी कहा ह कि दान बिना गहसथाशरम पतथर की नौका क समान ह।

भाई ! परातःकाल उठत ही तझ वीतराग भगवान की याद नही गराती, धरमातमा-सत-मनि याद नही आत और ससार क अखबार, वयापार- धधा शरथवा सतरी आदि की याद आती हतो त ही विचार कि तरी परिणति किस तरफ जा रही ह ? ससार की तरफया घरम की तरफ ? आततमपरमी हो, उसका तो जीवन ही मानो दव-गरमय हो जाता ह। किसी गजराती कवि न कहा भी ह :-

हरता फरता परगट हरि दख र.... मार जीवय सफल तब लख र....

अरथात‌ म तो चलत-फिरत हरि (नि३चरय स भगवान आरातमा तथा वयवहार स सचच दव-गर) को ही दखता ह शरौर इसी स अपन जीवन को सफल मानता ह ।

पडित बनारसीदासजी कहत ह कि 'जिनपरतिमा जिनसारखी'” शरथात‌ जिनपरतिमा म जिनवरदव को सथापना ह। उसस जो जिनवरदव का सवरप पहिचान लता ह शररथात‌ जिनपरतिमा को जिनसमान ही दखता ह, उस जोव की भवसथिति अरति अलप होती ह, वह गरलपकाल म मोकष परापत करता ह।

'पघटखणडागम' (भाग ६, पषठ ४२७) म भी जिननदरदरशन को समयकतव की उतपतति का निमितत कहा ह तथा उसस निदधता और तिकाचितरप मिथयातव आदि करमसमह भी नषट हो जात ह - ऐसा कहा ह। जिस रचि म वीतरागी सरवजञसवभाव परिय लगा ह और ससार की रचि छट गई ह, उसक निमितत म भी ऐस बोतराग निमितत क परति भवितिभाव उछलता ह।

1. पदमनदि-पचविशतिका ! उपापतक ससकार, शलोक ३५ 2. समयसार नाटक : चतददस गणासथानाधिकार, छनद १

जिननदरदरशन का भावपरण उपदश ] [ ११६

जो परमभकत स जिनदर भगवान का दहन नही करता तो इसका अरथ यह हआ कि उस वीतरायगभाव नही रचता और तिरन का निमितत नही रचता, परसत ससार म डबन का निमितत रचता ह। जसी रचि होती ह, वस सबधो की तरफ रचि जाय बिना नही रहती; इसलिय कहत ह कि वीतरागी जिनदव को दखत ही जिस अनतर म भकत नही उललसती, पजासतति का भाव उततनन नही होता; वह गहसथ समदर क बीच पतथर की नाव म बठा ह ।

नियमसार की टीका करत हए मनिराज पदमपरभमलघारिदव कहत ह :-

“भवभयनदिनि भगवति भवतः कि भकतिरतन न समसति ? atg भवामबधिमधयगराहमखानतगतोी..._ भवसि ॥१२७

भव क भय का भदन करनवाल इन भगवान क परति क‍या तभ भकति नही ह ? तो त भवसमदर म रहनवाल मगर क मख म ह।

अर | बड-बड मनि भी जिननदरदव क दरशन भर सतति करत ह और तझ ऐसा भाव नही आता और एकमातर पाप म ही रचा-पचा रहता ह तो त भवसमदर म डब जावगा । भाई ! यदि तझ इस भवदःख क समदर म डबना न हो और उसस तिरना हो तो ससार क तरफ की रचि बदल कर वीतरागी दव-गर की तरफ तर परिणाम को लगा; व धरम का सवरप कया कहत ह, उस समझ और उनक कह हए आतमसवरप को रचि म ल; तो भवसमदर स तरा छटकारा होगा ।

भगवान की मरति म य भगवान ह! - ऐसा सथापनानिकषप वासतव म समयगहषटि को ही होता ह; कयोकि समयगदरशनपरवक परमाणजञान होता ह, परमाणपरवक समयक‌ नय होता ह और नय क दवारा सचचा निकषप होता ह | निकषप नय बिना नही, नय परमाण बिना नही और परमाण शदधातमा की हषटि बिना नही ।

wal, दखो तो सही यह वसतसवरप ! जनदरशन की एक: ही धारा चली जा रही ह। भगवान की परतिमा दखत ही 'अहो, ca भगवान‌ !' - ऐसा एक बार भी यदि सरवजञदव का यथारथ सवरप लकषगत कर लिया तो कहत ह कि तरा बडा भव स पार ह।

यहा एकमातर दशत करन की बात नही की, परनत परथम तो परमभकति स दरशन करन को कहा ह और फिर उसीपरकार अचन ( पजन ) और सतति करन को भी कहा ह । सचची पहिचानपरवक ही

१२० ] [ शलावकधरम परकाश

परमभकति उतपनन होती ह शरौर सरवजञदव की सचची पहिचान हो, वहा तो MAT HT सवभाव लकषगत हो जाता ह शररथात‌ उस दीघससार नही रहता। इसपरकार भगवान क दरशन की बात म भी गहरा रहसय ह । मातर ऊपर स मान ल कि सथानकवासी लोग मरति को नही मानत और हम दिगमबर जन शररथात‌ मति को.माननवाल ह - ऐस रढिगत भाव स दरशन कर, उसम सचचा लाभ नही होता; सरवजञदव की पहचान सहित दरशन कर तो ही सचचा लाभ होता ह।!

अर भाई ! तम आरातमा क तो दरशन करना नही आता और आतमा क सवरप को दखन हत दरपण समान ऐस जिननदरदव क दरशन भी त नही करता तो त कहा जावगा ? भाई ! जिननदर भगवान क दरशन- पजन भी न करऔर त अपन को जन कहलाव -य तरा जनपना कसा ? जिस घर म परतिदिन भकतिपरवक दव-गर क दशन-पजन होत ह मनिवरो भरादि धरमातमाओ को आदरपरवक दान दिया जाता ह; वह घर

य ह, इसक बिना तो घर इमशानतलय ह। अर ! वीतरागी सनत अधिक कया कह ? ऐस धरम रहित गहसथाशरम को तो ह भाई ! समदर क गहर- पानी म तिलाजलि द दना, नही तो यह तझ डबो दगा 1

घरमीजीव परतिदिन जिननदरभगवान क दरशनादि करत ह। जिस-

परकार ससार का रागी जीव सतरी-पतरादि क मह को शरथवा चितर को

परम स दखता ह, उसीपरकार धरम का रागी जीव बीतराग-परतिमा का

दरशन भकतिसहित करता ह। राग की इतनी दकषा बदलत भो जिसस

नही बनती, वह वीतरागमारग को किसपरकार साधगा ?

जिसपरकार परिय पतर-पतरी को न दख तो माता को चन नही पडती

परथवा माता को न दख तो बालक को चन नही पडती, उसीपरकार

भगवान क दरशन बिना धरमातमा को चन नहो पडती | “अर र, आाज

मझ परमातमा क दशन न हए, आज मन मर भगवान को नही दखा, मर परिय नाथ क दरशन शराज भर नही मिल !” - इसपरकार धरमी को

भगवान क दरशन बिना चन नही पडती । (जिसपरकार चलना रानी को शरणिक क राजय म पहल चन नही पडती थी; उसीपरकार । )

अनतर म अपन घरम की लगन ह शर परणदशा की भावना ह, इसलिय परणदशा को परापत भगवान स मिलन हत धरमी क अनतर म

1. इस विषय क सबध म सततासवरप म भी बहत विसतार स चरचा की गई ह ।

जिननदरदन का भावपरण उपदश ] [ १२१

ala इचछा आ गई ह। साकषात‌ तीरथकर क वियोग म उनकी वीतराग परतिमा को भी जिनवर समान ही समभकर भकति स दशशन-पजा करता ह और वीतराग क परति बहमान क कारण ऐसी भकित-सतति करता ह कि दखनवालो क रोम-रोम पलकित हो जात ह ।

इसपरकार जिननदरदव क दरशन, मनिवरो की सवा, शासतर-सवाधयाय ale दानादि म शरावक परतिदिन लगा रहता ह।

यहा तो मनिराज कहत ह कि जो शकति होन पर भी परतिदिन जिनदव क दशन नही करला; वह शरावक ही नही ह, वह तो पतथर की नौका म बठकर भवसागर म डबता ह। तो फिर जो वीतरागर-परतिमा क दरशन-पजन का निषष कर, उसकी तो बात ही कया करना ? इसम तो जिनमारग की शरति विराधना ह ।

अर ! सरवजञ को परण परमातमदया परगट हो गई; वसी परमातमदशा स जिस परम हो, उस उनक दरशन का उललास आय बिना कस रह ? वह तो परतिदिन भगवान क दशन करक अपनी परमातमदशारप धयय को परतिदिन ताजा रखता ह ।

- “भगवान क दरशन की तरह मनिवरो क परति भी परमभकति होती ह। भरत चकरवरती जस भी महान‌ आदरपरवक भकति स मनियो को आहारदान दत थ और अपन आगन म मनि पधार, उससमय अपन को धनय मानत थ। अहा ! मोकषमारगी मनि क दरशन भी दरलभ ह; यह तो धनय भागय और धनय घडी ह कि उनक दरशन मिल। alas क विरहकाल म बड धरमातमाओ क परति भी ऐसा बहमान का भाव आता ह कि अहो ' धनय भागय कि मर आगन म धरमातमा क चरण TS |

ऐस धरम क उललास स धरमी शरावक मोकषमारग की साधता ह और जिस धरम का ऐसा परम नही, वह ससार म डबता ह ।

कोई कह कि मि तो पाषाण की ह ? परनत भाई ! इसम जञानवल स परमातमा का निकषप किया ह कि यह परमातमा ह। इस निकषप का इनकार करना जञान का ही इतकार करन क समान ह। जिनबिमबदशन को तो समयरदरशन का निमितत माना ह; जो उस निमितत का निषध कर, उस समयरदशन का भी जञान नही ह ।

समनतभदर सवामी कहत ह कि ह परभो ! हम तरी सतति का वयसन पड गया ह। जिसपरकार वयसनी मनषय अपन वयसन की वसत क बिना नही रह सकता; उसीपरकार सरवजञ क भकतो को सतति का वयसन ह,

RRR]. [ शरावकघमपरकाश

इसलिए व भगवान की सतति - गणगान क बिना नही रह सकत। धरमातमा क हदय म सरवजञदव क गणयान चितरित हो गय ह ।

अहा ! साकषात‌ भगवान दखन को मिल - यह तो घनय घडी ह । कनदकनदा चारय जसो न विदह म जाकर सीमनधरनाथ को साकषात‌ दखा, उनकी तो कया बात ? यहा अभी तो ऐसा काल नही ह ।

at! diac ar fare, महान सत - मनियो का भी विरह - ऐस काल म जिनपरतिमा क दरशन स भी धरमीजीबव भगवान क सवरप को याद करता ह। जिस वीतराग जिनमदरा को दखन की उमग न हो, वह जीव ससार की तीवर रचि को लकर ससारसागर म डबनवाला ह। बीतराग का भकक‍त तो वीतरागदव का नाम सनत ही और दरशन करत ही परसनन हो जाता ह ।

fraser सजजन विनयवनत पतर रोज सवर माता-पिता क पास जाकर विवक स चरणसपशञ करत ह; उसीपरकार धरमीजीव परभ क पास जाकर, बालक जस होकर, विनय स परतिदिन धरमपिता जिननदर भगवान

क दरशन करत ह, उनकी सतति-पजा करत ह; मनिवरो को भकति स गराहारदान दत ह। ऐस वीतरागी दव-गर की भकति क बिना जीव मिथयातव की नाव म बठकर चारगति क समदर म डबता ह और बहमलय मनषयजीवन को नषट कर डालता ह; शरतः धरम क परमी जीव दव-गर की भकति क कारयो म हमशा अपन धन का और जीवन का सदपयोग कर - ऐसा उपदश ह ।

इसपरकार आचारय जिननदरदव क दशन का तथा दान का उपदश दकर, अब दाता कौ परशसा करत ह । ०००००

क कमा ee ee ET ET ET ee ee eT उसममाट

\ जनधरम का चरणानयोग भी waif ह ! दरवयानयोग \ # अधयातम का और चरणानयोग का मल ह। दषटि Tar क ) परिणाम चाह जस हआ कर- ऐसा नही बनता। शरधयातम की \

# दषटि हो; वहा दव-गर की भकति, दान, साघरमी क परति बातसलय % ( गरादि भाव सहज आत ही ह। शरावक क अनतर म मनिददया की \

परीति ह अरथात‌ हमशा तयाग की ओर लकष रहा करता ह और \ मनिराज को दखत ही भकति स उसका रोम-रोम उललसित हो | # जाता ह। भाई ! ऐसा मनषय अवतार मिला ह तो मोकषमारग \ साधकर इस सफल कर । - पजय शरी कानजी सवामी i

EES UGE UGE GEE WE ee ae TT ee ee See See — gE — ESS कक अजय, EEE S एनमनर समा पड ३

कलियग क कलपवकष

चिनता रतव-सरदर कामसरभि-सपरशोपलादा भवि खयाता एव परोपकारकरण रषटा न त कनचित‌ । तरतनरीपकत न कषचिदपि परायो न समावयत

ततकारयारि पनः सदव विदधत‌ दाता पर दशयत ॥१६।॥

सामानयारथ :- जगत‌ म चिततामरिग, कलपवकष, कामधत गाय और पारस पतथर परोपकार करन म परसिदध ह, परनत यहा उपकार करत हए उनको किसी न नही दखा; उसीपरकार उनक दवारा उपकत वयकति भी किसी न नही दखा; शरतः यहा उनकी सभावना भी परोयः नही ह, परनत दातार शरकला मनोवाछित दान स सदव चिनतामरि शरादि का काम करत हए दखा जाता ह, शरतः दाता परष ही उन चिनतामरिण आदि पदारथो स उततम ह ।

इशलोक १६ पर परवचन

धरमातमा शरावक दानादि दवारा इस काल म कलपवकष आदि का कारय करत ह - ऐसा अब कहत ह ।

घरमातमा क लिए परमारथरप स चिनतामणि तो अपनी भरातमा ह कि जिसक चितन स समयगदशन और कवलजञान शरादि निधान परगट होत ह । इस चतनयचिनतामणि क सामन बाहर क चिसतामणि, आदि की वाछा जञानी को नही ह, तथापि पणय क फल म चिनतामणि कलपवकष आदि वसतए अवशय होती ह; उनक चिनतवन स बाहय सामगरी वसतर - भोजनादि मिलत ह, परत उनक पास स धरम अरथवा समयगदरशनादि नही मिलता ह ।

चौथ काल म इस भरतभमि म भी कलपवकष वगरह थ; समवसरण म भी व होत ह; शराजकल लोगो क पणय घट गय ह, इसलिए व वसतय

१२४ J [ शरावकरम परकाश

यहा दखन म नही आती । शराचायदव कहत ह कि ऐस पणयफल की महिमा हम नही ह; हम तो वह दाता ही उततम लगता ह, जो धरम की आराधना सहित दान करता ह। दान क फल म कलपवकष आदि तो इसक पास सहजखप म आवग ।

पारस पतथर लोह को सोना करता ह - इसम कया ? इस चतनय- चिनतामणि का सपरश होत हो आतमा पामर स परमातमा बन जाता ह - ऐसा चिनतामणि जञानी क हाथ म झा गया ह। वह पघरमातमा अनतर म राग घटाकर धरम की वदधि करता ह और बाहय म भी “धरम की वदधि कस हो, दव-गरर की भावना शरौर महिमा कस बढ, धरमातमा - साधरमी को धमसाधन म शरनकलता किसपरकार हो' - ऐसी भावना स वह दानकारय करता ह। जब आवशयकता हो, तब और जितनी गरावशयकता हो, उबना दन क लिए वह सव तयार रहता ह; इसलिय वह वासतव म चिनतामणि और कामधन ह । दाता पारसमणि क समान ह, क‍योकि-वह उसक समपरक म झानवाल की दरिदरता दर करता ह!

मरपरवत क पास दवकर-उततरकर भोगभमि ह, वहा कलपवकष होत ह, व इचछित सामगरी दत ह; वहा जगलिया? जीव होत ह और कलपवकष स अपना जीवननिरवाह करत ह। दान क फल म जीव वहा जनम लता ह। यहा भी परथम, दवितीय, ततौय काल म ऐस कलपवकष थ; परनत वरतमान म नही ह, इसलिय शासतरकार कहत ह कि य कलपवकष आदि परसिदध होत हए भी वरतमान म यहा तो व किसी का उपकार करत दखन म नही आत, यहा तो दातार शरावक ही इचछित दान दवारा उपकार करता दखन म आता ह। चिनतामणि आदि तो वरतमान म शरवणमातर

ह, दीखत नही; परनत चिनताभणि की तरह उदारता स दान करनवाला घरमी करावक तो वरतमान म भी दिखाई दता ह ।

दखो ! नौ सौ वरष परव पदमननदी मनिराज न यह शासतर रचा ह, उससमय ऐस शरावक थ। पदमननदी मनिराज महान सत थ। वनवासी दिगमबर सतो न सवजञ क वीतरागमारग की यथारथ परणाली को टिका रखा ह। दिगमबर मनि तो जनशासन क सतमभ ह। पदमतनदी मनिराज न इस शासतर म वरागय और भकति क उपदश की रलमछल की ह,

1. भोगभमि स सतरी-परष की एकसाथ उतपतति होती ह तथा उनका मरण भी

एकसाथ होता ह, इसकारण उनह 'जगलिया” कहा जाता ह ।

कलियग क कलपवकष ] [ १२५

उसीपरकार निशचय-पचाशत‌ आदि अधिकारो म शदधातमा क अधयातम- सवरप का अधययन किया ह। कनदकनद सवामी का भी दसरा नाम “पदमननदी सवामी था ? परनत य पदमननदी मनिराज तो उनस लगभग एक हजार वरष बाद हए । व कहत ह कि दान करनवाला उततम शरावक धरमातमा चिनतामणि क समान ह।

सघ म जररत पड अथवा जिनमदिर नया-बडा कराना हो तो शरावक कहता ह कि कितना खरच होगा ? - सवा लाख रपया ।

तब वह तरनत कहता ह - यह लो और उततम मनदिर बनवाओ ।

इसपरकार उदारता स दान दनवाल धरमातमा थ। इसक लिए घर- घर जाकर चनदा नही करना पडता था । शरपनी शकति होत हए भी घमम का कारय रक - यह धरमीजीव दख नही सकता; इसलिए कहत ह कि धरमातमा शरावक ही उदारता स मनोवाछित दान दनवाला चिनतामणि, कलपवकष और कामधघन ह; जब आवशयकता पड, तब द। शरावशयकता पडन पर दान न द तो वह दातार कसा ? धरमपरसग म शरावरयकता पडन पर दातार छिपा नही रहता। जिसपरकार दश क लिए भामाशाह न अपनी समपरण सपतति महाराणा परताप क सामन रख दी थी, उसीपरकार चरमीजीव घरम क लिए जररत पडन पर अपना सरवसव ATT He Aart ह। दाता को चिनतामणि आदि स भी दान परिय ह; कयोकि चिनतामणि आदि उपकारी वसतए तो परव म सतपातर दान स बघ हए परणय क कारण स ह, इसलिए वासतव म दाता म ही यह सब समा जाता ह।

इसपरकार दाता की परशसा की गई ।

क कमर Se Se SS Se, ee See Se See See SS ee कम

|| दाता की महिसा |

\ आचारयदव कहत ह कि पणयफलरप चिनतामणि आदि की \ || महिमा हम नही, हम तो वह दाता ही उततम लगता ह कि जो धरम ( #@ को आराधना सहित दान करता ह, अपनी शकति होत हए भी #

| चरमकाय रक - ऐसा घरमी जीव दख नही सकता ।

- पजय शरी कानजी सवासी \ ee eee ee eee ee eee ee eee ee ee ee ee ti

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gutta at aaicaral at vara

यतर शरावकलोक एब वसति सयातततर चतयालयो

यससिन‌ सोइसति च ततर सनति यतयो धमशच तः Tae | धरम सतयघसचयो. विघटत . सवगपिवरगाशय सौखय भावि नरा ततो गणवरता सथः शरावकाः समता: १२०॥।

सामानयारथ :- जहा धरमातमा शरावकजन निवास करत हो, वहा चतयालय - जिनमनदिर होता ह तथा जहा जिनमनदिर हो, वहा मनि आरादि धरमातमा होत ह तथा धरम की परवतति चलती ह। धरम दवारा पबसचित पापो का नाश होता ह और सवग-मोकष क सख की परापति होतो ह। इसपरकार धरम की परवतति क कारण होन स शरावको का गरावान परषो क दवारा यथायोगय ससमान करना चाहिय।

. इलोक २० पर परवचन

अब, जहा धरमातमा कषावक रहत हो, वहा भरनक परकार स धरम की परवतति चला करती ह - यह बतलाकर उसकी परशसा करत ह। जहा

धरमी शरावक निवास करता हो, वहा धरम की परवतति कसी चलती ह, वह बतलात ह ।

शरावक जहा निवास करता हो, वहा वह दरशन-पजन क लिए जिनमनदिर बनवाता ह । जहा जिनमनदिर होता ह, वहा अनक सनि शरादि विहार करत-करत आरात ह और उनक उपदश आदि स घरम की परवतति चला' करती ह तथा सवरग-मोकष का साधन होता ह | शरावक हो वहा ही यह सब होता ह; इसलिए भवय जीवो को ऐस उततम शरावक का

धरमोननति म घरमातमाशरो का महततव ] | [ १२७

शरादर-सतकार करना चाहिय। 'समता:' अरथात‌ धरमातमाशरो को यह इषट ह, मानय ह, उनक दवारा परशसनीय ह ।

दखिय ! जहा शरावक. रहत हो, वहा जिनमनदिर तो होना ही चाहिय । यदि थोड शरावक हो और छोटा गाव हो तो भी पहिल दरशन-पजन हत चतयालय बनवाव, चाह छोटा-सा ही हो | परवकाल म कई शरावक घर म ही चतयालय सथापित करत थ। दखिय न ! मडबिदरी (दकषिण दश) म रतनो की कसी. जिनपरतिमाय ह? ऐस जिनदव क दरशत स तथा मनि आदि क उपदशशरवण स परव क बध हए पाप कषण म छट जात ह।

पहिल तो सथान-सथान पर गरामो म जिनमनदिर थ; कयोकि दरशन बिना तो शरावक का जल ही नही. ! दरशन किय बिना खाना तो बासी भोजन समान कहा गया ह । जहा जितमनदिर और जिनधरम न हो, वह गाव तो इशमशानतलय कहा गया ह; wa: जहा-जहा शरावक होत ह, वहा-वहा जिनमनदिर होत ह और म‌नि आदि तयागी घरमातमा वहा शराया करत ह, भरनक परकार क उतसव होत ह, धरमचरचा होती ह और इनक दवारा पाप का नाश तथा सवरग-मोकष का साधन होता ह ।

जिनबिमबदशन स भिदधत और निकाजचित मिथयातवकरम क भी सकडो टकड हो जात ह - ऐसा उललख सिदधानत म ह; धमम की रचि सहित की यह बात ह ।

झहो ! यह मर जञायकसवरप का परतिबिमब - ऐस भाव स दरशन करत पर समयगदरशन न हो तो नया समयगदशन परापत होता ह और शरनादि क पापो का नाश हो जाता ह, मोकषमारग खल जाता ह। गहसथ शरावको दवारा ऐस जिनमनदिर की शर धरम की परवतति होती ह, शरतः शराचायदव कहत ह कि व शरावक धनय ह ।

गहसथावसथा म रहनवाल भाई-बहिन भी जो धरमातमा होत ह, व सजजनो दवारा आदरणीय होत ह। शषाविका भी जनधरम की ऐसी परभावना करती ह, वह शराविका घरमातमा भी जगत क जीवो दवारा सतकार करन योगय ह। दखिय न ! चलनारानी न जनधरम की कितनी परभावना की ? इसपरकार गहसथावसथा म रहनवाल शरावक-शराविका अपनी लकषमी आरादि न‍यौछावर करक भी धरम की परभावना करत रहत ह। सन‍तो क हदय म धरम की परभावना क भाव रहत ह, घरम की शोभा हत धरमातमा शरावक अरपना हदय भी अपण कर दत ह - ऐसी घरम की तीजर लगन इनक हदय म होती ह ।

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ऐस शरावकधरम का यहा इस अरधिकार म yaa cart a परकाश किया ह - उदयोत किया ह | इसका विसतार और परचार करन जसा ह; wa शरपन परवचन म यह अभरधिकार तीसरी बार पढा जा were

दखिय | इस शरावकधरम म भमिकानसार आतमा की शदधि तो साथ ही वरतती ह । पचमगणसथानवरती शरावक उततम दवगति क सिवाय अनय किसी गति म नही जाता - यह नियम ह । सवरग म जाकर वहा भी वह जिननदरदव की भकति-पजन करता ह। छठव-सातव गणसथान म मलत सत परमोद स कहत ह कि शरहो | सवरग-मोकष की परवतति का कारणरप वह धरमातमा शरावक हम सममत ह, गणीजनो दवारा

आदरणीय ह ।

शरावक अकला हो तो भी अपनी शकति-अरनसार दरशन हत जिनमनदिर आदि बनवाव । जिसपरकार पतर-पतरी क विवाह म उमग- परवक अपनी शकति-अनसार घन खरच करता ह, Wea क पास चदा करान क लिए नही शराता; उसी परकार घरमीजीव जिनमनदिर आदि हत भरपनी शकति-अनसार धन खरच करता ह, अपनी शकति होत हय भी घन न खरच और शरनय क पास मागन जाय - यह शोभा नही दता ।

जिनमनदिर तो धरम की परवतति का मखय सथान ह। मनि भी वहा

दरशन करन आत ह । गाव म किसी धरमातमा का आगमन हो तो वह भी जिनमनदिर तो जरर आता ह। उततमकाल म ऐसा होता था कि मनिवर

आकाश म गमन करत समय नीच मदिर दखकर दशन करन आत थ और महान घरमपरभावना होती थी।

गरहो ! ऐस वीतरागी मनि का वरतमान म तो दरशन होना कठिन ह। आज वन म विचरण करनवाल सिह जस मनिबरो क दरशन तो बहत दलभ ह। धरम की परवतति धरमातमा शरावको दवारा चला करती ह, इसलिए ऐस शरावक परशसनीय ह ।

1. इस शरावकधरमपरकाश पसतक म पजय सवामीजी क दशबरतोदयोतन शरघिकार

पर हए तौनो बार क परवचनो को समपादित करक परकाशित किया गया ह ।

व शरावक धनय ह

काल दःखमसजक. जिनपतरध गत कषीणता तचछ सामधिक wa बहतर सिथयानधकार सति |

चतय चतयगह च भकतिसहितो यः सोडषपि नो दशयत यसततकारयत यथाविधि पनरभवयः स बदयः सताम‌ ॥२१॥

सामानयारथ :- इस दखभा नासक पचम काल म जिनतदर भगवान

दवारा कथित धरम कषोण होता जा रहा ह। इसम जनागम शरथवा जनधरम का आशरय लनवाल जन थोड और शरजञानरप अरनधकार का परचार

करनवाल बहत अधिक ह - ऐसी पशरवसथा म जिनपरतिमा और जिनगह क परति भकति रखनवाल मनषय भी दखन म नहो शरात; फिर भी जो भवय विधिपरवक उकत जिनपरतिमा और जिनगह का निरमाण करता ह, वह

सजजन परषो क दवारा वदनीय ह।

शलोक २१ पर परवचन

जहा तीरथकर भगवान विराजत ह, वहा तो धरम की अविरल घारा चलती ह, चकरवरती और इनदर जस इस धरम को आराधना करत ह; परनत वरतमान म तो यहा जनधरम बहत घट गया ह। तीरथकरो का विरह, मनिवरो की भी दरलभता, विपरीत मानयता क पोषण करनवाल मिथयामारगो का शरनत नही - ऐसी विषमता क समह क बीच म भी जो जीव धरम क परम को सथिर रखकर भकति स जिनमनदिर आदि बनवात ह, व धनय ह। दरशनद शक म भी शराता ह :--

१३० ] [ करावकधरम परकाश

चतयालय जो कर धनय सो शरावक कहिय। ताम परतिमा at aq at भी सरदहिय ॥*

परव म तो भरत चतरवरती जस न भी कलास परवत पर तीन चौबीसी तीरथकरो क रतनमय जिनबिमबो की सथापना की थी । दसर भी अनक बड -बड राजा-महाराजा और धरमातमाशरो न विशाल जिनमनदिर बनवाय थ ।

दखो ! मडबिदरी म 'तरिभवततिलक चडामणि' जिनमनदिर कितना बडा ह ? उसक एक हजार तो सतभ ह और महामलय रतनो की पतीस सतिया भी वहा ह, य भी धरमातमा शरावको न दशनहत सथापी ह ।

शरवणबलगोला म भी इनदरगिरि पहाड म खदी हई ५७ फीट ऊची बाहबली भगवान की परतिमा कितनी अदभत ह ? झरहा ! जस वीतरागता का पिणड हो ! पवितरता और पणय दोनो उसम दिखाई द रह ह। इसपरकार शरावक बहत' भकति स जिनबिमब सथापित और जिनमनदिर निरमाण करता ह|

आजकल तो यहा अनायवततिवाल जीव बहत और झायव ततिवाल जीव थोड , उनम भी जन थोड , उनम भी धरम क जिजञास बहत थोड और उनम भी धरमातमा और साध तो अतयनत विरल | बसतत: व तीनो काल म विरल ह, परनत वरतमान म यहा तो बहत ही विरल ह। जहा दखो, वहा कदव और मिथयातव का जोर फला हआ ह । ऐस कलिकाल म भी जो जीव भकतिपवक जिनालय और जिनबिसब की विधिपरवक सथापना करात ह; व जिनदव क भकत, समयगहषटि, धरम क रचिबत ह और ऐस धरमीजीवो की सजजन लोग परशसा करत ह ।

दखो भाई ! जिनमारग म वीतराग-परतिमा अनादि की ह । सवय म शाशवत जिनपरतिमारय ह, नन‍दीशवर म ह, मरपरबत पर ह।.पाच सौ घनषय क रतनमय जिनबिमब ऐस अलौकिक ह मानो कि साकषात तीरथकर

हो और शरभी वाणी खिरगी ? कारतिक, फालगन और शरषाढ मास की अषटाहविका म इनदर और दव नन‍दीशवर.जाकर महा भकतिपरवक दरशन-पजन करत ह ।

शासतरो म गरनक परकार क महापजन कह ह। इनदर दवारा पजा हो,

1 कविवर साहिबराय : दरशनदशक, छनद १०

व शरावक धनय ह ] [ १३१

वह इनदरधवज पजा ह । चकरवरती किमिचछक दानपरवक राजाओ क साथ जो महापजा करता ह, उस कलपद मपजा कहत ह। अषटाहििका म जो विशष पजा होती ह, उस गरषटाहविका पजन कहत ह। मकटबदध राजा जो पजन करात ह, उस सवतोभदर Weal. Warm! Gar Herz परतिदिन शरावक जो पजा कर, वह नितयमहः पजन ह ।.

भरत चकरवरती महापजन रचात थ, उसका विशद वरणन आदिपराण म गराता ह। सरय क grec aaa जितबिमब ह।भरत चकरवरती को चकष समबनधी जञान का इतना तीबर कषयोपशम था कि व अपन महल म स सरय म विराजमान जिनबिमब का दरशन करत थ। उस पर स परातः सरयदरशन का रिवाज परचलित हो गया। लोग मल वसत को भल गय और सरय को पजन लग, शासतरो म सथान-सथान पर जिनपरतिमा का वरणन आता ह।

अर ! सथानकवासी दवारा मान हए गरागम म भी जिनपरतिमा का उललख आता ह, परत व उसका अरथ विपरीत करत ह ।

एक बार सवत‌ १६७५८. म मन ( पजय शरी कानजी सवामी न ) एक परान सथानकवासी साध स पछा कि इन शासतरो म जिनपरतिमा का

भी वरणन झाता ह,कयोकि 'जिन क शरीरपरममाण ऊचाई! - एसी उपमा दी ह। यदि यह परतिमा यकष की हो तो जिन की उपभा नही दत; तब उस सथानकवासी साध न यह बात सवीकार की और कहा कि आपकी बात सतय ह, ह तो ऐसा ही, तीरथकर की ही परतिमा ह; परत बाहर म ऐसा नही बोला जाता ।

तब ऐसा लगा कि अर, यह क‍या ? अनदर कछ मान शोर बाहय म दसरी बात कह - ऐसा भगवान का मारग नही होता । इन जीवो को आतमा की दरकार नही; भगवान क मारग की दरकार नही; सतय क शोधक जीव ऐस समपरदाय म नही रह सकत। जिनमारग म वोतराग मरति की पजा शरनादि स चली आ रही ह; बड-बड जञानो भो उस पजत ह। जिसन मरति का निषध किया, उसन अननत जञानियो की विराघना की ह ।

शासतर म तो ऐसी कथा आती ह कि जब महावीर भगवान राजगही म पधार और शर णिक राजा उनकी वदना करन जात ह, तब एक मढक भी भकति स मह म फल लकर परभ की पजा करन जाता ह;

232 J [ शरावकधमपरकाश

'बह राह म हाथी क पर क नीच दबकर मर जाता ह और दवपरयाय म उतपनन होकर तरनत भगवान क समवशरण म आता ह।

धरमीजीव भगवान क दरशन करत हए साकषात‌ भगवान की याद करता ह कि शरहो भगवान ! अहो सीमनधरनाथ ! आप विदहकषतर म हो और म यहा भरतकषतर म ह, शरापक साकषात‌ दरशन का मझ विरह हआ | परभो ! ऐसा अवसर कब झाव कि आपका विरह दर हो शररथात‌ राग-दव का सरवथा नाश करक आप जसा वीतराग कब होऊ ?

धरमी ऐसी भावना दवारा राग को तोडता ह शररथात‌ भगवान स वह कषतर अपकषा दर होत हए भी भाव स समीप ह कि ह नाथ ! इस वभव- विलास म रचापचा हमारा जीवन यह कोई जीवन नही, वासतविक जीवन तो आपका ह; आप कवलजञान शरौर अरतीनदरिय आननदमय जीवन जी रह हो, वही सचचा जीवन ह। परभो ! हम भी यही उदयम करना ह । परभो ! वह घडी धनय ह कि जब म मनि होकर आपक जसा कवलजञान का साधन करगा । ऐसा परषारथ नही जागता, तबतक घरमीजीव शरावकधरम का पालन करता ह और दान, जिनपजा आदि कारयो दवारा वह अपन गहसथजीवन को सफल करता ह ।

वरतमान म तो मनियो की दलभता ह और यदि मनि हो तो भी व जिनमनदिर बनवान या पसतक छपवान जसी परवतति नही करत, बाहय की कोई परवतति का भार मनि अपन सिर पर नही रखत, ऐसा कारय तो शरावक ही करत ह। उततम शरावक परगाढ भकति सहित जिनमनदिर बनाता ह, परतिषठा कराता ह, उसकी शोभा बढाता ह। कहा कया करना चाहिय आर किसपरकार धरम की शोभा बढगी - ऐसा विचार कर परगाढ भकति करता ह। उसकी भाबना ऐसी होती ह :-

चलो. जिनमनदिर दरशन करन, चलो परभ की भकषित करन, चलो धरम का महोतसद छरन, चलो कोई तीरथ की यातरा करन,

इसपरकार शरावक-शराविका परगाढ भकति स जनघरम को शोभायमान कर।

. झहा! झानत दकशा को परापत घरमीजीव कसा होता ह और उस वीतरागी दव-गर की भकति का उललास कसा होता ह, उसकी भी जीवो

व शरावक बनय ह ] ह [ १३१३

को खबर नही । परव समय म तो वदध, यवा, बहिन और बालक सभी धरमपरमी थ और धममम दवारा शरपनी जञोभा मानत थ | इसक बदल वरतमान

म तो सिनमा का शौक बढा ह और सवचछनद फट पडा ह। ऐस

विषमकाल म भी जो जीव जिनभकतिवाला ह, धम का परमी ह और जिनमनदिर शरादि बनवाता ह - ऐसा शरावक ही घनय ह !

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सख का उपाय

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mae

भाई ! तझ सखी होना हो तो अपन जञान म परमातमा की सथापना कर, बाहय विषयो को सथान न द । आननद तो तरा \ सवरप ह, उसम विषयो की शगरावरयकता कहा ह ? इसलिय तो \ कहत ह कि ह जीव ! सख अनतर म ह, -उस बाहय म न दढ । जगत को सलतषट करन म और जगत स सनतषट होन म तो जीव ॥ त शरननतकाल गवा दिया, परनत उसम किचित‌ सख sel | | अनतम ख रचि दवारा शरपन आतमा को सनतषट कर और आतमा | क सवभाव स त सनतषट हो, तो तझ सचच सख का अनभव \ होगा। सयोग दवारा सनतषट न हो, राग दवारा सनतषठ न हो; | ; आननद का भणडार तभम भरा ह, उसम त सतषट हो, परसनन हो, आननदित हो । ||

नम

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Gane aa ae Va”

सनक

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किक:

जिसन चतनय का सख दख लिया, वह धरमातमा जगत क \ किसी विषय म लभाता नही ह। घरमी को चतनय म भरा हआ \ अननत सख का भणडार ऐसा रचिकर ह कि वह उसी क सवाद

|! म तललीन हो जाता ह। शरनततसख क घाम म जो लभाया, वह \ किनही सासारिक विषयो क लालच म नही फसता | सासारिक \

पदारथो की लालसा उस छट गई और चतनयाननद: क अनभव की \ उतकषट लालसा ( परीति ) जागत हई; उसम gests — THTT \ y होकर अतीनदरिय सख का अनभव करता ह ।

कब कक. 2

\ - पजय शरी कानजी सवामी \

= 2 eee See Se eee ee ee eee <> —[ SSS SE EE ESE EEE EES SSE SS अनन म

@) बीतरागता का परमी

बिमबादलोननति यवोन‍नतिसव भक‍तया य कारयनति जिनसआ जिनाकति च | षणय तदीयसिह वागपषि da naar eatg ated fag arefag: gata ween

सामानयाथ :- जो जीव भकति स बल क पतर जितना छोटा जिनमनदिर बनवाता ह और जो जो क दान जितनी जिन-भराकति

(जिनपरतिमा) सथापित करता ह; उसक महान पणय का वरणन करन क लिए इस लोक म सरसवती (वाणी) भी समरथ नही तो फिर जो जीव य दोनो करता ह शररथात‌ ऊच-ऊच जिनभनदिर बनवाता ह और शरतिशय भवय जिनपरतिमा सथापित करवाता ह, -उसक पणय की तो कया बात ?

शलोक २२ पर परवचचन

वीतरागी जिनमाग क परति शरावक का उतसाह कसा होता ह और उसका फल .कया होता ह, वह कहत ह ।

दखो ! इसम “भकतिपरवक' की मखय बात ह । मातर परतिषठा अथवा मान-सममान क लिए अथवा दखादखी स कितन ही पस - खच कर द, उसकी यह बात नही; परनत भकतिपक शररथात‌ जिस सरवशञ भगवान की कछ पहचान हई ह शरौर अनतर म बहमान पदा हआ ह कि wat ta बीतरागी सरवजञदव ! ऐस भगवान को म अपन अनतर म सथापित कर झौर ससार म भी इनकी परसिदधि हो - ऐस बहमान स भकतिभावपरवक जिनमनदिर बनवान का भाव जिस आता ह, उस उचच जाति का लोकोततर

वीतरागता का परमी ] [ १३५

पणय बधता ह; कयोकि उसक भावो म वीतरागता का बहमान हथना ह। पशचात‌ भल ही परतिमा मोटी हो या छोटी, परनत उसकी सथापना म वीतरागता का बहमान और वीतराग का आदर ह - यही उततम पणय का कारण ह।

भगवान की मरति को यहा 'जिनाकति' कहा ह शररथात‌ शररहनत जिनदव की जसी निबिकार आकति होती ह, वसी ही निरदोष पराकतिवाली जिनपरतिमा होती ह। जिननदर भगवान वसतर-मकट नही पहिनत और इनकी मरति वसतर-मकट सहित हो तो उस जिनाकति नही कहत । 'जिन- परतिमा जिनसारखी, भाखी आगम माय' - ऐसी निरदोष परतिमा जिनशासन म पजनीय ह ।

यहा तो कहत ह कि शरही ! जो जीव भकति स ऐसा वीतराम जिनबिमब और जिनपरतिमा बनवाता ह, उसक पणय की महिमा वाणी स कस कही जा सकती ह? दखो तो सही, धरमी क अलप Fag aT इतना फल तो इसकी शदधता की महिमा की तो कया बात ? जिस अनतर _ म वीतरागभाव रचा, उस वीतरागता क बाहय निमिततो क परति भी कितना उतसाह हो ?

एक उदाहरण इसपरकार आता ह. कि एक सठ जिनमनदिर बनकाता था; उसम काम करत-हए पतथर की जितनी रज कारीगर दवारा निकाली जाती, उसक वजन क बराबर चादी दता था । सठ क मन म ऐसा भाव था कि अहो ! मर भगवान का मनदिर बन रहा ह तो उसम कारीगरो को भी म परसनन कर, जिसस मर मनदिर का काम सनदर हो | उससमय क कारीगर' भी सचच हदयवाल थ । वरमान म तो लोगो की. वतति म बहत फरफार हो गया ह। यहा तो भगवान क भकत शरावक घरमातमा को जिनमनदिर और जिनपरतिमा का कसा शभराग होता ह, वह

बतलाया ह । ससार म दखो तो, पाच-दस लाख रपयो की कमाई हो और

लाख दो लाख रपय खरच करक बगला बनवाता हो तो कितनी होश करता ह ? कहा क‍या चाहिय और किसपरकार अधिक शोभा हो - इसका कितना विचार करता ह ? इसम तो ममता का पोषण ह; परनत धरमातमा को ऐसा विचार आता ह कि अहो ! मर भगवान जिसम विराजमान हो - ऐस जिनमनदिर म कया-कया चाहिय और किस रीति स अधिक शोभायमान हो ? इसपरकार विचार करक होश स (तन स, मत स, धन स )

१३६९ ] [ आवकधरमपरकाश

उसम वरतन करता ह। वहा वयरथ की झठी करकसर अथवा कजसाई नही करता ।

भाई ! ऐस धरमकारय म त उदारता रखगा तो तझ ऐसा लगगा कि मन जीवन म घरम क लिय कछ किया ह; एकमातर पाप म ही जिनदगी नही बिगाडो, परनत धरम की तरफ क कछ भाव किय ह - इसपरकार त धरम क बहमान का भाव रहा करगा। ऐस भाव क साथ म जो पणय बधता ह, वह भी लौकिक दया-दान की अपकषा उचच कोटि का होता ह ।

एक मकान बाधनवाला कारीगर जस-जस मकान ऊचा होता जाता ह, वस-वस वह भी ऊचा चढता जाता ह; उसीपरकार धरमीजीव जस-जस शदधता म बढता जाता ह, वस-वस उसक पणय का रस ( अनभाग ) भी बढता जाता ह।

जिनमनदिर और जिनपरतिमा करानवाल क भाव म क‍या ह? उसक 'माव म वीतरागता का आदर ह शरौर राग का आदर छट गया ह। ऐस भाव स कराव तो सचची भकति कहलाती ह और बीतरागभाव क बहमान दवारा वह जीव अलपकाल म राग को तोडकर मोकष परापत करता ह; परनत यह बात लकषय म लिए बिना कोई ऐस ही कह द कि तमन मनदिर बनवाया, इसलिए झाठ भव म तमहारा मोकष हो जावगा' - तो यह बात सिदधानत की नही ह । ;

भाई ! शरावक को ऐसा शभभाव होता ह- यह बात सतय ह; परनत राग की जितनी हद हो, उतनी रखनी चाहिय। भगवान न इस शभराग क फल स जचच कोटि का पणय-बनधन तो कहा ह, परनत उसस करमकषय होन का विधान नही कहा ह! करम का कषय तो समयरदरशन-जञान- चारितर स ही कहा ह।

अर । सचच माग और सचच ततव को समझ बिना जीव कहा भरटक जाता ह। शासतर म वयवहार क कथन तो अनक परकार क शरात ह, परनत मल तततव को और वीतराग-भावरप मारग को लकषय म रखकर इसका शररथ समभना चाहिय। घभराग स ऊचा पणय बघता ह - ऐसा बतलान क लिए उसकी महिमा की, वहा कोई रसम ही घरम मानकर अटक जाता ह |

गरनय कितन ही जीव तो भगवान का जिनमनदिर होता ह, वहा दरशन करन भी नही जात। भाई ! जिस वीतरागरता:का परम होता ह

वीतरागता का परमी ] ह [ १३७

शरौर जिनमनदिर का योग हो, वहा वह भकत स परतिदिन दरशन करन जाता ह। जिनमनदिर बनवान की बात तो दर रही, परनत वहा दरशन करन जान का भी जिस अवकाश नही, उस धरम का परम कौन कह ? बड-बड मनि भी वीतराग परतिमा का भकति स दरशन करत ह और उसकी सतति करत ह

पोन‍नर गराम म एक पराना मनदिर ह। कनदकनदाचायदव भी जब उस गराम म आय, तब व भी वहा दरशन करन जात थ ।! समनतभदग सवामी न भी भगवान की अदभत सवति की ह। दो हजार वरष ga feet as राजा को जिनबिमब-परतिषठा करवानी थी, तब कनदकनदाचारयदव न शरपन शिषय जयसन मनि को उसकी विधि क लिय शासतर रचन की आजञा दी और जयसन सवामी न मातर दो दिन म परतिषठापाठ की रचना की, इसलिय कनदकनदाचारयदव न उन जयसनसवामी को 'वसबिनद' अरथात‌ शराठ करमो का अभाव करनवाल -- ऐसा विशषण दिया। उनका रखा परतिषठा-पाठ “बसबिनद परतिषठापाठ” कहलाता ह। उसक आधार स परतिषठा की विधि होती ह ।

बड-बड धरमातमाओ को जिनभगवान की परतिषठा का, उनक दरशन का ऐसा भाव आता ह और त कहता ह कि मझ दशन करन का अवकाश नही मिलता अथवा मझ पजा करत शरम आती ह तो तझ धरम की रचि नही, दव-गर का तझ परम नही | पाप क काम म तझ अरवकाश मिलता ह और यहा तझ अवकाश नही मिलता - यह तो तरा वयरथ का बहाना ह | जगत‌ क पापकारयो म, कालाबाजार आदि क करन म तझ शरम नही आती भरौर यहा भगवान क समीप जाकर पजा करन म तझ शरम आती ह; वाह ! बलिहारी ह तरी शधाई की ।

शरम तो पापकाय करन म भरानी चाहिय, उसक बदल वहा तो तझ परसननता होती ह और धरम क कारय म शरम झरान की बात कहता ह, वासतव म तझ धरम का परम ही नही ह।

एक राजा की कथा आती ह कि वह. राजदरबार म आ रहा था।

रासत म किन‍ही मनिराज क दरशन हय, राजा न भकति स उनक चरण म मकटबदध सिर भकाया शरौर परचात‌ राजदरबार म गया। दीवान

1. पजय सवाभीजी न भी सवत‌ २०२० म दकषिण की यातरा करत समय पोन‍नर की यातरा भी की थी '

१३८ | [ शरावकररम परकाश

न मकट पर धल लगी दखी तो वह उस भाडन लगा। तब राजा उस रोककर कहत ह कि दीवानजी ! रहन दो; इस रज स तो मर मकट की शोभा ह, यह रज तो मर बीतराग गर क चरण स पवितर हई ह।

दखो यह भकति ! इसम उस शरम नही शराती कि at! ar

बहमलय मकट म धल लग गई शरथवा शरनय मरी हसी उडावग। अर, भवित म शरम कसी ? भगवान क भकत को दरशन बिना चन नही | -

यहा (सोनगढ म) पहल जिनमनदिर नही था, तब भकतो-को एसा विचार आया कि अर ! अपन को यहा भगवान aT fare gare, उनका साकषात‌ तो दरशन ह नही और उनकी परतिमा क भी दरशन नही - इसपरकार उनह दशत की भावना उतपनन हई | अतः सवत‌ १६६७ म यह जिनमनदिर बना. शराचारयदव कहत ह कि अरहो ! भगवान क दरशन स किस परसननता न हो ? जो जिनमनदिर तथा जिनपरतिमा-सथापन कराव,

उसक पणय की कया बात ? भरत चकरवरती न पाच-पाच सौ घनषय की ऊची परतिमाय

सथापित करवाई थी, उनकी शोभा की क‍या बात ?

वततमान म भी दखिय ! (शरवणबलगोला म ). भगवान की मरति बाहबली कसी ह ! भरहा, वरतमान म तो कही भी इसक समान अनय मरति नही । महान मनि नमीचनदर सिदधानतचकऋरवरती क दवारा इसकी परतिषठा हई ह और इसक सामन की पहाडी (चनदरगिरि) पर एक जिनालय म उनहोन गोममटसार की रचना की थी | बाहबली भगवान की यह परतिमा गोमटशवर भी कहलाती ह.। यह सततावन फीट ऊची ह और इसका अचिनतय दरशन ह पणय और पविननता दोनो की फलक इनकी मदरा ऊपर चमकती ह और बाहबली भगवान की अनय एक अतयनत छोटी (चन क

दान बराबर) रततपरतिमा मलबिदवी म ह - ऐसी परतिमा. करान का उतसाह धरमातमाओनो को आता ह - ऐसा यहा बताना ह।

दखो ! यह किसकी बात चलती ह ? यह शरावक क धरम की बात चलती ह। आतमा राग रहित शदध चतनयसवरप ह, उसकी रचि करक राग घटान का अनतर-परयतन, वह गरहसथधरम का परकाश करनवाला ant ह | उसम दान क वरणन म जिनपरतिमा करान का विशलष वरणन किया ह। जिसपरकार जिस धन परिय ह, वह धनवान क गणगान करता ह; उसीपरकार जिस बीतरागता परिय ह, . वह भकतिपवक वीतरागदव क गणगान करता ह, उनक विरह म उनको सथापना परतिमा म करक दशशन-

बोतरागता का परमी ] [ १३६

सतति करता ह। इसपरकार शदधसवरप की दषटि रखकर गरशभ सथानो स बचता ह - ऐसा शरावक-भमिका का धरम ह ।

कोई कह कि शदधता वह मनि का धरम और शभराग वह शरावक का धम; तो ऐसा नही ह। धरम तो मनि को अथवा शरावक को दोनो को एक ही परकार का राग रहित शदध परिणतिरप ही ह; परनत शरावक को अभी शदधता अलप ह, वहा राग क भद जिनपजा, दान आदि होत ह, इसलिए शदधता क साथ इन शभकारयो को भी गहसथ क धरमरप वरणन

किया ह परथात‌ इस भमिका म ऐस शभभाव होत ह ।

दखिय ! नगन - दिगमबर सनत, वन म बसनवाल और सवरप की साधना म छठव-सातव गणसथान म भलनवाल मनि को भी भगवान क परति कस भाव उललसित होत ह ? व कहत ह कि छोटा-सा मनदिर बनाव और उसम जौ क दान जितनी जिनपरतिमा की सथापना कर, उस say क पणय की अपरव महिमा ह। अरथात‌ उस वीतरागभाव की जो रचि हई ह, उसक महान फल की. क‍या बात ? परतिमा चाह छोटी हो, परनत वह वीतरागता का परतीक ह न ? उसकी सथापना करनवाल को वीतराग का आदर ह - इसका फल महान ह।

कनदकनद सवामी तो कहत ह कि शररहततदव को बराबर पहचान तो समयनदरशन हो जाव । जिस वीतरागता परिय लगी, जिस सरवजञसवभाव रचा; उस सरवजञ-वीतराग दव क परति परमभकति का उललास आता ह । इनदर जस भी दवलोक स उतरकर समवसरण म शरा-आकर तीरथकर परभ क चरणो की सवा करत ह, हजार हजार शराखो स परभ को दखत ह; तो भी उनकी तपति नही होती। गरहो ! आपकी वीतरागी शानत मदरा दखा ही कर - ऐसा लगता ह।

गहसथ की भमिका म ऐस भावो स ऊची जाति का पणय बचता ह। उस राग तो ह, परनत राग की दिशा ससार की तरफ स हटकर घरम की तरफ हो गई ह; इसलिय वीतरागता की भावना खब घटती रहती ह। अहा ! भगवान सवरप म ठहर गय-स लगत हो, जञाता-हषठापन स जगत‌ को साकषोरप दख रह हो शलौर उपशम-रस की धारा बरस रही हो - एसी भाववाही जिनपरतिमा होती ह.।। ऐसी निविकार वीतराग जिनमदरा का दरशन, वह अपन वीतरागसवभाव क समरण और धयान का निमितत ह।

घरमी का धयय वीतरागता ह । जिसपरकार चतर किसान बीज को

१४० ] [. कलावकधमपरकाश

चार क लिय नही बोता, परनत शरगाज क लिए बोता ह, अनाज क साथ चारा भी बहत होता-ह; उसीपरकार. घरमी का परयतन वीतरागता क लिय ह, राग क लिए नही, चतनयसवभाव की हदषटिपवक शदधता को साधत-साधत बीज म पणयरपी ऊचा घास भी बहत पकता ह। परनत इस घास को कोई मनषय नही खाता, मनषय तो शरनाज खात ह; उसीपरकार धरमीजीव राग को अथवा पणय को आदरणीय नही मानता ह, वीतराग- भाव को ही आदरणीय मानता ह। दखो, इसम दोनो बात इकटठी ह। शरावक की भमिका म राग कसा होता ह - इसका सवरप इसम AT जाता ह ।

जञानी को धरम सहित जो पणय होता ह, वह ऊची जाति का होता ह; अजञानी का पणय बिना सारवाला होता ह, उसकी परयाय म धरम का दषकाल ह। जिसपरकार उततम अरनाज क साथ जो घास पकता ह, वह घास भी पषटिकर होता ह भर दषकाल म शरनाज क बिना अकला जो घास पकता ह, उसम बहत पषटि नही होती; उसीपरकार जहा धरम का दषकाल ह, वहा पषय भी हलका होता ह और धरम की भमिका म पणय भी ऊची जाति का होता ह।

तीरथकरपना, चकरवरतीपना, इनदरपना आदि का लोकोततर पषय धरम की भमिका म ही बधता ह। गहसथो की जिनमनदिर, जिनबिमब बनवान स तथा आहारदान आदि स महान पणय बघता ह; इसलिय मनिराज नउनका उपदश दिया ह!

गरहो |! अविकत सवरप क आननद म फलनवाल सत, जो पराण जाव

तो भी भठ नही बोलत शरौर जिनह इनदराणी भो शराकाश स उतर आय तो भी अशभ वतति नही उठती - ऐस वीतरागी मनि का यह यह कथन ह। जगत‌ क पास स उनह एक कण भी नही चाहिय, मातर जगत‌ क जीवो को लोभरपी पाप क कए स निकालन और धरम म. लगान हत करणापरवक उपदश दिया ह ।

जिसका हदय पतथर जसा हो, उसकी अलग बात ह; परनत फल की कली जसा कोमल हदय हो, उस तो वीतरागी उपदश की TAX सनत ही परसननता हो उठगी, जिननदर-भकतिवत तो आराननदित होगा। जिसपरकार उलल को अरथवा घगघ को सरय का परकाश अचछा नही लगता ह, उस तो शरघरा अचछा लगता ह; उसीपरकार चतनय का परकाश

« करनवाला यह वीतरागी उपदश जिस नही रचता, वह अरभी मिथयातव क

वोतरागरता की परमी ] LT tee

घोर अधकार म पडा हआ ह । जिजञास को तो ऐसा उललास आता ह कि झहो ! यह तो मर चतनय का परकाश करनवाली अपरव बात ह। तीन लोक क नाथ जिनदव जिसम विराजमान होत ह, उसकी झोभा हत चरमी भकतो को उललास होता ह । '

वादिराज सवामी कहत ह कि परभो | शराप जिस नगरी म शरवतार लत ह, वह नगरी सोन की हो जाती ह, तो धयान दवारा मन मर हदय म आपको, सथापित किया तो यह शरीर बिना रोग का सोन जसा न होव - यह कस हो सकता ह? झर आपको आतमा म विराजमान करत ही आतमा म स मोहरोग नषट होकर शदधता न होव - यह कस बन ?

धरमी शरावक को, उसीपरकार धरम क जिजञास जन को ऐसा भाव

आता ह कि शरहमी ! म मर वीतरागसवभाव क परतिबिमबरप इस जिनमदरा को परतिदिन दख | जिसपरकार माता को पतर क बिना चनन पड, उसीपरकार भगवान क विरह म भगवान क पतरो को - भगवान क भकतो को चन नही पडती ।

चलना रानी शर णिक राजा क राजय म आई; परनत शरणिक तो बौदधधरम को मानत थ, इसलिय उस वहा जनघरम की छठटा नही दिखी, इसकारण चलना को किसीपरकार चन नही पडी | शराखिर म राजा को समभाकर बड-बड जिनमनदिर बनवाय और शरणिक राजा को भी जनघरम गरहण करवाया ।

' इसीपरकार हरिषण चकरवरती की भी कथा ardt ह। उसकी माता जिनदव की विशाल रथयातरा निकालन की माग करती रही; परनत gaat रानियो न उस रथ को रकवा दिया, इसलिय हरिषण की माता न शरनशन की परतिजञा ली कि जब मर जिननदर भगवान का रथ धमधाम स निकलगा, तभी म शराहवर लगी। गबराखिर म उसक पतर न चकरवरती होकर धमधाम स भगवान की रथयातरा निकाली ।

अकलक सवामी क समय म भी ऐसी ही बात हई और उनहोन बौदध गर को वाद-विवाद म हराकर भगवान की रथयातरा निकलवायी ओर जनघरम की. बहत परभावना की |

इसपरकार घरमी शरावक भकतिपरवक जिनशासन की परभावना करत ह, जिनमनदिर बधवात ह, वीतराग जिनबिमब की सथापना करत ह शर इसक कारण उनह परतिञयय पषय बधता ह ।

wR ] [ शरावकधरमपरकाश

चाह छोटी-सी वीतराग परतिमा हो, परनत सथापना म तरकालिक वीतरागरमाग का आदर ह। इस मारग क आदर स ऊचा पणय बघता ह।

इसपरकार जिनदव क भकत धरमी शरावक अतयनत बहमान स जिनमनदिर तथा जिनबिमब की सथापना करत ह, वह बात कही तथा उसका उततम फल बतलाया । जहा जिनमनदिर होता ह, वहा सदव धरम क नय-नय मगल उतसव होत रहत ह- यह बात अब अगली गाथा म कहग ।

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\ गरातमा का जीवन

I भगवान आतमा अतीनदरि महान पदारथय ह, वह चतनय पराण स \ शाशवत जीवित रहनवाला ह। जिसन शरपना ऐसा असतितव सवीकार

i किया ह, उस जड इनदरिय आदि पराणो क साथ एकताबदधि नही रहती; कयोकि व जड पराण कही आतमा क जीवन क कारण नही

| ह। शरीरादि जड पराण तो गरातमा स भिनन ह और पथक हो जात !$ ह। यदि आतमा उनस जीवित रहता हो तो व आतमा स भिनन कयो

\ होव ? उनक असतितव स कही आतमा का असतितव नही, AAT BT "| असतितव अपन चतनय भावपराण स ही ह। ऐस चतनय जीव को |

जिसन दखा, उस समयगहषटि को मरण का भय क‍यो हो ? मरण ही &

मरा नही, फिर मरण का भय कसा ?

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इसपरकार धरमीजीव मरण क भय स रहित निःशक तथा \

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५ को तो आननद की लहर ह, कयोकि वह परथम स ही अपन को शरीर

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धरमपरवतति क विविध परकार

यातराभिः सनपनमहोतसवशतः परजाभिरललोचक:

नवध बलिभिधवजशनल कलश: तयतरिकजगिर: ।

घटाचामरदरपणादिभिरषि परसताय शोभा परा

wear: Gergana aad Beara चतयालय ॥२३॥।

सासानयारथ :- ससार म चतयालय क होन पर अनक wey sila यातराओ (जलयातरा शरादि), शरभिषको, सकडो महान‌ erat, was परकार क पजा-विधानो, चदोबो, नवदयो, wa gag, canst, कलशो, तौयतरिको ( गीत, नतय, बादितर ), जागररो तथा घटा, चामर और दरपणादिको क दवारा उतकषट शोभा का विसतार करक निरनतर पणय का उपाजन करत ह ।

शलोक २३ पर परवचन

जहा जिनमनदिर हो, वहा शरावक हमशा भकति स नय-तय उतसव करता ह; उसका वरणन करत ह ।

दखो ! जहा धरम क परमी शरावक हो, वहा जिनमदिर होता ह और जहा मनदिर हो, वहा परतिदिन मगल-महोतसव होत रहत ह। किसीसमय मनदिर की वरषगाठ हो, भगवान क कलयाणक का परसग हो, पय षण हो, अषटाकलिका परव हो - ऐस झनक परसगो म धरमीजीव भगवान क मनदिर म पजा-भकति का उतसव कराव । इस बहान दानादि म अपना घन खरच करक शभभाव कर और राग को घटाव ।

यदयपि वीतराग भगवान तो कछ नही दत शनौर कछ नही लत, पजा करनवाल क भरति अथवा निन‍दा करनवाल क-परति उनह तो वीतराग-

१४४ ] [ शरावकघमपरकाश

भाव ही वरतता ह; परनत भकत को जिनमनदिर की शोभा शरादि का उललासभाव आय बिना नही रहता। शरपन घर की शोभा बढान का भाव कस आता ह ? उसीपरकार-धरमी को धरमपरसग म जिनमनदिर की शोभा किसपरकार बढ - ऐसा भाव शरातः ह ।

शरावक अतयनत भकति स शदधजल दवारा भगवान का अभिषक कर, तब उस ऐसा भाव उललसित हो कि मानो साकषात‌ शररहनतदव का ही सपरश हो रहा हो। जिसपरकार पतर क लगन शरादि परसग म उतसव करता ह और मडप की तथा घर को शोभा करता ह, उसकी शरपकषा अधिक उतसाह स धरमी जीव धरम की शोभा और उतसव कराव | जहा मनदिर हो और जहा घरमी शरावक हो, वहा बारमबार आननद-मगल क ऐस परसग बना कर और घर क छोट बचचो म भी करम क ससकार पड ।

घमम क लिए जो अनकल न हो अरथवा धरम क लिए जो बाधाकारक लग - ऐस दश को, ऐस सयोग को धरमीजीव छोड द । जहा जिनमनदिर शरादि हो, वहा धरमातमा रह और वहा नय-नय मगल-उतसव हथना कर। यदि कोई विजलष परकार का जिनमनदिर भरथवा जिनपरतिमा हो तो वहा यातरा करन क लिय अनक शरावक झाव | सममदशिखर, गिरनार आदि

तीरथो की यातरा भी शरावक करता ह इसपरकार यह मोकषगामी सन‍तो को याद करता ह । ह

किसी समय मनदिर की वरषगाठ हो, किसो समय मनदिर को दस ATA THT WAIT सौ वरष पर होत हो तो वह उसका उतसबर कर। कोई ag danger aft arf पधार, तब उतसव कर। पतर-पतरी क लगनोतसव-जनमोतसव आदि क निमितत भी मदिर म पजनादि स शोभा कराव, रथयातरा निकलवाय - इसपरकार परतयक परसग म गहसथ धरम को याद किया कर।

कोई नया महान‌ TEA Hla, TT उसक बहमान का उतसव कर। शासतर अरथात‌ जिनवाणी, वह भी भगवान की तरह ही पजय ह। अपन घर को वोरण आदि स शव गारित कस करता ह और नय-नय वसतर लाता ह ? उसीपरकार जिनमनदिर क दवार को भाति-भाति क तोरण आदि स शगारित कर और नय-नय चदोबा आदि स शोभा बढाव। इसपरकार शरावक क राग की दशा बदल गई ह; साथ ही साथ वह यह भी जानता ह कि यह राग पणयाखव का कारण ह भौर जितनी: वीतरागरी शदधता ह, उतना हो मोकषमाग ह ।

कषाबक की धरमपरवतति क विविध परकार ] [ १४५

जिनमनदिर क ऊपर कलश तथा धवज चढवान का भी महान उतसव होता ह। पहल तो शिखर म भी कीमती रतन लगवात थ जो जगमगात थ। नय-नय वीतरागी चितरो दवारा मचदिर की शोभा कर - | इसपरकार शरावक सरव परकार स ससार का परम कम करक धरम का परम बढाता ह | जिस वीतरागमारग क परति परम उललसित हगना ह, उस ऐस . भाव शरावकदशा म गरात ह ।

इस धल क ढर जस शरीर का फोटो किसपरकार निकलवाता ह कितन परम स दखता ह और शव गार करता ह. ? तो वीतरागी जिनबिमब वीतराग भगवान का फोटो ह। परमातमदशा जिस परिय हो, उस इनक परति परम और उललास आता ह।

कवल कल विशयष म जनम लन स शरावकपना नही हो जाता, परनत सरवजञ की पहिचरानपरवक करावकधरम का आच रण करन स शरावकपना होता ह। समयसार म जसा एकतव-विभकक‍त शदधातमा बतलाया ह, वस शदध आतमा की पहिचानपरवक समयरदरशत हो तो शरावकपना जझोभा दता ह | समयगदरशन क बिना शरावकपना जोभा नही दता ।

निविकलप अनभति सहित समयरदरशन हो, उसक बाद आननद की शरनभति शरौर सवरपसथिरता बढ जान स शरपरतयाखयान कषायो का भी भरभाव होता ह - ऐसी आशिक भररागी दशा हो, उसका नाम शरावकपना ह और उस भमिका म जो राग बाकी ह, उसम जिननदर दशन-पजन, गरसवा, शासतरसवाधयाय, दान, अशकरत आदि होत ह; इसलिय वह भी वयवहार स शरावक का धरम ह - ऐस शरावकधरम का यह परकाशन ह ।

वरतमान म तीरथकर भगवान साकषात‌ नही ह; परनत उनकी वाणी तो ह, इस वाणी स भी बहत उपकार होता ह; इसलिए उस वाणी की (शासतर की) भी परतिषठा की जाती ह और भगवान की मति क समकष दखन स ऐसा लगता ह कि मानो साकषात‌ भगवान मर सामन ही विराज रह ह। इसपरकार अपन जञान म भगवान को परतयकष करक साधक को भकतिभाव उछसित होता ह। परतिदिन भगवान का अभिषक करत समय परभ का सपरश होन पर शरावक महान हरष मानता ह कि अहो ! आज मन भगवान क चरण सपरश किय, आज भगवान की चरणसवा का परमसौभागय मिला ।

इसपरकार घरमतमा क हदय म भगवान क परति परम उमडता ह। मनदिर म भगवान क पास स घर जाना पडता ह, वहा उस शरचछा नही

१४६ ] [ शरावकधमम परकाश

लगता, उस लगता ह कि भगवान क पास ही बठा रह। भगवान की पजा आरादि क बतन भी उततम होव; घर म तो अचछ बतन रख शरौर पजन करन हत मामली बतन ल जाव - ऐसा नही होता | इसपरकार शरावक को तो चारो ओर स सभी पहलओ का विवक होता ह । साधमियो पर भो उस परम वातसलयभाव होता ह ।

जिस वीतरागसवभाव का भान हआ ह और मनिदशा की भावना वतती ह - ऐस जीव का यह वरणन ह। उसक पहल जिजञास भमिका म भी यह बात यथायोगय समभ लना चाहिय। धरम क उतसव म जो भकतिपरवक भाग नही लता, जिसक घर म दान नही होता;उस शासतरकार कहत ह कि भाई ! तरा गहसथाशरम शोभा नही पाता । जिस गहसथाशरम म रोज-रोज धरम क . उतसव हत दान होता ह, जहा धरमातमा का गरादर होता ह; वह गहसथाशषम शोभा पाता ह और वह शरावक परशसनीय ह ।

शरहम ! छदधातमा को दषटि म लत ही जिसकी हषटि म स सभी राग छट गया ह, उसक परिणाम म राग की कितनी मनदता होती ह ? और यह मनद राग भी सरवथा छटकर वीतरागता हो, तब कवलजञान और मकति होती ह । जो ऐस मोकष का साधक हआ ह, उस राग का आदर कस होव ? अरपन वीतरागसवभाव का जिस भान ह, वह सामन वीतरागबिमब को दखकर भी साकषात‌ जिनदर की तरह ही भकति करता ह; कयोकि उसन अपन जञान म तो साकषात‌रप म भगवान दख ह ना ? .

शरावक को सवभाव क शरानन‍द का अनभव हथा ह | वह सवभाव-कक - आराननदसागर म एकागर होकर बारमबार उसका सवाद चखता ह, उपयोग को अनतर म जोडकर शानतरस म बारमबार सथिर होता ह; परनत वहा विशष उपयोग नही ठहरता, इसलिय वह भशयभ परसगो को छोडकर शभ परसग: म ही वरतता ह, उसका यह वरणन ह ।

ऐसी भमिकावाला आय परण होन पर सवरग म ही जाव - ऐसा नियम ह; कयोकि शरावक को सीधी मोकषपरापति नही होती, सरवसगतयागी मनिपन क बिना सीधी मोकषपरापति किसी को नही होती। साथ ही पचमगरणसथानी शरावक सवरग सिवाय अरनय कोई गति म भी नही जाता, गरतः शरावक छभभाव क फल म सव म ही जाता ह । पीछ क‍या होता ह वह बात आग की गाथा म कहग ।

theo

परमपरा स मोकष क साधक: शरावक

त चाणतरतधारिशोषपि नियत यान‍नतयव sara तिषठतपव सहदधिकासरपद ततरव लबधवा चिरस‌। शरतरागतय पनः कलइतिमहति परापय परकषट शभात‌ सानषय च विरागता च सकलतयाग च मकतासततः ॥२४॥

सामासयारथ :- वह शरावक चाह सनिवरत न ल सक और MYATT At हो तो भी झाय परण होन पर नियम स सवरग म जाता ह, वहा अखिसा झरादि महान ऋदधियो सहित बहत काल परयनत दवपद म रहता ह । उसक बाद परकषट शभभाव दवारा महान उततम कल म भनषयपना परापत कर, बरागी होकर, सकल परियगरह का तयाग कर, मनि होकर शदधोपयोगरपी साधन दवारा मोकष पहचता ह। इसपरकार शरावक परमपरा स मोकष को साधता ह - ऐसा जानना।

इलोक २४ पर परधचन

धरमी शरावक सरवजञदव को पहिचानकर परतिदिन दवपजा आदि षटकाय करता ह, जिनमनदिर म अनक उतसव करता ह और उसस पणय बाधकर सवरग म जाता ह; वहा आराधना चाल रखकर बाद म उततम मनषय होकर मनिपना लकर कवलजञान और मोकष पाता ह - ऐसी बात गरव कहत ह

मति तो मोकष क साकषात‌ साधक ह और शरावक परमपरा स मोकष का साधक ह ! शकरावक को कवल वयवहारसाधन ह - ऐसा नही, किनत उस भी अरशरप निवचयसाधन होता ह और वह निशचय क बल स ही भररथात‌ शदधि क बल स ही आग बढकर राग तोडकर कवलजञान और

१४८ J [ शकषावकधरम परकाश

मोकष पाता ह। शरावक को शरभो शदधत कम ह और राग भी जरष ह, इसलिय वह सवर म महान ऋदधि सहित दव होता ह ।

समयगहषटि शरावक मरकर कभी भी विदहकषतर म जनम नही लता । मनषयगति स मरकर विदहकषतर म उतपनन होनवाला तो मिथयादषटि ही होता ह | पहल Set हई आय क कारण जो समकिती मनषय पनः सीधा मनषय ही बन, वह तो असखय वरष की शरायवाली भोगभमि म ही जनम लव; विदह आरादि म जनम नही लता और पचम गणसथानवरती शरावक तो कभी मनषयपरयाय म स मनषय होता ही नही, दवगति म ही जाता ह - ऐसा नियम ह। समयसहषटि मनषय कभी मनषय, तिरयच अथवा नरक की आय नही बाचता । मनषयगति म य तीनो आय मिथयाहषटि की भमिका म at Fact Ft ATT Say TT चाह समयगदशन परापत हो जाय - यह बात अलग ह, परनत इन तीन म स कोई आय बाधत समय तो वह मनषय मिथयाहषटि ही होता ह ।

समयमहषटि यदि दव या नारकी हो तो वह तो मनषय. की आय बाध सक; परनत समयरहषटि मनषय, यदि उस भव होव और गराय बाघ तो aanfa a arg ata, wea a ate — ऐसा नियम ह।

गहसथपन म शरधिक स अधिक पाचव गणसथान तक की भमिठा होती ह, इसस ऊची भमिका नही होती । वह अरधिक स गरधिक एक' भवावतारी हो सक, परनत गरहसथावसथा म मोकष नही पा सकता। बाहय-अमयनतर दिगमबर मनिदशा हए बिना कोई जीव मोकष नही पा सकता ।

शरावक-घरमातमा आराधकभाव क साथ उततम पणय क कारण यहा स बमानिक दवलोक म जाता ह, वहा अनक परकार महानऋदधि और बभव होत ह; परनत धरमी उनम मछित ( मोहित ) नही होता, वह वहा भी आराधना चाल रखता ह। उसन आतमा का सख चखा ह, इसलिय बाहय वभव म मछित नही होता । सवरग म जनम होन पर वहा सबस पहल उस ऐसा भाव होता ह कि अरहो ! यह तो मन पवभव म घरम का सवन किया था, उसका फल ह; मरी आराधना अधरी रह गई और राग शष रहा, इसकारण यहा भरवतार हआ; पहल जिननदरभगवान की पजन-भकति की थी, उसका यह फल ह, इसलिय चलो ! सबस पहल जिननदर भगवात का पजन करना चाहिय - ऐसा कहकर सवरग म जो _ शाशवत जिनपरतिमाय ह, उनकी पजा करता ह ।

परमपर। स मोकष क साधक : शरावक ] [ १४६

इसपरकार वह सवरग म भी आराधकभाव चाल रखकर, वहा असखय वरष की आय परण होन पर उततम मनषयकल म जनम लता ह और योगय काल म बरागय पाकर मनि होकर भातमसाधना परण करक कवलजञान परगट करक सिदधालय म जाता ह ।

दखो इस शरावकदशा का Ga! sae ey fag wart Fe mien oa ara होता ह और वह एकभवावतारी भी होता ह - यह उतकषट बात कही । किसी जीव को दो-तीन अशरथवा अधिक स अधिक आठ भव भी ( आराधकभाव सहित ) होत ह, परनत व तो मोकषपरी म जात-जात बीच म विशवास लन जितन ह ।

दखो ! यह शरावकधरम क फल म मोकषपरापति कही ह अरथात‌ यहा शरावकरम म. एकमातर पणय की बात नही, परनत समयकतव सहित शदधता की बात ह। गरातमा क जञान बिता सचचा शरावकपना नहो होता। शरावकपना क‍या ह - इसका भी बहतो को जञान नही | जनकल म जनम लन स ही शरावकपना मान ल; परनत ऐसा शरावकपना नही ह, शावकपतः a area की दशा म ह। भरपन तो गहसथ ह, इसलिय सतरी-कटमब की सभाल करना शरपना कततवय ह - ऐसा शरजञानी मानता ह; परनत भाई! तरा सचचा करतवय तो अपनी शरातमा को सधारन का ह, जीवन म यही सचचा कतजय ह, अनय सभाल करना तरा Hey TET

अर, पहल ऐसी शरदधा तो कर ! शरदधा क पदचात‌ शरलप रागादि होग; परनत धरमी उस करतवय नही सवीकारता, इसलिए व रागादि लगड हो जावग, अतयनत मन‍द हो जावग ।

. जस रग-बिरग कपड स लिपटी सोन की लकडी कोई वसनररप नही होती, उसीपरकार चितर-विचितर परमाणापरो क समह स लिपटी यह ATT लकडी कोई शरीररप हई नही, भिनन ही ह !

: आतमा की जहा शरीर ही नही; वहा पतर, मकान आदि कस ? -- य तो सवरप स बाहर दर पड ह - ऐसा मदजञान करना सचचा विवक और चतराई ह। बाहर की चतराई म तो कोई हित नही, चतर उस कहत ह जो चतनय को चत-जान | विवकी उस कहत ह जो सव-पर का विवक कर भरथात‌ भिननता जान | जीव उस कहत ह जो जञान-पराननदमय जीवन जीव । चतर उस कहत ह जो आतमा क जानन म अपनी चतराई खरच कर; शरातमा क जानन म जो मढ रह, उस चतर कौन कह ” उस सिवकी कौन कह ? और परातमजञान बिना जीवन को जीवन कौन कह ?

१५० ] [ करावकधरमपरकाश

भाई ! मलभत वसत तो आतमा की पहिचान ह। तीरथयातरा का भी मखय हत यह ह कि तीथो म आाराधक जीवो का विशष समरण होता ह तथा किसी सनत-धरमातमा का सतसग मिलता ह। शरहिसा शरादि अरषरत का पालन, जिननदरदव क दरशन-पजन एव तीरथयातरा झरादि स शरावक को

उततम पणय बधघता ह और वह सवरग म जाता ह। शरावक को ऐसी भावना नही ह कि म पणय कर और सवरग म जाऊ; परनत जस किसी को चौबीस गाव जाना हो और सोलह गाव चलकर बीच म थोड समय विशवाम क लिय रक जाव तो वह कोई वहा रकन क लिय नही रका, उसका धयय तो चौबीस गाव जान का ह; उसीपरकार धरमी को सिदधपद म जात-जात, राम छटत-छटत कछ राग शष रह गया ह, इसलिय बीच म सवरग का भव होता ह; परनत इसका धयय कोई वहा रकन का नही, उसका धयय तो परमातमसवरप की परापति करना ही ह। मनषयभव म हो झथवा सवरग म हो, परनत वह परमातमपद की परापति की भावना स ही जीवन बिताता ह।

दखो ! शरीमद‌ राजचनदरजी भी गहसथपना म रहकर मनिदशा की कसी भावना भात थ ?? आशिक शदध परिणति स यकत धरमातमा का जीवन भी अलौकिक होता ह।

पणय और पाप शरथवा शभ या अशभ राग विकति ह; उसक गरभाव स आननददशा परगट होती ह, यह सवाभाविक मकक‍तदशा ह। साधक शरावक को भी ऐसी आनन‍नददशा का AMAT NTS हो गया ह । wal दशा को पहचानलकर, उसकी भावना भाकर जिसपरकार बन उसपरकार सवरप म रमणता बढान और राग को घटान का परयतन करना, जिसस झलपकाल म परण परमातमदशा परगट होन का परसग ATA |

भाई ! समपरण रागन छट और त गहसथदशा म हो, तब; तरी लकषमी को धरमपरसग स खरच करक सफल कर । जस चनदरकानतमणि की सफलता कब ? चनदरकिरण क सपरश स उसम स शरमत भर तब; उसीपरकार लकषमी की शोभा कब ? सतपातर क योग स यह दान म खरच होव तब ।

शरावक घरमीजीव निशचय स तो अनतर म सवय अपन को वीतराग- भाव का दान करता ह और शभराग दवारा मनियो क परति, साधमियो

1. शरीमद‌ राजचनदरजी न 'भपरव भरवसर' कावय म भो मनिपद की उतकषट भावना भागी ह ।

परमपरा स मोकष क साधक : शरावक ] [ १५१

क परति भकति स दानादि दता ह, जिननदरदव की पजनादि करता ह- ऐसा उसका वयवहार ह । इसपरकार चौथ-पाचव गणसथान की भमिका म घरमी को ऐसा निरचय-वयवहार होता ह।

कोई कह कि चौथ गणसथान की भमिका म जरा भी निदचयघरम नही होता; तो वह बात असतय ह, निशचय बिना मोकषमारग कसा ? और वहा निशचयघरम क साथ जो पजा-दान-अशतरत आदि वयवहार ह, उस

भी जो न सवीकार तो वह भी भल ह।

जिस भरमिका म जिसपरकार का निरचय-वयवहार होता ह, उस बराबर सवीकार करना चाहिय। वयवहार क आशरय स मोकषमारग मान तो ही वयवहार को सवीकार किया कहा जाय - ऐसा शरदधान ठीक नही: ह । बहत स ऐसा कहत ह कि तम वयवहार क अरवलमबन स मोकष होना नही सानत, इसलिय तम वयवहार को ही नही मानत; परनत यह बात बराबर नही ह । जगत म तो सवग-न रक, पणय-पाप, जीव-अरजीव सब तततव ह; उनक आशरय स लाभ मान तो ही उनह सवीकार किया कहा जाव -- ऐसा कोई सिदधात नही ह; इसीपरकार वयवहार को भी समझना |

मनिधरम और शरावकधरम - ऐस दोनो परकार क धरमो का भगवान न उपदश दिया ह। इन दोनो धरमो का मल समयगदशन ह वहा सवोनमखता क बल दवारा जितना राग दर होकर शदधता परगट हई, उतना ही निशचयधरम ह और महातरत, अशकषत अरथवा दान-पजा आदि सबधी जितना घभराग रहा, उतना उस भमिका का असदभतवयवहारनय स जानन योगय वयवहा रधम ह ।

धरमीजीव सवरग म जाता ह; वहा भी जिननदरपजन करता ह, भगवान क समवसरण म जाता ह, नन‍दीशवरहदीप जाता ह, भगवान क कलयाणकपरसगो को मनान शराता ह - ऐस अनक परकार क शभकाय करता ह । दवलोक म घरमी की आय इतनी होती ह कि दव क एक भव म तो असखय तीरथकरो क कलयाणक मनाय जात ह; इसलिय दवो को अमर' कहा जाता ह।

दखो तो जीव क परिणाम की शकति कितनी ह ! दो घडी क घदध परिणाम दवारा कवलजञान परापत कर, दो घडी क शभ परिणाम दवारा meer at an at gay बाध और अजञान दवारा तीन पाय कर तो दो घी भ असखय वरष तक नरक क दःख को परापत कर ।

उदाहरणसवरप बरहमदतत चकरवरती की पराथ सात सौ वरष की थी ।

१५२ ] | [ शरावकधमपरकादा

इन सात सौ वरषो क सखयात सकनड होत ह। इतन काल म उसन acy की ततीस सागरो की शररथात‌ शरसखयात अरब बरष की झायष बाधी sala एक-एक सकन‍ड क पाप क फल म असरय अरब वरष क नरक का दःख परापत किया ।

पाप करत समय जीव को विचार नही रहता, परनत इस नरक क दःख की बात सन तो घबराहट हो जाय । यह जिस दःख को भोगता ह उसकी पोडा की कया बात ? परनत इसका वरणन सनत ही अजञानी को भय पदा हो जाय - ऐसा ह; इसलिय ऐसा अरवसर परापत करक जीव को चतना चाहिय। जो चतकर आतमा की आराधना कर तो उसका फल

भहान ह । जिसपरकार पाप क एक सकनड क फल म असखय वरष का नरक-

दःख कहा, उसीपरकार साधकदशा क एक-एक समय की आराघना क फल म अननत काल का अननतगना मोकषसख ह। किसी जीव की साधकदशा का कल काल असखय समय का ही होता ह, सखयात समय का नही होता अथवा अननत समय का नही होता और मोकष का काल तो सादि-अननत ह अरथात‌ एक-एक समय क साघकभाव क फल म MATT HTT ST MAGS AAT । ATS, HAT ATT HT savas |!

भाई ! तर आतमा क शदध परिणाम की शकति कितनी ह, वह तो दख ! ऐस शदध परिणाम स आतमा जागत हो तो कषणमातर म करमो को तोडफोड कर मोकष को परापत कर ल । कोई जीव शरनतम हत ही मनिपना पाल और उस अन‍तम ह म शभ परिणाम स ऐसा पणय बाध कि नवव अ वयक म इकतीस सागरोपरम की सथितिवाला दव होव । दखो, इस जीव क शभ, शरशभ अथवा शदध परिणाम की शकति शलौर उसका फल [! उसम जीव न शभ-अरशभ स सवरग-तरक क भाव तो शरननत बार किय;. परनत जी जीव शदधता परगट करक मोकष को साध, उसकी बलिहारी ह ।

, कोई जीव दव स सीधा दव नही होता । कोई जीव दव स. सीचा: नारकी नही होता । कोई जीव नारकी स सीधा नारकी नही होता । कोई जीव नारकी स सीधा दव नही होता 1

दव मरकर भनषय शरथवा तियच म उतपनन. होता ह। नारकी मरकर मनषय शरथवा तियच म उतपनन होता ह। मनषय मरकर चारो म स किसी भी गति म उतपनन होता ह।. तियच मरकर चारो म स किसी भी गति म उतपनन होता ह 1

परामपरा स मोकष क साधक : शरावक ] [ १५३

यह सामानय बात की, अझब समयगहषटि की बात :- समयगदषटि जीव दव स मनषय म ही आता ह। समयगहषठि जीव

नरक स मनषय म ही शराता ह। समयगहषटि जीव मनषय स दवगति म ही जाता ह। यदि मिथयातवदशा म आय बध गई हो तो नरक भरथवा तियच अथवा मनषय म भी जाता ह। समयसदषटि जोव तियच स दवगति म ही जाता ह ।

पचमगणसथानवरती शरावक तो (तिरयच हो या मनषय) नियम स eat म ही जाता ह। उस शरनय किसी गति की आय नही बघती ।

इसपरकार धरमाशरावक सवग म जाता ह और वहा स मनषय होकर चौदह परकार का अनतरग और दस परकार का बाहय - इसपरकार सरव परिगरह छोडकर, भनि होकर शदधता की शरणी माडकर, सरवजञ होकर सिदधलोक को जाता ह, वहा सदाकाल अननत शरातमिक शरानन‍नद का भोग करता ह। अरहा, .सिदधो क शराननद का कया कहना !

इसपरकार समयकतव सहित शबरणबरतरप MAHA saw को परमपरा स मोकष का कारण ह, इसलिय शरावक उस धरम को अगीकार

. करक उसका पालन कर - ऐसा उपदश ह।

90000

= nr St ee ee ee ee Ee उनपर फममट #

| चतनयमर आतमा \ \ शदधता क मर परवत जसा यह चतनयसवभाव ह, इसम कही i #-भी विकार भरा हआ नही ह। भरसखय saat areal waa AEB, & \ वह चाह जसी परतिकलता म भी निजसवरप स चलित नही होत |

उसक गण का एक शरश भी चलित नही होता, नषट नही होता | ; जिसपरकार मर परवत ऐसा सथिर ह कि चाह जस ऋफावात म भी

\ चलायमान नही होता। उसीपरकार चतनयमर आतमा निजसवभाव म Kl ऐसा अडोल ह कि परतिकलता की आधी उस चलिस नही कर सकती, उसका कोई भी गरण या परिणति नषट नही होती ।. ऐस

॥ सवभाव की शरदधा-जञान करनवाल धरमातमा परतिकल सयोग क \ || चकरवयह क बीच भी सवभाव क शरदधा-जञान स चलित नही होत + वह \

निःशक जानत ह कि म तो जञानसवरप ह । - पजय शरी कानजीसवामी |

= ee ee SS Se ee Se eS a Es:

भमकष को मोकष ही उपादय पसोधथष चतष निशचलतरो मोकषः पर सतसखः शषासतदिपरीतधरभकलिता हया समकषोरतः ।

तससातततपदसाधनतवधरणो धरमोषि नो समतः यो भोगादिनिमिततसव स पनः पाप बघमनयत ॥२५॥

सामासनयारथ :- TH, AA, BIA AIT Mat — इन चार परषारथो म मोकष ही निशचल अविनाशी और सतय सखरप ह, शष तीन तो बिपरीत सवभाववाल ह अरथात‌ शरसथिर और दःखरप ह; शरतः Guat FB faa a ga ह और कवल मोकष ही उपादय ह तथा सोकष क साधनरप बतता हो, वह धरम भी हम मानय ह - समत ह अरथात‌ मोकषमारग को साधत-साधत उसक साथ महातरत शअरथवा अरबननत क जो शभभाव होत ह, व तो समत ह; कयोकि व भी वयवहार स मोकष क साधन ह, परनत जो मातर भोगादि क निमितत ह, उनह तो जञानी पाप कहत ह ।

शलोक २५ पर परवचन शरावक पणयफल को परापत करक मोकष पाता ह - ऐसा बतलाया ।

अरब कहत ह कि शभराग होत हए भी धरमी को मोकषपरषारथ ही मखय ह तथा उपादय ह और उसक साथ म होनवाला गअशकरतादि रपजो वयवहारधरम ह, वह भी मानय ह ।

grades कहत ह कि शरहो ! सचचा सख तो एक मोकषपद म ही ह, wa: ममकषओ को उसका ही परषारथ करना चाहिय | इसक सिवाय अनय भाव तो विपरीत होन स हय ह ।

दखिय ! अनय भावो को विपरीत और हय कहा, उसम शभराग . भी था गया । इसपरकार शभराग को विपरीत और हयरप म सवीकार

ममकष को मोकष ही उपादय ] | १५५

करक, पशचात‌ यदि वह मोकषमाग सहित हो तो उस मानय किया ह अरथात‌ वयवहार स उस मोकषमारग म सवीकार किया ह, परनत यदि साथ स निशचय-मोकषसाधन (समयगदशनादि) न होव तो मोकषमारग स रहित गरकल शभराग को मानय नही करत गररथात‌ उस वयवहार-मोकषसाधन भी नही कह सकत । इसक सिवाय जो काम और भशररथ समबनधी परषारथ ह, बह वो पाप ही ह; अतः सबथा हय ह ।

भाई ! उततम सख का भणडार तो मोकष ह; भरत: मोकषपठषारथ ही सरव परषारथो म शरषठ ह। पणय का परषारथ भी इसकी अपकषा हीन ह और ससार क विषयो की परापति हत जितन परयतन ह, व तो एकदम पाप #; wa: व सरवधा तयाजय ह। साधक को मोकषपरषारथ क साथ गअरशतरतादि शभरागरप जो धरमपरषारथ ह, वह असदभतवयवहारनय स मोकष का साधन हः a: शरावक की भमिका म वह भी वयवहारनय क विषय म गरहण करन योगय ह। मोकष का परषारथ तो सरवशन षठ ह, परनत उसक गरभाव म अरथात‌ निचली साधक दशञा म बरत-महातरतादिरप धरमपरषाथ जरर गरहण करना चाहिय।

गरजञाती भी पाप छोडकर पणय करता ह तो इस कोई शरसवीकार नही करत, पाप की अपकषा तो पणय भला ही ह; परलत कहत ह कि भाई ! मोकषमाग बिना तरा अकला पणय शोभा नही पाता ह; क‍योकि जिस मोकषमारग का लकषय नही, वह तो पणय क फल म मिल हय. भोगो म गरासकत होकर पनः पाप म चला जावगा; शरत: बधजन - जञानी - विदवात ऐस पणय को परमारथ स पाप कहत ह ।!

मोकष म ही सचचा सख ह ऐसा जो समझ, वह राग म या पणयफल म सख कस मान ? नही मान । जिसकी दषटि ahs wT AZ शर जिस उसक फल म सख लगता ह, उस तो शभभाव क साथ भोग की अभिलाषा पडी ह; अतः इस शभ को मोकषमारग म मानय नही करत, उस मोकष क साधन का वयवहार घटित नही होता -ह। धरमी को

1, पापरप को पाप तो जानत जग सह कोई ।

पणयततव भी पाप ह, कहत अरनभवी कोई ॥७१॥

जस बडी लोह ay, cay MA a aT

BL YAYA FU a, AA AH FT aay eM

- सनिराज योगिनददव : योगसार पदयानवाद

१५६ ] [ शरावकधरम परकाश

मोकषमारग साधत-साधत बीच म अभिलाषा रहित और शरदधा म हयबदधि सहित घभराग रहता ह, उसम मोकष क साधन का वयवहार घटित होता ह; परनत जो शर स ही राग को शरदधा म इषट मानकर अपनाता ह, वह राग स दर कस होवगा ? और राग रहित मोकषमारग म कहा स शरावगा ? ऐस जीव क शभ को तो समयसार म भोग हत घरम! कहा ह, उस

मोकष हत धरम” नही कहत । मोकष क हतभत सचच धरम की शरजञानी को पहचान भी नही ह, राग रहित जञान कया ह - उस वह नही जानता, उस शदध जञान क अनभव का भरभाव ह, इसलिय उस मोकषमारग का अभाव ह। धरमी को शदध जञान क भरनभव सहित जो शभराग शष रहा, उस वयवहार स धरम भरथवा मोकष का साधन कहन म आता ह |

नीच की साधक भमिका म ऐसा वयवहार ह जरर; उस जसा ह, वसा मानना चाहिय। इसका अरथ यह नही कि इस ही उपादय मानकर सतषट हो जाना । वासतव म मोकषारथी को उपादय तो निशचय रतनतरयरप मोकषमारग ही ह; उसक साथ उस-उस भमिका म जो वयवहार होता ह, उस वयवहार J MCN] कहा जाता ह। तीरथकरदव का आदर करना, दरशन-पजन करना, मनिवरो की भकति, आहारदान, सवाधयाय, भरहिसादि बरलो का पालन - यह सब वयवहार ह; वह सतय ह, मानय ह, भरादरणीय ह; परनत निशचयदषटि म शदधातमा ही उपादय ह शर उसक शराशनय स ही मोकषमारग ह - ऐसी शरदधा परारमभ स ही होनी चाहिय।

कोई जीव वयवहार को एकानत हय कहकर दवदरशन-पजन-भकति, मनि आदि धरमातमा का बहमान, सवाधयाय, बरतादि को छोड द और अशभ को सव तो वह सवचछनदी और पापी ह | छदधातमा क अनभव म लीनता होत ही य सब वयवहार छट जात ह, परनत उसक परव तो भमिका क अनसार वयवहार क परिणाम होत ह ।

शदधसवरप की हषटि और साथ म भमिकानसार वयवहार - य दोनो साधक को साथ म होत ह। मोकषमारग म ऐसा निरचय-वयवहार होता ह। कोई एकानत भरहण कर पररथात‌ नीच की भमिका म भी वयवहार को सवीकार न कर भरथवा कोई निशचय बिना उस वयवहार को ही सवसव मान ल तो व दोनो मिथयाहषटि ह, एकानतवादी ह आर उनह निदचय की अथवा वयबहार की खबर नही ह ।

नय और निकषप समयसजञान म होत ह अरथात‌ व समयगहषटि क ही सचच होत ह। सवभावहषटि हई, उस समय समयक भावशन‌ त हआ और

भमकष को मोकष ही उपादय ) { १५७

उससमय परमाण और नय सचच हए; बाद म निशचय कया शरौर वयवहार चया - ऐसी उसको खबर पडती ह। निशचय-सापकष वयवहार धरमी को हीः होता ह; अजञानी को जो एकानत वयवहार ह, वह सचचा मारग नही अरथात‌ वह सचचा वयवहार नही ।

घरमीजीव शदधता को साधत हए शौर बीच म भमिकानसार बरतादि वयवहार का पालन करत हए अनतर म अननतसख क भडाररप मोकष को साधत ह ! मोकषमारग ममकष का परमकरतवय ह शरथात‌ वीतरागता ही करतवय ह, राग नही । वीतरागता न हो; वहा तक करमशः जितना राग घट, उतना

घटाना परयोजनवान ह । पहल सचची वीतरागी दषटि कर, कयोकि इसक बाद ही घम म चरण पडत ह।

समयसारकलश टीका म पाणड शरी राजमलजी कहत ह कि मरक चरा होत हए बहत कषट करत ह तो करो तथापि ऐसा करत हए करमकषय तो नही Gate set! तीन सौ - वरष पहल पडित बनारसीदासजी न

इनही शरी राजमलजी को 'समयसार नाटक क मसरमी ? कहा ह।

शरावरकधरम क मल म भी समयगदशन तो होता ही ह। ऐस समयकतव सहित राग घटान का जो उपदश ह, वह हितकारी उपदश ह। भाई ! किसी भी परकार जिनमाग को पाकर सवदरवय क आशरय क बल दवारा राग घटा | इसम तरा हित ह, दान आदि का उपदश भी उसी क लिए दिया - गया ह ।

कोई कह कि खब पसा मिल तो उसम स थोडा दान म लगाऊ, दस लाख मिल तो एक लाख लगाऊ; इसम तो उलटी भावना हई, लोभ का पोषण हआ | पहल घर को आग लगाना ax ie gat Pane उसक पानी स आग बकाना - इसपरकार की यह मरखता ह। वरतमान म पाप बाधकर पीछ दानादि करन को कहता ह, इसकी अपकषा त वरतमान

म ही तषणा घटाल न?

भाई ! एक बार आतमा को जोर दकर तरी रचि की दिशा ही बदल डाल कि मभझभ राग अथवा राग क फल कछ नही चाहिय, शरातमा की शदधता क अभरतिरिक‍त अनय कछ भी मझ नही चाहिय। ऐसी रचि

1, समयसारकलश दीका, warn १४२ nw 2. समयसार नाटक, हरगतिम afer, are 23

१४५८ | [ शरावकधमपरकादश

की दिशा पलटन स तरी दशा पलट जावगी, अपरव दशा परगट हो

जावगी ।

धरमी को जहा आतमा की अपरव दशा परगट हई, वहा उस दह म भी एक परकार की अपरवता झा गई; कयोकि समयकतव शरादि म निमिततभत हो - ऐसी दह परव म कभी नही मिली थी शरथवा समयकतव सहित का पणय जिसम निमितत हो - ऐसी दह पव म मिथयातवदशा म कभी नही मिली थी। वाह ! धरमी का आतमा अपरव, धरमी का पणय भी अपरव और धरमी का दह भी अपरव । धरमी कहता ह कि यह दह शरनतिम ह भरथात‌ फिर स ऐसी ( विराधषकपन की ) दह मिलन की नही; कदाचित‌ कछ भव होग और दह मिलग तो व शराराधकाव सहित ही होग, अतः उसक रजकण भी परव म न आय हो - ऐस अपरव होग; कयोकि यहा जीव क

भाव म ( शभ म भी ) शरपरवता भरा गई ह। घरमीजीव की सभी बात गरलौकिक ह ।

भकतामर-सतोतर क शलोक १२ स शरी मानत ग सवामी भगवान की भकति करत हए कहत ह कि “ह परभ ! जगत‌ म उतकषट शानतरसरप

परिणमित जितन रजकण थ, व सब झा पकी दहरप परिणमित हो गय ह।' - इस कथन म गहन भाव भर ह। परभो ! शरापक कवलजञान की और चतनय क उपशमरस की तो शअरपरवता ह ही और उसक साथ की परम-झौदारिक दह म भी अरपरवता ह। ऐसी दह wer को नही होती । आराधक की सभी बात जगत स भरनोखी ह, उसक शरातमा की घदधता भी जगत स शरनोखी ह और उसका पणय भी अनोखा ह।

इसपरकार मोकष और पणयफल दोनो की बात को फिर कहत ह कि ह ममकष ! तम आदरणीय तो मोकष का ही परषारथ ह, पषय तो इसका आनषगिक फल ह अरथात‌ शरनाज क साथ क घास की तरह यह बीच म सहज ही भरा जाता ह। इसम भी जहा हयबदधि ह, वहा शरावक क लिय पाप की तो बात ही कसी ? इसपरकार धरमी शरावक को मोकष- परषारथ की मखयता का उपदश दिया और उसक साथ पणय क शभ

परिणाम होत ह - यह भी बतलाया ।

(२8)

शरणवरतादि की सफलता

भवयानामणभिनर तरनणशिः साधयातर सोकषः पर नानयत‌ किचिविहव निशचयनयात‌ जोवः सखी जायत । सरव त बरतजातमिहशधिया साफलयसतयनयथा ससाराशरयकारण भवति यत‌ ततदःखसव सफदस ॥॥२६॥

सामानयारथ :- भवयजीब को अशकषत अथवा सहाकषत दवारा मातर सोकष ही साधय ह, ससार समबनधी शरनय कोई भी साधय नही; कयोकि निशचयनय स मोकष म ही जीव सखी होता ह - ऐसी बदधि स शररथात‌ मोकष की बदधि स जो बरतादि किय जात ह, व स सफल ह; परनत इस मोकषरपी धयय को भलकर जो बरतादि किय जात ह, व तो ससार क काररा ह और साकषात‌ दःख ही ह ।

शलोक २६ पर परवचन

घरमीजीब को मोकष ही साधयरप ह। मोकषरप साधय को भलकर

जो अनय का शरादर करता ह, उसक बरतादि भी ससार क ही कारण होत ह - ऐसा अब कहत ह।

' दखो ! अधिकार परा करत हए भरनत म सपषट करत ह कि भाई ! हमन शरावक क धरमिरप म पजा-दान शरादि अनक शभभावो का वरणत किया तथा अशवरत आदि का वरणव किया; परनत उसम जो शभराग ह, उस साधय न मानना, उसको धयय न मानना, धयय और साधय तो समपरण चीतरागरभावरप मोकष ही ह और वही परमसख ह ।

धरमी की हषटि - रचि राग म नही, उस तो मोकष-को साधन की ही भावना ह। सचचा सख मोकष म ही ह, राग म क‍रथवा पणय क फल म कोई सख vel; safe ह भवय ! बषत अथवा महातबरत क पालन म उस-

१६० ] ; [ शरावकघमपरकाश

उस परकार की शरनतरगशदधि बढती जाय और मोकषमारग सघता जाय, उस त लकषय म रखना। शदधता क साथ-साथ जो बरत-महातरत क परिणाम होत ह, व मोकषमारग क निमितत ह; परनत जरा भी शदधता जिस परगट नही और मातर राग की भावना म ही रक गया ह, उसका तो बरतादि पालन करना भी ससार का कारण होता ह और वह दःख ही परापत करता ह । इसपरकार मोकषमारग क यथारथ बरत-महातरत समयगहषटि को ही होत ह - यह बात इसम भरा गई ।

बीच म बरत क परिणाम आवग, इनस उचच कोटि का पणय qaqa ae दवलोक का अचिनतय वभव मिलगा; परनत ह मोकषारथी ! तक इनम किसी की रचि अरथात‌ भावना नही करनी ह; भावना तो मोकष की ही करना कि कब यह राग तोडकर मोकषदजषा - परापत हो; कयोकि मोकष म ही आरातमिक सख ह, सवरग क. वभव म भी सख नही, शराकलता क अगार ह । '

धरमी को भी सवरग म जितना राग और विषयतषणा का भाव ह, - उतना वलश ह, धरमी को उसस छटन की भावना ह! ऐसी भावना स मोकष क लिय जो बरत-महावरत पालन करन म झाव, Fad ana Fz और इसस विषरीत ससार क सवरगादि क सख की भावना स जो कछ करन म आव, वह दःख का और भवशरमण- का कारण ह; इसलिय मोकषारथी भवयो का आतमा की शरदधा-जञान-परनभव करक: वीतरागता की भावना स शकति शरनसार बरत-महातरत करना चाहिय ।

जस किसी न इषट सथान जान का सचचा मारय जान लिया ह, परनत चलत म थोडी दर लगती ह, तो भी मारग म ही ह। उसीपरकार घरमीजीव न वीतरागता का मारग दखा ह, राग रहित सवभाव को जाना ह; परनत सरवथा राग दर करन म थोडा समय लगता ह, तो भी वह मोकष क माग म ही ह | परनत जिसन सचचा मारग नही जाना और विषरीत माग माना ह, वह शभराग कर तो भी ससार क मार म ह ।

नि३चय स वीतरागमारग ही मोकष का साधन ह शभराग वासतव म भोकष का साधन नही - ऐसा कहन पर किसी को बात न रच तो कहत ह कि भाई ! हम अरनय कया बताव ? वीतरागदव हारा कहा हआ सतय मारग यह ही ह ।

जिसपरकार परनन‍दी सवामी बरहमचय-अशरषटक म बरहमचय का उततम वरणन करक शरनत म कहत ह कि “जो ममकष ह; उसक लिय सतरी-सग क

ayaa at anaar | [ १६१

निषध का उपदश मन दिया ह; परनत जो जीव भोगरपी राग क सागर म डब हय ह, उनह इस बरहमचय का उपदश न रच तो व मर पर करोध न कर; कयोकि म तो म‌नि ह, मनि क पास तो यही वीतरागी उपदश होता ह, कोई राग क पोषण की बात मनि क. पास नही होती । “उसी- परकार यहा मोकष क परषारथ म पणय का निषध किया ह, वहा राग की रचिवाल किसी जीव को वह न रच तो कषमा करना; कयोकि सन‍तो का उपदश तो मोकष की परधानता का ह, इसलिय उसम राग को गरादरणीय कस कहा जाय ? भाई ! अभी चाह तझ स समपरण राग. न. छट सक; परनत “यह छोडन योगय ह! - ऐसा सचचा धयय तो पहल ही ठीक कर, धयय सचचा होगा तो वहा पहचगा; परसत धयय ही खोटा रखोग' रागका धयय रखोग तो राग तोडकर वीतरागता कहा स लाझोग ? अतः वीतरागी सन‍तो न सतयमारग परसिदध किया ह।

सरवजञता को साधत-साधत वनविहारी सनत पमननदी मनिराज न यह शासतर रचा ह।व आतमा की शकति म जो परण शराननद भरा ह, उसकी परतीति करक उसम लीन होकर बोलत थ। सिदध भगवान क साथ सवानभव दवारा बात करत थ और सिदध परभ जस अतीनदरिय-आाननद का बहत शरनभव करत थ, उनहोन भवयजीवो पर करणा करक यह शासतर wal ह। इसम कहत ह कि अर जीव ! सबस पहल त सरवजञदव को पहिचान | सरवजञदव को पहिचानत ही तरी सचची जाति तर पहिचानन

म आरा सकगी । ००००० c= = a eee, ee ee eee कम ee See ee Se ॥$

धरम फा मल क‍या ? (

अर जीव ! त सरवजञ की और जञान की परतीति बिना \ घरम कया करगा ? राग म सथित रहकर सरवजञ की परतीति नही होती; राग स जदा पडकर, जञानरप होकर, सरवनन की \ परतीति होती ह । इसपरकार जञानसवभाव क लकषपरवक सरवजञ की i पहिचान करक उसक वचनानसार धरम की परवतति होती ह। i समयरटषटि जञानी क जो वचन ह, व हदय म सरवजञ-अनसार ग] कयोकि उसक हदय म सरवजञदव विराज रह ह । जिसक हदय म सरवजञ न हो अरथात‌ सरवजष को जो व मानता हो, उसक धरमवचन i सचच नही होत । इसपरकार सरवजञ की पहिचान घमम कः मल ह। fF

- पजय शरी कानजी सवामी i a ET SE क उसचा: अक 3. SS SSeS Se ee Se ee See Se SS

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_शरावकधरम को आराधना का शरतिम फल

यतकलयाशपरमपरापशपर भवयातमना. ससतौ परयनत भदनन‍तसौलयसदन Wat ददाति अर‌वस‌ । तजजीयादतिदलभ सनरतामखयगण:.पराषित शरीमतपकजन दिभिविरचित दशबरतोदयोततम‌ ॥२७॥

सामासयारथ :- यह दशबत धरमोजीव क लिए सस1र म तो उततम कलयाण की परमपरा (चकरवरतीपद, इनदरपद, तीरथकरपद शरादि ) दनवाला ह शरौर भरनत म अरननतसख क धाम मोकष को शभरवशय दता ह। शरी पदमननदी मनि न जिसका aur किया ह तथा उततम gra भनषयपन और समयगदशनादि गर क दवारा जिसको परापति होती ह - ऐस दशबरत का उदयोतन (परकाश) जयवनत रह ।

शलोक २७ पर परवचन

इस दशबरत-उदयोतन अधिकार म शरी पदमननदी मनिराज न शरावक कधरम का बहत वरणन २६ गाथा म किया ह।अब अतिम गाथा म आशीरवादपरवक शरधिकार समापत करत हए कहत ह कि उततम कलयाण की परमपरापरवक मोकषफल दनवाला यह दशबरत का परकाश जयवनत रह ।

जो जीव धरमी ह, जिस आतमा का भान ह, जो मोकषमाग को साधना म ततपर ह; उस अशकनत-महाकषत क. राग स ऐसा. ऊचा. पणय बघता ह कि चकरवरतीपना, तीरथकरपना आदि लोकोततर, पदवी मिल जाती ह | पचरकलयाणक भरादि की कलयाण परमपरा उस परापत होती ह और भरनत म राग तोडकर वह मोकष पाता: ह।

दशबरत की आराधना का अतिम फल ] [ १६३

दखो यह मनषयपन की सफलता का छपाय ! जीवन म जिसन धरम का उललास नही किया, आतमहित क लिए रागादि नही घटाय और मातर विषय-भोग क पापभाव म ही जीवन बिताया ह; वह तो निषफल अवतार गवाकर ससार म ही परिभरमण करता ह। जबकि धरमातमा शरावक तो आतमहित का उपाय करता ह, समयगदरशन सहित बरतादि का पालन करता ह और सवरग म जाकर वहा स मनषय होकर मनिपना लकर मकति परापत करता ह।

भाई ! ऐसा उततम मनषयपना और उसम भी धरमातमा क सग का एसा योग ससार म बहत दलभ ह, महाभागय स तझ ऐसा सयोग मिला ह; तो इसम सरवजञ की पहिचान कर, समयक‍तवादि गण परगट कर, उसक पशचात‌ शकति-अनसार बरत अगीकार कर और दान आदि कर | उस दान का तो बहत परकार स उपदश दिया। वहा कोई कह कि आराप दान की तो बात करत हो, परनत हम झाग-पीछ का ( सतरी-पतरादि का ) कोई विचार करना या नही ? तो शराचाय कहत ह कि भाई ! त तनिक घीरज धर । यदि तझ आग-पी छ का तरा हित का सचचा विचार हो तो अभी ही त ममता घटा। वरतमान म त सतरी-पतरादि क, बहान ममता म" डबा हआ ह और अपन भविषय क हित का विचार नही करता। भविषय म म मर जाऊगा तो सतरी-पतरादि का कया होगा - इसपरकार उनका विचार करता ह, परनत भविषय म तरी आतमा का कया होगा - इसका विचार क‍यो नही करता ?

अर | राग तोडकर समाधि करन का समय आया, उसम फिर गराग-पीछ का अनय कया विचार करता ? जगत क जीवो को सयोग-वियोग तो अपन-अपन उदय-अनसार सबको हआझआा करत ह, य कोई तर किय नही होत; इसलिए भाई ! दसर का नाम लकर त अपनी ममता को मत बढा । चाह लाखो-करोडो रपयो की पजी हो, परनत जो दान नही करता तो वह हदय का गरीब ह.। इसकी शरपकषा तो थोडी पजीवाला भी जो धरमपरसग म तन-मन-घन उललासपरवक लगाता ह; वह उदार ह, उसकी लकषमी और उसका जीवन सफल ह ।

सरकारी. टकस ( कर ) आदि म परतनतररप स दना पड, उस द; परनत जीव सवय ही धरम क काम म होशपरवक खरच न कर तो आचायदव कहत ह कि भाई ! तझ तरी लकषमी का सदपयोग करना ai oat; TH दव-गर-धरम की भकति करना नही शराता शर तझ

१६४ ] [ शकरावकधरमपरकाश

शरावकधरम का पालन करना नही भराता; शरावक तो दव-गरर-धरम क लिय उतलासपरवक दानादि करता ह ।

एक मनषय कहता ह कि महाराज ! म वयापार म २५ लाख रपय. मिलनवाल थ, परनत रक गय | यदि व मिल जाय तो उनम स ५ लाख रपय धरमारथ म दन का विचार था, इसलिय आशीरवाद दीजिय।

शर मरख ! कसा आशञीरवाद ? कया तर लोभपोषण क लिय जञानी

तम आशीरवाद द ? जञानी तो धरम की आराधना का आशीरवाद दत ह। ५ लाख रपय खरच करन की बात करक वासतव म तो तभ २० लाख लना ह और इसकी ममता पोषनी ह ।

जस कोई मान कि परथम जहर खा ल, पीछ उसकी दवा करगा - तरी ऐसी मरखता ह। तझ वासतव म धरम का परम हो और राग घटाना हो तो शरभी जो तर पास म ह, उसम स राग घटा न ? वक राग घटाकर दान करना हो तो कौन तभ रोकता ह ?

भाई ! ऐसा मनषयपना और ऐसा अवसर परापतककर त धन परापत करन की तषणा क पाप म अपना जीवन नषट कर रहा ह, इसक बदल घमम की आराधना कर। धरम की आराधना दवारा ही मनषयभव की सफलता ह | धरम की आराधना क बीच पषयफलरप बड -बड निधान सहज ही मिल aia तक उनकी इचछा नही करनी पड गी, “माग उसक दर और तयाग उसक आग । पणय की इचछा करता ह, उस पणय नही होता । माग उसक दर जाता ह और तयाग उसक आग बरथात‌ जो पणय की रचि छोडकर चतनय को साथता ह, उसको परषय का वभव समकष शराता ह। ह

धरमीजीव शरातमा का भान करक और पणय को अधिलाषा सरवथा छोडकर मोकष की तरफ चलन लगा ह। उसन बहत-पा रासता तय कर लिया ह, थोडा शष ह। वहा परषाथ की मनदता स शभराग हआ अरथात‌ सवरगादि क एक या दो उततम भवरपी घमशाला म थोड समय रकता ह | उस ऐसा ऊचा पषय होता ह कि जहा जनमता ह; वहा समदर म स मोती पकत ह, आकाश म स उतकषट रतवकप परिणमन कर रजकण बरसत ह, पतथर की खान म नीलमणि उतपनन होत ह। यदि राजा हो जाब तो ऐसा कि उस परजा स कर आदि लना नही पडता; परनत

परजा सवय चलकर दन झराती ह। रत मनि घरमातमाओ क. समह और

दशबरत की शराराधना का अतिम फल ] [१६५

तीरथक रदव का सयोग मिलता ह तथा सतो क सतसग म पनः शराराधकभाव पषट कर, राज-वभव छोड, मनि होकर, कवलजञान परयट कर मोकष परापत करता ह ।

सरवजञवव की पहिचानपरवक आवक न जो धरम की आराधना की, उसका यह उततम फल कहा ह, वह जयवनत हो शर साधनवाल साधक जगत म जयवनत हो ! - ऐस गराशनोरवाद सहित यह झरधिकार समापत होता ह ।

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समयरदशन होन पर |

समयरदरशन होन पर धरमी को सिदध समान अपना शदध | गरातमा शरदधानजान एव सवानभव म सपषट आ जाता ह; तब स \ उसकी गति-परिणति विभावो स विमल होकर सिदधपद की ओर चलन लगी, वह सोकषमारगी हआ | पशचात‌ जयो-जयो शदधता और |! सथिरता बढती जाती ह, तयो-तयो शरावकधरम और मनिधरम परगट होता ह | शरावकपना तथा मनिपता तो आतमा की शदधदशा म रहत | ह, वह कोई बाहर की वसत नही ह। जनधरम म तीरथकरदव न \ मोकषमारग कसा कहा ह, उसकी खबर न हो और विपरीत मारम म !६ जहा-तहा मसतक भकाता हो - ऐस जीव को जनतव नही होता । जन हआ वह जिनवरदव क मारग क सिवा शरनय को सवपन म भी नही मानता । \

कोई कह कि शरातमा एकानत gaz ate sa faare ar \ 4 करम का कोई समबनध ह ही नही, तो वह बात यथारथ नही ह। |

i आतमा दरवयसवभाव स शदध ह, परनत परयाय म उस विकार भी ह | ॥! वह विकार अपनी भल स ह और सवभाव की परतीति दवारा वह दर \

हो सकता ह तथा शदधता हो सकतो ह । विकारभाव म शरजोवकरम \ निमितत ह, विकार टलन पर व निमितत भी छट जात ह। इसपरकार

दरवय-परयाय, शदधता-शरशदधता, निमितत - इन सबका जञान बराबर ॥ करना चाहिय। उनह जानकर शदध आतमा की हषटि करनवाला | | जीव समयरहषटि ह। - पजय शरी कानजी सवामी i 3 [ee See ee See Se Se 4 eee See Se ee eee eee

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परिशचिषट

सवतनतरता की घोषणा ( नरदटक छनद )

नन‌ परिणाम एव किल करम विनिशचयतः

स भवति नापरसयथ परिसयासिन एव भवत‌ । न भवति कत‌ शनयमिह करम न चकतया सथितिरिह aegat aag aa ata aa: urge

सामानयारथ :- वासतव म परिशास हो निशचय स करम ह शनौर परिणाम शरपन शराशअयभत परिणामी का ही होता ह, गरनथ का नही (कयोकि परिणाम अपन-अपन दरवय क झराशरित ह, शरनय क परिसरणाम का शरनय आशरय नही होता) और कम करतता क बिना नही होता तथा वसत की एकरप (कटसथ) सथिति नही होती (कयोकि वसत दरवय-परयायसवरप होन स सरवथा नितयतव बाधासहित ह), इसलिए वसत सवय हो अपन परिणामरप करम की करता ह ।

. समयसार कलश २११ पर परवचन

करता-करम समबनधी भदजञान करात हए आचारयदव कहत ह कि वसत सवय अपन परिणाम की करतता ह, शरनय क साथ उसका करता-करम का समबनध नही ह । इस सिदधानत को आचारयदव. न चार बोलो स सपषट करक समभाया ह :-

(१) परिणाम शरथात‌ परयाय ही करम ह - कारय ह।

(२) परिणाम पपन भराशरयभत परिणामी क ही होत ह, अनय क नही होत; कयोकि परिणाम अपन-अपन गराशरयभत परिणामी (दरवय) क

शराशनय स होत ह, शरनय का परिणाम अनय क झराशरय स नही होता.।

(३) करतता क बिना करम नही होता पररथात‌ परिणाम वसत क बिना नही होता ।

सवतनतरता की घोषणा | [ १६७

(४) वसत की निरनतर एक समान सथिति नही रहती, कयोकि वसत दरवय-परयायसवरप ह ।

इसपरकार आतमा शरौर जड सभी वसतए सवय ही शरपन परिणामरप “करम की करतता ह - ऐसा वसतसवरप का महान सिदधानत झराचायदव न समझाया ह ।

दखो ! इसम वसतसवरप को चार बोलो दवारा समझाया ह।इस जगत म छह वसतय ह:- आतमा अनन‍त, पदगलपरमाण अननताननत, धरम अधरम व शराकाश एक-एक और काल अरसखयात । इन छहो परकार की वसतओ और उनक सवरप का वासतविक नियम कया ह ? सिदधानत कया ह ? उस यहा चार बोलो म समझाया जा रहा ह।

(१) परिरसाम हो कम ह तन परिणाम एव किल करम विनिशचयत: अररथात‌ परिणामी

वसत का जो परिणाम ह, वही निशचय स उसका करम ह। करम अरथात‌ कारय; परिणाम शररथात‌ अवसथा | पदारथ की शरतरसथा ही वासतव म उसका करम -कारय ह।परिणामी अरथात‌ अरखणड वसत; वह जिस भाव स परिणमन कर, उस भाव को परिणाम कहत ह। परिणाम कहो, कारय कहो, परयाय कहो या करम कहो - य सब शबद वसत क परिणाम क परयायवाची ही ह ।

जस कि आतमा जञानगणसवरप ह; उसका परिणमन होन स जो जानन की परयाय हई, वह उसका करम ह - वरतमान कारय ह। राग या शरीर, वह कोई जञान का कारय नही; परनत यह राग ह, यह शरीर ह! - ऐसा उनह जाननवाला जो जञान ह, वह आतमा का कारय ह। आतमा क परिणाम वह आतमा क कारय ह शरौर जड क परिणाम अरथात‌ जड की अवसथा वह जड का काय ह । इसपरकार एक बोल परण हआ ।

२) परिणाम वसत का ही होता ह, दसर का नही अब इस दसर बोल म कहत ह कि जो परिणाम होता ह, वह

परिणामी पदारथ का ही होता ह; वह' किसी शरनय क भराशरय स नही होता । जिसपरकार सनत समय जो जञान होता ह, वह कारय ह- करम ह। यह जञान किस का कार ह ? वह जञान शबदो का कारय नही ह, परनत परिणामी वसत जो आतमा ह, उसी का वह काय ह। परिणामी क बिना परिणाम नही होता ।

2&5 ] [ शरावकघमपरकाश

आतमा परिणामी ह, उसक बिना जञानपरिणाम नही होता - यह सिदधानत ह। परनत वाणी क बिना जञान नही होता - यह बात सच नही ह । शबदो क बिना जञान नही होता - एसा नही, परनत आतमा क बिना जञान नही होता - ऐसा ह। इसपरकार परिणामी आतमा क झाशरय स ही जञानादि परिणाम ह ।

दखो ! यह महासिदधनत ह, वसतसवरप का अबाचित नियम ह।

परिणामी क आशरय स ही उसक परिणाम होत ह। जाननवाला area, ae परिणामी ह, उसक आशरित ही जञान होता ह; व जञान- परिणाम आतमा क ह, वाणी क नही | जञानपरिणाम वाणी क रजकणो क शराशचित नही होत, परनत जञानसवभावी आतमबसत क आशरय स होत ह। आतमा तरिकाल सथित रहनवाला परिणामी ह, वह सवय रपातरित होकर नवीन-नवीन शरवसथाओ को धारण करता ह | जञान-अननन‍द इतयादि जो उसक वरतमानभाव ह, व उसक परिणाम ह ।

परिणाम परिणामी क ही ह, शरनय क नही - इसम जयत क सभी पदारथो का नियम आ जाता ह। परिणाम परिणामी क ही आशरित होत ह। जञान परिणाम आतमा क आशरित ह, भाषा आदि पन‍य क आशरित नही ह; इसलिय इसम पर की ओर दखना नही रहता, परनत अपनी- अपनी वसत क सामन दखकर सवसनमख परिणमन करना रहता ह; उसम मोकषमारग आ जाता ह।

वाणी तो अननत जड परमासझरो की शरवसथा ह, वह अपन जड परमाशणओ क आशरित ह । बोलन की जो इचछा हई, उस इचछा क शराशरित भाषा क परिणाम तीनकाल म भी नही ह । जब इचछा हई और भाषा निकली; उससमय उसका जो जञान हआ, वह जञान आरातमा क आशरय स ही हआ ह, भाषा क शराशयय स तथा इचछा क शराशनय स जञान नही

हआ ह । परिणाम अपन आशरयभत परिणामी क आशरय ही होत. ह, अरनय

क झराशनय स नही होत - इसपरकार शरसति-नासति स अनकानत दवारा वसत- सवरप समझाया ह। सतय क सिदधात की शररथात‌ वसत क सतसवरप की यह बात ह। अजञानी उसको पहिचान बिना मढतापरवक अजञानता म ही जीवन परण कर डालता ह।

भाई ! आतमा कया ह शनौर जड कया ह, उतकी भिननता समभकर बसतसवरप क वासतविक सत को समझ बिना जञान म सतपना नही

सवतनतरता को घोषणा | ' ४ [१६९

MAT RAL AFT Tl होता, वसतसवरप क सतयजञान क बिना सचची रचि और शरदधा भी नही होती और सचची शरदधा-क बिना वसत म सथिरता- रप चासतरि परगट नही होता, शानति नही होती, समाधान और सख नहो होता; इसलिय वसतसवरप क‍या ह? उस परथम समझना चाहिय। वसतसवरप को समभन स मर परिणाम पर स और पर क परिणाम म स होत ह- ऐसी पराशचितबदधि नही रहती शरथात‌- सवाशनित सवसममख परिणाम परगट होता ह, wat TH Bt

आतमा का जो जञान होता ह,, उसको जाननवालो परिणाम शरातमा क आशरित ह; वह परिणाम वाणी क आशरय स. नही होतो ह, कान क आशरय स नही होता ह तथा ,उससमय की इचछा क आशरय स भी नही होता ह। यदयपि इचछा भी शरारतमो का परिणाम ह; परनत उस इचछा-परिणाम क शराशनित जञानपरिणाम नही ह, जञानपरिणाततः आातमवसत क आशवित‌ ह; इसलिय वसत-सनमख हषटि कर ।

बोलन की इचछा हो, होठ हिल, भाषा निकल और उससमय- उसपरकार का जञान हो - ऐसी चारो करियाय एक साथ होत हय भी कोई करिया किसी क आशरित नही, सभी अपन-अपन परिणामी क ही आशरित ह। जो इचछा ह, वह आतमा क चारितरभण का.परिणाम ह; होठ हिल, वह होठ क रजकणो की अवसथा ह, वह अवसथा: इचछा क गराधार स नही हई । भाषा परमट हो, वह भाषावरगणा क रजकणो की अवसथा ह, वह अवसथा इचछा क आराशचित या होठ क आशरित नही हई; परनत परिणामीरप रजकणो क आशरय स उतपनन हई ह और उससमय का जञान आतमवसत क शराशनित ह, इचछा भरथवा भाषा क अशराशरित नही ह - ऐसा वसतसवरप ह।

भाई ! तीन काल तीन लोक म सरवजञ. भगवान-का दखा हआ यह वसतसवभाव ह; शरजञानी उस जान बिना और समझन की परवाह किय बिना झअनध की भाति चला जाता ह, परनत. वसतसवरप क सचच जञान -क बिना किसीपरकार कही भी wearer wet gt सकता] इस बसतसवरप का meat लकषय म छकर परिणामो स भदजञान करन क लिए यह बात ह । एक वसत क परिणाम अनय वसत क आशरित तो ह.नही, परनत उस वसत म भी उसक एक परिणाम क आशरित दसर परिणाम नही ह। परिणामी बसत क शराशचित' ही परिणाम ह - यह महमन सिदधानत 2 1

परतिकषण इचछा; भाषा और जञान - यह तीनो एक साथ होत हए भी

"Sear शरौर जञान जीव क आशरित ह शरौर भाषा जड क आशरित ह; इचछा

two ] त‌ः करोवकरधमपरकाश

क कारण भाषा हई और भाषा क कारण. जञान हआ - ऐसा नही; उसीषरकार इचछा क आशचित भी जञान नही। इचछा और जञान - य दोनो परातमा क परिणाम ह, तथापि एक क आराशवित दसर क परिणाम नही ह-1 जञान परिणाम और इचछा परिणाम दोनो भिनन-भिनन ह। जी जञान: हआ1; वह इचछा का कारय नही ह शलौर जो इचछा हई, वह जञान का कारय तरही ह। जहा इचछा: भी जञान का कारय नही, वहा जडभाषा आरादि उसक कारय कहा स हो सकत ह ? व तो जड .क कारय ह,

जगत म: जो भी कारय होत ह, व सत‌ की अरवसथाय ह; किसी वसत क ही: परिणाम होत ह, परनत वसत क बिना झघर स नही होत। परिणासी-का परिणास होता ह, मितय सथित वसत क झराशचित परिणाम होत ह, पर क भराशचित नही होत 1

way म होठो का.हिलना और भाषा का परिणमन- य दोनो भी भिनन वसतए ह। शरातमा म इचछा और जञान - य दोनो परिणाम भी भिनन-भिनन ह। ह

. होठ हिलन क शराशवित भाषा की परयाय-नही ह । होठ का हिलगा, वह होठ क. पदगलो क आशिित ह; भाषा का परिणमन; बह. भाषा क पदगलो क आशचित ह +होठ और :भाषा, इचछा और जञान:+ इन. चौरो का काल एक होन पर भी चारो परिणाम wer Fy

उसम भी इचछा झौर जञान - य दोनो परिणाभ परातमाथित होन ' पर भी इचछा परिणाम क आराशरित जञान परिणाम नही ह। जञान, वह शरातमा

- का परिणाम ह, इचछा को नही; इसीपरकार इचछा, वह आतमा FT परिणाम ह, जञान का नही । इचछा को- जाननवाला जञान, वह इचछा का - कारय नही ह; उसी परकार वह जञान इचछा को. उतपनन भी नही करता । इचछा- . परिणाम आतमा का का भरवशय ह; परलत जञान का कारय ART Free fara गण क परिणाम भिनन-भिनन ह, एक: ही दरवय म होन पर:भी एक गण क शराशचित दसर गण क परिणाम नही ह ।

, भहो ! कितनी: सवततरता !!.इसम पर. क. apr की ate “ही कहा रही ?

गरातमा म चारितरगण इतयादि परतनतगण ह। उनम “कारितर' का विकरत परिणाम इचछा ह, वह. चारितरगण क पराशचित: ह; भौर उसशषभय इचछा का जञान हआ, वह -जञानगणरप परिणामी का पडिणाम ह, वह कही इचछा क परिणाम क झाशचित. नही ह । इसपरकार इचछाप रिजापर

सवतनतरता की घोषणा ] ° [ १७१

ओर जञानपरिणाम - दोनो का भिनन-भिनन परिणमन-'ह, एक-दसर क आशरित नही ह ।

सत‌ जसा ह, उसीपरकार उसका जञान कर तो सत‌ जञान हो शौर सत‌ का जञान कर तो उसका बहमान एव यथारथ को ओरादर परगट हो, रचि हो, शरदधा इढ हो और उसम सथिरत हो; उस ही धरम कहा जाता ह। सत‌ स विपरीत जञान कर, उस धरम नहो होता । सतर म सथिरता हो मल धरम ह, परनत वसतसवरप क सचच जञान बिना सथिरता कहा करगा ?

गरातमा और शरीरादि रजकण भिनन-भिनन तततव ह; शरीर की अवसथा, हलन-चलन, बोलता - य सब परिणामी पदगलो क परिणाम ह; उन पदगलो क आराशनव स व परिणाम उतपनन हए ह, इचछा क शराशरित नही; उसीपरकार इचछा क पराशनित जञान भी नही ह। पदगल क परिणाम आतमा क शराशचित मानना और आतमा क परिणाम: पदगलाशित मानना, इसम तो विपरीत मानयतारप मढता ह।

जगत म भी जो वसत जसी हो, उततत विपरीत बतलानवाल को लोग मरख कहत ह तो फिर सरवजञकथित यह लोकोततर वसतसवभाव जसा ह, वसा न मानकर विरदध मान तो लोकोततर मरख और शरविवकी ही ह। विवकी और विलकषण कब wer जाय ? जबकि वसत क जो परिणाम हए, उस कारय मानकर, उस परिणपमी - वसत क भराशरित समझ और

दसर क आशरित न मान, तब सव-पर का भदजञान होता ह और तभी विवकी ह - ऐसा कहन म गराता ह। आतमा क परिणाम पर क आशरित नही होत । विकारी और अभरविकारी जितन भी परिणाम जिस वसत क ह; व उस वसत क आशरित ह, भरनय क आशरित नही ।

पदारथ क परिणाम, व उसी पदारथ क कारय ह - यह एक बात । : दसरी बात यह कि व परिणाम उसी पदारथ क आशरय स होत ह, wea

क आशरय स नही होत - यह नियम जगत क समसत पदारथो म लाग होता ह ।

दखो भाई ! यह तो मदजञान क लिय वसतसवभाव क नियम बतलाय गय। अरव धीर-धीर हषठात स यकत स वसतसवरप सिदध किया “जाता ह ॥

किसी को ऐस भाव उतपनन हए कि सौ हपय : दान म द', उसका वह परिणामःआतमवरसत क भराशनितः हआ ह; वहा तो रपय जान की जो

१७२ ] [ शराबकथरम परकाश

करिया होती ह, वह रपय क .रजकरणो क आशरित ह, जीव की इचछा क आशित नही । अब उससमय उन रपयो की करिया का जञान शरथवा इचछा क भाव का जञान होता ह, वह जञानपरिणाम आरातमाशनचित होता ह। इस परकार परिणामो का विभाजन करक वसतसवरप का जञान करना चाहिय ।

भाई | तरा जञान और तरी इचछा - य दोनो परिणाम आतमा म होत हए भी जब एक-दसर क शराशरित नही ह; तो फिर पर क आशरय की तो बात ही कहा रही ? दान की इचछा हई और रपय दिय गय; वहा रपय-जान की करिया भी हाथ क झाशचित नही, हाथ.का हिलना इचछा क शराशचित नही और इचछा का परिणमतर, वह जञान क आराशरित नही ह । सभी अपन-अपन आशरय मत वसत क आधार स ह।

दखो ! यह सरवजञ क पदारथ-विजञान का पाठ ह - ऐस वसतसवरप का जञान सचचा पदारथ-विजञान ह। जगत क पदारथो का.सवभावः ही ऐसा ह कि व सदा एकरप नही रहत, परनत परिणमन करक नवीन-नवीन, अरवसथारप aa feat wea ह - यह बात चौथ बोल म कही जायगी। जगत‌ क परदारथो का सवभाव ऐसा ह कि व नितय सथायी रह और उनम - परतिकषण नवीतन-नवीन. अवसथारप BT उनक अपन ही शराशरित हआा कर। वसतसवभाव का ऐसा जञान- ही समयगजाव ह ।

० जीव को इचछा हई,“इसलिय हाथ हिला और सौ रपय (दिय गय - ऐसा नही ह।

० इचछा का आधार' आतमा ह, हाथ और रपयो का शराधार परमाण ह ।

० रपयो क जञान स इचछा हई - ऐसा भी नही ह।

| ०. हाथ का-.हलन-चलन, वह हाथ क परमाणझरो क गराधार स ह ।

ह ०. रपयो का शराना-जाता, वह रपयो क परमोशओ क .आधार

age

० इचछा का होना, वह आतमा क चारितरगण क आधार स ह।

यह तो. भिनन-भिनन दरवय क परिणाम की भिन‍नता, की बात हई; यहा तो उसस भी आग अनदर को बात लना ह। एक ही दरवय क BAT

परिणाम भी. एक-दसर क आराशचित नही ह - ऐसा: बतलाना..ह । राग और जञान दोनो क काय भिन‍न ह, ए+-दसर क शराशनित नही ह ।

सवतनतरता को घोषणा ] " - | १७३

किसी न गाली दी और जीव को. द ष क पाप-परिणाम हए; वहा ज पाप क परिणाम परतिकलता क कारण नही हए और गाली दनवाल क भराशचित भी नही हए; परनत: चारितरगण क आशरित हए ह; चारितरगण न उससमय . उस परिणाम क. अरनसार परिणमन किया ह। अनय तो निमिततमातर ह।

ae eee समय उसका जञान हआ कि 'मम यह ह ष हआ - यह जानपरिणाम जञानशण क आशवित ह, करोध क आशरित नही ह। जञान- 'सवरभावी- दरवय क शराशवित, जञानपरिणाभ होत ह, अनय क आराशचित नही 'हीत॥ इसीपरकार समयगदशन परिणाम, समयसजञान परिणाम, आराननद परिणाम इतयादि म भी ऐसा ही समझना । यह जञानादि परिणाम दववय- क आशरित ह, अनय क शराशरित नही ह तथा परसपर एक-दसर क आाशवित

भी नही ह । . | गाली क शबद अथवा दवोष क समथः उसका जो जञान हआ, वह

जञान sal क आशरित नही ह.और कोच क शराशचित भी नही ह, उसका आधार तो जञानसवभावी वसत ह - इसलिय उनक ऊपर हषटि लगा तो तरी परयाय म मोकषमारग परगट हो । इस मोकषमारगरपी कारय का करतता भी

त ही ह, अनय कोई नही । अरहो! यह तो सगम और सपषट बात ह। लौकिक पढाई भरधिक

न की हो, तथापि. यहःसम+भ म भरा जाय - ऐसा ह । जरा शरनतर म उतर कर लकष म लना चाहिय कि आतमा शरसतिरप ह, उसम जञान ह, rare ह, शरदधा ह, शरसतिरव -ह - इसपरकार अननतगण ह। इन. शरननतगणो क भिनन-भिनन अननत परिणास परतिसमय होत ह, उत सभी का आशराधार परिणामी + ऐसा अरातमदरवय ह, अनय वसत तो उनका शराधार नही ह परनत अपन म दसर गणो क परिणाम भी उनका आरधाःर नही ह। जस कि शरदधा परिणाम का आधार जञान परिणाम नही ह और जञान परिणाम का आधार शरदधा परिणाम नही ह; दोनो परणामो का आधार शरातमा ही ह । इसीपरकार सरव got & परिणामो क लिगर समझना । इसपरकार परिणामी परिणाम का ही ह, अनय का नही ।

इस २११ व कलश म आचारयदव दवारा कह गय वसतसवरप क चार बोलो म स अभी इसर बोल का विवचन चल रहा ह। परथम तो कहा कि परणाम एव किल करम और फिर. कहा कि ‘a भवति

१७६ ] [ शरावकचरम परकाश

परिणामिन एव, न अपरसथ भवत‌' परिणाम ही करम ह और वह परिणामी का ही होता ह, अनय का नही- ऐसा निरणय करक सवदरवयसनमख लकषय जान स सममनगदशन और समयसजञान परगट होता ह।

समयगजञान ब समयगदशन परिणाम हआ, वह आतमा का करम ह, वह आतमारप परिणामी क आधार स हआ ह। परव क मनदराग क शराशरय स अरथवा वरतमान म शधवराग क: गझराशरयः स समयरदशत या समयसजञान क परिणाम नही होत | यदयपि सागर भी ह तो शरातमा का परिणाम, परनत शरदधा परिणाम स राग परिणाम अनय ह, व शरदधा क परिणाम राग क आशरित नही ह, कयोकि' परिणाम परिणामी क ही आशरय स होत ह अनय क आशरय स नही होत ।

उसीपरकार चारितर-परिणोम म - गरातमसवरप म सथिरता, ag चारितर का कारय ह; वह कारय शरदधा परिणाम क आशरित नही) जञान परिणाम क गराशचित नही, परचत चारितरगण घारण करनवाल: आतमा क ही शराशवित ह। शरीरादि क आशरय स: चारितर परिणाम नही: ह ।

अदधा क परिणाम आतमदरवय क पराशनित ह। जञान क परिणाम आतमदरवप क आशचित ह। सथिरता क परिणाम आतमदरवय क गराशरित ह । शराननद क परिणाम खझातमदरवय-क अशचित ह।

बस, मोकषमारग क सभी परिणाम सवदरवयाशवित ह, भरन‍य-क शराशित नही ह; उससमय शरनय, ( राखयदि ) परिणाम होत. ह, उसक आशित भी य परिणाम नही ह) एक समय 'म शरदधा-जञान-चारितर इतयादि अननत शणो क परिणाम होत ह, व धरम ह, उतका आधार धरमी शररथात‌ पसणिमित होनवाली वसत ह; उससमय अनय जो अनक परिणाम होत ह, उवक आधार स शरदधा इतयादि क परिणाम नही ह। निमिततादि क आकार स तो नही ह, परचत अपन दसर परिणाम क आधार स भो कोई परिणाम नहो ह । एक: ही. दरवय म एकसाथ होनवाल परिणामो. म भी' एक परिणाम दसर परिणाम क आशवित नही; दरबय क ही शराशरित सभी सरिणाम: ह, सभी परिणामरप स परिणमन करनवाला “दरवय gts aad TTS लकषय जात ही समयक‌-परयाय परगद होन लगती ह ।

वाह ! दखो, आचायदव की aT aS म बहत समा दन कौ ह। ' चार बोलो क इस महान‌ सिदधात म वसतसवरप क बहत स, मिथमोः का

AAT AY ATT , [ १७५

समावय हो जाता ह। यह तरिकालसतय सरवजञ दवारा निशचित किया हआ सिदधात ह ।

अहो !यह रिणामी क। परिणामत की सवाधीतता wise हारा कहा हआ ब सवरप का ततव ह। सनन‍तो- न इसका विसतार करक आरचयकारी कारय किया ह, फदारभ का परथक‍कत रण: करक:भदजञान कराया ह। अनतर म इसका मनथन करक दख, तो मालम हो: कि अननलत सरवजञो तथा सन‍तो न ऐसा,ही वसतसबरप, कहा ह और ऐसी ही: वसत का सवरप ह ।

सवजञ भगवनत दिवयधवनि दवाराएसा तततव कहत आय ह - ऐसा वयवहार स कहा जाता ह; किनत दिवयपबनि तो परमशओ क आशरित ह ।

are ae fe qt, विवयधवनि- भी परमाण-आशभरित ह? हा, : दिवयधवनि वह पदगल का परिणाम ह भौरपदयल-परिणाम का आधार

तो पदगलदरवय ही होता ह, जीव उसका. झाघार ,नही हो. सकता । भगवान का आतमा तो अपन कवलजञानादि का आधार ह। भगवान का आतमा ती कवलजञान-दरशन-सख इतयादि निजनपरिणीमरप परिणमन करता ह, परनत कही दह और वोणीरप अवसथा घारण करक ' परिणमित नही होता, उस रप तो पदगल ही परिणमित' होता ह। परिणाम परिणामी क ही होत ह, परवय क नहो ।

भगवान की सवजञता क शराधार स दिवयधवनि क परिणाम हय - एसा वसतसवरप नही ह! भाषारप परिणाम अननत पदगला शरित ह और सरवजञता शरादि परिणाम जीवाशरित ह; इसपरकार दोनो की भिननता ह। कोई किसी का करता या अरघार नही ह ।

दखो ! यह भगवान शरातमा की अपनी बात ह। समभ म नही शरयिगी - ऐसा नही मानना; अनतरलदषय कर तो समभ म आय - ऐसी: सरल ह | दखो, लकषय म लो कि अनदर कोई वसत ह. यो नही ? और. यह जो जानन क या रागादि क भाव होत ह - इन भावो का करतता कौन ह ? आतमा सवय उनका करता ह। इसपरकार आतमा को लकषय म लन क लिय दसरी पढाई की कहा आवशयकता ह ? दनिया की बगार करक दःखी होता ह, उसक बदल' वसतसवभाव को समझ तो कलयाण हो जाय। शरर जीव ! ऐस सनदर नयाय दवारा ae न वसतसवरप समकाया ह, उस त amet

इसपरकार वसतसवरप क दो बोल हय'।'

१७६ ] [ शराकपनमपरकाश

अब तीसरा बोल :-

(३) करता क बिना करम नही होता

करतता अरथात‌ परिणमित होनवाली वसत और करम: भरथात‌ उसकी अवसथारप कारय;'करतता क बिना करम नही होता शररथात‌ वसत क: बिन परयाय नही होती, सरवथा शनय म-स कोई कारय उतपनन हो जाय-ऐसो

' नही होता । दखो ! यह वसतविजञान क महान सिदधात ह, इस २१११वो कलश म

चार बोलो दवारा चारो पकषो स सवतनतरता सिदध की ह। भजञानी विदशो म भरजञान की पढाई क पीछ हरान होत ह, उसकी अपकषा सरवजञदवकथित इस परमसतय बीतरागी बिजञान को समझ तो अरपरव कलयाण हो ।*

(१) परिणाम सो कम, - यह एक बात ।

(२) बह परिणाम किसका ? कि परिणामी वसत का पारणाम ह, दसर का नही | यह दसरा बील, इसका बहत विसतार किया;

यहा इस तीसर बोल म कहत ह कि >.परिणामी क बिन. पररिणरमर नही होता । परिणासी वसत स भिनन शरनयतर कही परिणाम- हो - ऐसा 'नही होता ॥ परिणामी वसत म ही उसक परिणाम हौत ह, इसलिगर परिणामी वसत वह करतता ह; उसक बिना कारय नही होता'। दखो, «इसम निमतितत क बिना नही होता - ऐसा नही कहा ॥, निमितत निमितत‌ म रहता ह, वह कही इस कारय म नही शरा ' जाता, इसलिय निमितत क बिना कारस होता ह, परनत परिणामी क बिना कारय नही होता। निरमितत भल ही

: परनत उसका असतितव तो निमितत म ह. इसम ( कारय म ) उसका. शरासततिव : नही ह। परिणामी वसत की सतता म ही उसका काय होता ह ।

शरातमा क बिना समयकतवादि परिणाम नही होत । अपन समसत परिणामो का करता आतमा ह, उसक बिना. कम नही होता । “कम कत -

शनर न भवति' - परतयक पदारथ की अवसथा उस-उमर पदारथ क- बिता. नही होती । सोना नही ह भौर गहन बन गय, वसत नही ह. और. अवसथा हो गई - ऐसा नही हो सकता ।. अवसथा ह, वह Tari वसत को अगरट करती ह - परसिदध करती .ह क यह परवसथा इस वसत की ह !

जस कि जडकरमरप पदगल होत ह, व कमपरिणाम करता क बिना नही होत। अब उनका करतता कौन ? - तो कहत ह कि उस पदलकरमरपर परिणमित होनवाल रजकण ही. करतता. ह; परातमा जतका करतता-नही ह ।

“सवतनतरता की घोषणा ] [ १७७

० आतमा करतता होकर जडकरम का बनध कर - ऐसा वसतसवरप म नही ह।

० जडकरम गरातमा को विकार कराय - ऐसा वसतसवरप म नही ह ।

० मनदकषाय क परिणाम समयकतव का आधार हो -ऐपा वसतसवरप म नही ह ।

० शभराग स कषाविकसमयकतव हो -ऐसा वसतसवरप म नही ह । '

तथापि अजञानी ऐसा मानता ह कि यह सब तो .विपरीकष ह, अनयाय ह। भाई ! तर यह अनयाय वसतसवरप को सहन नही होग । वसतसवरप को विपरीत मानन स तर आतमा को बहत दःख होगा - ऐसी करणा सन‍तो को आती ह । सनत नही चाहत कि कोई जीव दःखी हो । जगत क सार जीब सतय सवरप को समभ शरौर दःख स छटकर सख परापत कर - ऐसी उनकी भावना ह।

भाई ! तर समयगदशन का आराधार तरा आतमदरवय ह । शभराग कही उसका आधार नही ह | मनदराग वह करता शरौर समयरदरशन उसका काय - ऐसा तरिकाल म नही ह। वसत का जो सवरप ह, वह तीन काल म गरागपीछ नही हो सकता | कोइ जीव अजञान स उस fade ara, उसस कही सतय बदल नही जाता | कोई समझ या न समझ, सतय तो सदा सतयरप ही रहगा, वह कभी बदलगा नही ।जो उस away समभग, व अपना कलयाण कर लग और जो नही समभग, उनकी तो बात ही कया ? व तो ससार म भटक ही रह ह ।

दखो, वाणी सनी, इसलिय जञान होता ह न परनत सोनगढवाल इनकार करत ह कि वाणी क आधार स जञान: नही होता - ऐसा कहकर कछ लोग कटाकष करत ह; लकिन भाई ! यह तो वसतसवरप ह तरिलोकोनाथ सववजञ परमातमा भी दिवयधबनि म यही कहत ह कि जञाव आतमा क आशरय स होता ह, जञान वह आतमा का कारय ह, दिवयधवति: क परमाण का कारय नही ह । जञान कारय का करता आरातमा ह, न कि ' वाणी क रजकण। जिस पदारथ क जिस गण का जो वरतमान होता ह वह अमय पदारथ क घा अनय गण क आशरय स नही होता, उसका करता कौन ? तो कहत ह कि वसत सवय । करता और उसका कारय दोनो एक ही वसत म होन का नियम ह, व भिनन वसत म नही होत ।

१७८ ] [ शरावकधमपरकाश

यह लकडी -ऊपर उठी वो, कारय ह; यह किसका काय ह. करता का कारय ह; करता क बिना कारय नही होता । करतता कौन ह ? कि लकडी क रजकण ही लकडी की इस अवसथ। क करतता ह; यह हाथ, अरगली या इचछा उसक करता नही ह ।

Ay MAT HT सकषम दषटानत ल.तो किसी आरातमा म इचछा शरौर समयगजान दोनो परिणाम वतत ह; वहा: इचछा क आधार स समयगजञान

नही ह । इचछा समयगशञान का करतता नही ह | झरातमा ही- करतता होकर उस कारय को करता ह। करतता क बिना करम नही ह और दसरा कोई करतता नही ह; इसलिय जीव करता दवारा जञानकारय होता ह । इसपरकार समसत पदारथो क सरव.कारयो म सरव पदारथ का करतापना ह - ऐसा समभना चाहिय ।

दखो भाई, यह तो सरवजञ भगवान क घर की बात ह; उस सनकर सनतषट होना चाहिय। अहा : सन‍तो न वसतसवरप TAMA मारग सपषट कर दिया ह; सन‍तो न सारा. मारग सरल और सगम बना दिया ह, उसम बीच म कही अटकना पड - ऐसा| नही ह | पर- स भिनन ऐसा सपषट वसतसव&य समझ तो मोकष हो जाय | बाहर स तथा अनतर स ऐसा भदजञान समभन पर मौकष हथली म जर जाता ह। म तो पर स पथक ह धर मठ म एक भण का कारय दसर गण स नही ह - यह‌ महाव सिदधानत समभन पर सवाशरयभाव स अपरव कलयाण परगट होता ह।

करम अपन करतता क बिना नही होता - यह बात तीसर बोल म कही और चौथ बोल म करतता की (वसत को ) सथिति एकरप शररथात‌ सदा एकसमान नही होती, परनत वह नय-नय परिणामरप स बदलती रहती ह + यह बात कहग । हर बार परवचन म इत थौथ बोल का विशष विसतार होता ह; इस बार दसर बील- का विशष विसतार आया ह ।

करतता क बिना कारय नही होता - यह सिदधानत ह; वहा: कोई कह कि. यह जगत, सो कारय ह और ईशवर उसका करता ह, तो यह.बात वसतसवरप. की. नही ह । परतयक वसत सवय ही अपन परयाय का ईशवर ह ale agi sul ह, उसस भिनन, दसरा Fie ar wet कोई पदारथ करता नही J परयाय सो कारय और पदारथ उसका करतता करतता क बितता कारय नही और दसरा कोई करता नही.।

कोई भी अरवसथा हो - शदध गरवसथा, विकारी गरवसथा या जड अवसथा; उसका करतता न हो ऐसा नही. होता तथा दसरा कोई करतता हो - ऐसा भी नही होता.।

सवतनतरता की घोषणा | [ १७६

-तो क‍या भगवान उसक करता ह ? हा, भगवान करतता अरवशय ह; परनत कॉन भगवान ह. अनय कोई

भगवान नही; परनत यह आतमा सवय अपना भगवान ह, वह करतता होकर अपन शदध-अशदध परिणामो को करता ह। जड क परिणाम को जड पदारथ. करता ह; वह अपना भगवान ह। परतयक वसत ' अपनी-अपनी गरवसथा की रचगरिता - ईशवर ह । सव का सवामी ह, पर का सवामी मानना मिथयातव ह ।

सयोग क बिना अवसथा नही होती - ऐसी नही ह; परनत वसत परिणमित हय बिना अवसथा नही होती - ऐसा सिदधानत ह परयाय क HA तव- का शरधिकार वसत का अपना ह, उसम पर का भरधिकार नही ह ।

इचछारपी कारय हआ, उसका करता आसमदरवय ह ।

उपतसमय उसका जञान FAT, GH AAT HT HAT आतमदरवय ह।

परव पयोय म लीनर राय था, इसलिय वरतमास Fut gar इसपरकार परव परयाय म इस परयाय का करततापना नही ह। वरतमान म आतमा वस -भावरप परिणमित होकर सवय करता हआ ह। इसीपरकार . जञान परिणाम, शरदधा परिणाम, आननद परिणाम उत सबका करतता आतमा ह, पर नही । पत क परिणाम भी करतता नही तथा वरतमान म उसक साथ बतत हए अनय परिणाम 'भो करता नही ह - आतमदरवय सवय करतता ह। शासतर म परव परयाय कभी-कभी उपादान कहत ह, वह तो परव-पशचातत‌ की सधि बतलान क लिय कहा ह; परनत: परयाय- को करतता तो उससमय वरतता हआ दरवय ह, वही परिणामी होकर. कारयहप परिणमित हआ ह। जिससमय समयगदरशनपरयाय हई, उससमय उसका करतता आतमा ही ह। परव की इचछा, वीतराग की. वाणी या शासतर - व -कोई वासतव म इस समयरदशन क करतता नही ह ।

उसीपरकार जञानकारय का करता भी आतमा ही ह। इचछा का जञान हआ, वहा वह जञान कही इचछा का कारय नही ह और वह इचछा जञान का कारय नही ह। दोनो परिणाम एक ही वसत क होन पर भी उनम करतता- कमपना नही ह, करतता तो परिणामी वसत ह ।

पदगल म खटटी-खारी अवसथा थी और जञान न तदनसार जाना; वहा खटट -खार तो पदगल क परिणाम ह और पदगल उनका करता ह ततसमबनधी जो जञान हआला, उसका करतता आतमा ह, उस जञान का करतता वह खटटी-खारी अवसथा नही ह। कितनी सवततरता। उसीपरकार शरीर म

श८० [ शरावकघरम परकाश

रोगादि जो कारय हो, उसक Hala gatas, sem adi AIT उस शरीर की अवसथा का जो जञान हआ, उसका करता परातमा ह।। झातमा करतता होकर जञानपरिणाम को करता ह, परनत शरीर की अवसथा को वह

नही करता ।

यह तो परमशवर होन क लिय परमशवर क घर की बात ह। परमशवर सरवजञदवकथित यह वसतसवरप ह।

जगत म चतन या जड परनत पदारथ शरनतरप स नितय रहकर

अपन वरतमान कारय को करत ह; परतयक परमाण म सपरश-रग आदि अनत गण; सपरश की चिकनी आदि अवसथा; रग-को काली शरादि अवसथा उस-उस गरवसथा का करतता परमारदरवय ह; चिकनी अवसथा, वह काली शरवसथा की करतता नही ह ।

इसपरकार आतमा म - परतयक आतमा म गरनन‍त गण ह। जञान म कवलजञान परयायरप कारय हआ, आाननन‍द परगट FAT, BAHT HAT AAT

सवय ह। मनषय शरीर अथवा सवसथ शरीर क कारण वह कारय हआ - ऐसा नही ह; परव की मोकषमारग परयाय क शराघार स वह कारय हआ - ऐसा भी नही ह; शान और आननद क परिणाम भी एक-दसर क आशरित नही ह; दरवय ही परिणमित होकर उस कारय का करतता हआ ह। भगवान आतमो सवय ही उपन कवलजञानादि कारय का करतता ह, अनय कोई नही । यह तीसरा बोल हआ ।

(x) वसत की सथिति सदा एकरप (कटसथ) नही रहती

सरवजञदव दवारा दखा हआ वसत का सवरप ऐसा ह कि वह नितय अवसथित: रहकर परतिकषण नवीन अवसथारप परिणमित होता रहता ह। परयाय बदल बिना जयो का तयो कटसथ' ही रह - ऐसा वसत का सवरप नही ह। वसतत दरवय-परयाय सवरप ह, इसलिय उसम सरवथा war नितयपना नही ह, परयाय स परिवरततपना भी ह। वसत सवय ही शरपनी परयायरप स पलटती ह, कोई दसरा उस परिवरतित कर - ऐसा नही ह।

नयी नयी परयायरप होना, वह वसत का अरपना सवभाव ह; तो कोई उसका क‍या करगा ? इन सयोगो स कारण यह परयाय हई- इसपरकार सयोग क कारण जो परयाय मानता ह, उसन वसत क परिणमनसवभाव को नही जाना ह, दो दरवयो को एक माना ह। भाई । त सयोग स न दख, वसततवभाव को दख 1 वसतसवभाव ही ऐसा ह कि वह

सवतनतरता की घोषणा | { 25%

नितय एकरप न रह | दरवयरप स एकरप रह; परनत परयायरपस एकरप

* न रह, पलटता ही रह - ऐसा वसतसवरप ह ।

इन चार बोलो स ऐसा समझाया ह कि वसत ही अपन परिणामरप कारय की करतता ह - यह निशचित सिदधानत ह ।

इस पसतक का पषठ पहल ऐसा था और फिर पलट गया; वह हाथ लगन स पलटा हो - ऐसा नही ह; परनत उन एषठो क रजकणो म ही ऐसा सवभाव ह कि सदा एकरप उनकी सथिति न रह,उ नकी अवसथ

बदलती रहती ह; इसलय व सवय पहलो अवसथा छोडकर दसरो गरवसथारप हय ह, दसर क कारण नही | वसत म भिनन-भिनन भरवसथ होती ही रहती ह; वहा सयोग क कारण वह भिन‍न अवसथा हई - Tat

अरजञानी का भरम ह, कयोकि वह सयोग को ही दखता ह, परनत वसतसवभाव को नही दखता | वसत सवय परिणमनसवभावी ह, इसलिय वह एक ही परयायरप नही रहती - ऐस सवभाव को जान तो किसी सयोग स अपन म या अपन स पर म परिवरतन होन की बदधि छट जाय और came at ओर दखना रह, इसलिय मोकषमारग परगठट VT

पानी पहल ठडा था और चलह पर आन क बाद गरम हआ; वहा उन रजकणो का ही ऐसा सवभाव ह कि उनकी सदा एक अवसथारय सथिति न रह; इसलय द अपन सवभाव स ही ठडी शरवसथा को छोडकर गरम अवसथारप परिणमित हय ह। इसपरकार सवभाव को न दखकर अजञानी सयोग को दखता ह कि अगनि क आन स पानी ग हआ आचारयदव न चार बोलो स सवतसतर वसतसवरप समभाया ह, उस समझ ल तो कही भरम न रह ।

एकसमय म तीनकाल तीनलोक को जाननवाल सरवजञ परमातमा वीतराग तीरथकरदव की दिवयधवनि म आया हआ यह तततव ह और सन‍तो न इस परगट किया ह ।

बरफ क सयोग स पानी ठडा हआ और अगनि क सयोग स गरम हआ-एऐसा अजञानी दखता ह, परनत पानी क रजकणो FA set अवसथारप परिणमित होन का सवभाव ह, उस अजञानी नही दखता। भाई ! वसत का सवरप ऐसा हो ह कि अवसथा की सथिति एकरप न रह ! वसत कटसथ नही ह, परनत बहत हए पानी की भाति दरवित होती ह - परयाय को भरवाहित करती ह, उस परयाय का परवाह वसत म स आता ह, ayer Fa adi ara | भिन‍न परकार क सयोग क कारण अवसथा

2८२ ] [ आवकधरम परकाश

की भिलनता हई अरथवो सयोग बदल, इसलिय अवसथा बदल गई - ऐसा अरम अजञानी को होता ह; परनत वसतसवरप ऐसा नही ह। यहा. चार बोलो:दवारा वसत का सवरप एकदम सपषट किया ह ।

१. परिणाम ही करम ह।

. परिणामी वसत क. ही परिणाम ह, भरनय क नहो ।

वह परिणामरपी करम करतता क बिना नही होता ! वसत की सथिति एकरप नही रहती ।

इसलिय वसत सवय ही अभरपन परिणामरप कम की करतता ह - यह सिदधात ह।

इन चारो बोलो म तो बहत रहसय भर दिया ह । उसका निरणय करन स भदजञान तथा दरवयसनमखहषटि स मोकषमागग परगट होगा ।

परशन :- सयोग क आन पर तदनसार शरवसथा बदलती दिखाई दती ह न ?

उततर :- यह .बराबर नही . ह, वसतसवभाव को दखन स एसा

दिखायी नही दता, अवसथा बदलन का सवभाव वसत का अपना ह - VAT दिखायी दता ह । करम का मद . उदय ही,.इरसलिय मनद राग और तीक उदय. हो, इसलिय तीवर राग - ऐसा नही ह। अरवसथा एकरप नही रहती परनत अपनी. योगयता स मद-तीबररप स . बदलती ह - ऐसा सवभाव वसत का अपना ह, वह कही पर क कारण नही ह.

भगवान क निकट जाकर पजा कर या शासतरशववण कर, उससमय

अलय परिणाम होत ह गरोर घर पहचन - पर अलग परिणाम हो जात ह, तो कया सयीरग क कारण व परिणाम बदल ? नही; वसत एकरप न रहकर उसक परिणाम बदलत रह -.ऐसा ही उसका.सवभाव ह। उन परिणामो का बदलना वसत क आशय स ही. होता ह; सयोग क आशरय स नही । इसपरकार वसत सवय अपन परिणाम की करतता-ह ७ यह निशचरित सिदधात ह।

इन' चार बोलो क सिदधातानसार वसतसवरप को, समझ तो मिथयातव की जड उखड जाय और पराशचितबदधि छट जाय | ऐस सवभाव को परतीति होन स अखड सव-वसत पर लकष जाता ह और समयमजान

- परगट होता ह। समयशजञान परिणाम का:करता आरातमा सवय ह। पहल

लए नए:

सवतनतरता की घोषणा ] [ १८३

भरजञान परिणाम भी वसत क ही शरशनय स थ और अब जञान परणाम हय, व भी वसत क ही शराशनय स ह।

मरी परयाय का करतता दसरा कोई नही ह, मरा दरवय परिणमित

हीकर मरी परयाय का करतता होता ह - ऐसा निशचय करन स सवदरबय पर * लकष जाता ह और मदजञान तथा समयगशान होता ह। भरब, उस काल म

चॉरजिदोष स कछ रागादि परिणाम रह, व भी अरशदधनिशवयनय स आतमा का परिणमन होन स आतमा का कारय ह - ऐसा घरमीजीव जानता ह; उस जानन की शरपकषा स वयवहार को उस काल म जाना हआा परयोजनवान कहा ह !

धरमी को दरवय का शदध सवशनाव लकष म! आ गया ह, इसलिय समयकतवादि ,नरमल कारय होत ह और जो राग शष रहा ह, उस भी व अपना परिणमन जानत ह; परनत अब उसकी मखयता नही ह। मरयता तो सवभाव की हो गई ह। पहल अजञानदशा म मिथयातवाद परिणाम थ, व भी .सवदरवय क अशदध उपादान क आशरय स ही थ; परनत जब निशचत किया कि मर परिणाम अपन दरवय क ही आशरय स होत ह तनबन उस जीव को मिथयातवपरिणाम नही रहत, उस तो समयकतवाविरप परिणाम ही होत ह ।

अब जो रागपरिणमन साधकपरयाय म शष रहा ह, उसम यदयपि उस एकतवबदधि नही ह, तथापि वह परिणमन अपना ह - ऐसा वह जानता ह। ऐसा वयवहार का जञान उस काल का परयोजनवान ह।

समयगजञान होता ह, तब निशचय-वयवहार का यथारथ सवरप जञात होता ह, तब दरवय-परयाय का सवरप जञात होता ह, तब करतता-करम का सवरप जञात होता ह और सवदरवय क लकष स मोकषमारगरप कारय परगट होता ह उसका करता आतमा सवय ह |

इसपरकार इस २११ व कलश -म grasa A aie बोलो दवारा सपषटरप स अलौकिक वसतसवरप: समकाया ह; उसका विवचन परण हआ ।

हमार महततवपरण परकाशन

१. समयसार

२०१ नियमसार

5३. पचासतिकायसगरह

४. समयसार नाटक

५. मोकषमारगपरकाशक

६, परवचनरतनाकर भाग शया रया ३ ७. जञानगोषठी

८. भकतामर परवचन

६. faqfaara १०. जिनवरसय नयचकरम‌ (हिनदी) साधारण

११, करमबदधपरयाय (हिनदी, गजराती, Fast, Hag, afta) साधारण

१६, धरम क दशलकषण (हि., गर, म., क., त., अ.) साधारण

१३. तीरथकर महावीर झौर उनका सरवोदय तोथ (हि., ग., म., क , पर.)

१४, सतय की खोज [कथानक]| (हि., ग.. म., क., त.) साधारण

१५. म कौन ह ? ; '

१६. यगपरष शरी कानजी सवामी (हिनदी, गजराती, मराठा, कननड, तमिल)

१७. परमारथवचनिका

१८. अदवितीय चकष १६. लघ जनतिदधानत परवशिका २०. छहढाला (सचितर)

२१. छहढाला (मल) २२. वीतराग-विजञान परशिकषण निरदशिका

२३. तीरथकर भगवान महावीर (हि., ग.,, म., क., पर., त., भर.) २४. वीतरागी वयकतितव : भगवान महावीर (हिनदी, गजराती ) २४. गोममटशवर बाहबली

२६. चतनय-चमतकार

२७. वीर हिमाचल त निकसी २८. शरचना (पजनसगरह) र

२६.. बालबोघ पाठमाला भाग १ (हिनदी, गजराती, मराठी, .कनरड, तमिल)

३०. बालबोध पाठमाला भाग २ व ३ (हिनदी, गजराती, मराठी, कननड, तमिल) ३१. वीतराग-विजञान पाठमाला भाग १ (हिनदी, गजराती, मराठो)

३२. वीतरागर-विजञान पाठमाला भाग २ या ३ (हिनदी, गजराती, मराठी) ३३. तततवजञान पाठमाला भाग १ (हिनदो, गजराती)

३४. तततवजञान पाठमाला भाग २ (हिनदी, गजर/ती) ३५. महावीर वदना या म जञानाननद सवभावी ह (Hatvsz)

गरनथ

समयगजञान चनदरिका भाग-१

जबहदजिनवाणी सगरह / मो कषशासतर

समयगजञान चनदरिका भाग-२, ३ |

समयसार |

परवचनसार / अषटपाहड / समयसार अनशीलन भाग-१ समपरण आ. अमतचनध; वयकतितव और करतततव |

नियमसार / समयसार कलश टीका

परमभाव परकाशक नयचकर

सिदधचकर विधान / पचासतिकाय / समयसार नाटक / धवलसार / मोकषमारग

परकाशक / परवचनरतनाकर भाग-२

परवचनरतनाकर - भाग-१ / भावदीपिका

ससकार / परवचनर तनाकर भाग-६/

जञानसवभाव-जञ यसव भाव / जिन नद अरचना / इनदरधवज विधान

प, टोडरमल ; वयकतितव और करतततव / आतमा ही ह शरण

आ. कनदकनद और उनक टीकाकार / कालजयी वयकतितव : बनारसीदास / परवचनरतनाकर भाग-३, ४, ५ व ७

राम कहानी

सतय की खोज/ परषारथसिदधयपाग / वारसाणवकखा / शरावकधरम परकाशक

तीथकर भगवान महावीर और उनका सरवोदय तीरथ / जञानगोषठी / परीकषामख / विदाई की वला / चौबीस तीरथकर पजन विधान / पचकलयाणक महोतसव पजन / भकक‍तामर परवचन / बीतराग-विजञात पाठमाला भाग-१, २, ३ का सट

थरम क दशलकषण / बारह भावना एक अनशीलन / जिनवरसय नयचकरम‌ / आप कछ भी कहो / बालबोध पाठमाला भाग-३, २, ३

कर मबदध परयाय / गागर म सागर / आ. कनदकनद और उनक पचपरमागम /

गरनथ

कारणशदधपरयाय / छहढाला सचितर / बनारसी विलास / णमोकार महामतर / अरदधक धानक / अधयातम सदश / बीतराग-विजञान परवचन भाग-३, ४

तततवजञान पाठमाला भाग १ एव २

सखी होन का उपाय भाग-१, २ एव ३/ बवीतराग-विजञान परवचन भाग-२/ मनीषियो की दषटि म समयसार / शानतिविधान / रतनजञय पजन-विधान /

भकति सरोवर / जन बालपोथी भाग-१ /

गणसथान परवशिका / जन बालपोथी भाग-२ / सततासवरप/पदारथ विजञान /

सामानय शरावकाचार / जिनपजन रहसय

पचकलयाण परतिषठा महोतसव / वीतराग

विजञान परवचन-१ चोसठ ऋदधि विधान / पचपरमषठी पजन विधान / वीर हिमाचल त निकसी

अहिसा महावीर की दषटि म/ निमिततोषादान / चिदविलास

म कौन ह / लघ जनसिदधानत परवशिका / चतनय चमतकार / भरत बाहबली नाटक / शानतिसधा / मकति का मारग / आतमसमबोधन / जिनधरम परवशिका / जनमहरतत विधि

सार समयसार / । शाशवत तीरथधाम ; सममदशिखर

कनदकनद शतक / समयसार पदयानवाद

'णमोलोए सववसाहण / बारहभावना एव

जिननदर वनदना / शदधातम शतक / तीरथकर भगवान महावीर / अनकानत और सयादवाद‌ / शाकाहार : जनदरशन क परिपरकषय म / जन झणडा गायन

अरचना (जबी साइज) / गोममटशवर बाहबली

योगसार पदचानवाद / उपासना

वीतरागी वयकतितव : भगवान महावीर \