संस्कृत भाषा उद्भव एवं विकास - NCERT

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थम अध त भष—उव एव वस सार की उपल भाषाओ म स सकत ाचीनतम है। इस भाषा म ाचीन भारतीय सभयता और स सक तत का बहुत बडा भणार है। वै तिक काल से लेकर आुतनक काल तक इस भाषा म रचनाएँ होती रही ह, सातहतय तलखा जाता रहा है। तजन तिन तलखने के सान तवकतसत नह थे, उन तिन भी इस भाषा की रचनाएँ मौतखक परमपरा से चल रही थ। उस परमपरा की रचनाएँ जो आज बची ह, अरश: सुरतत ह। यही नह, उनके उचचारण की तवत भी पूववत् है, उसम कोई मौतलक पररवतन नह हुआ है। सकत भाषा को िेववाणी या सुरभारती कहा जाता है। इस भाषा म सातहतय की ारा कभी नह सूखी, यह बात इसकी अमरता को मातणत करती है। मानवजीवन के सभी प पर समान प से काश ालने वाली इस भाषा की रचनाएँ हमारे िेश की ाचीन त की वयापकता तस करती ह। ‘वसुैव कुटुमबकम्’ (समपूण पथवी ही हमारा परवार है) का उोष स सकत भाषा सातहतय की ही िेन है। सकत भाषा वैातनक त से भारोपीय परवार की भाषा है। ीक, लैतटन, अ ेजी, सी, फा सीसी, सपेनी आति यूरोपीय भाषाएँ भी इसी पररवार की भाषाएँ कही गई ह। यही कारण है तक इन भाषाओ म स सकत शि जैसी ही धवतन और अथ वाले अनेक शि तमलते ह। 1 ईरानी भाषा तो स सक त से बहुत अतक तमलती है। तपछले िो-सौ वष म यूरोपीय तवान ने स सकत का पया अधययन इन भाषाओ से तुलना के आार पर तकया है। इस त से स सकत भाषा तविेश म अतयतक आिर पा चुकी है। आज भी यूरोपीय भाषाओ का ऐततहातसक अधययन करने के तलए स सकत का अनुशीलन तविेशी तशा- सथाओ म भी अतनवाय प से तकया जाता है। हमारे िेश की ाय: सभी आुतनक भाषाएँ स सक त से जुडी ह। तहनिी, मराठी, गुजराती, ब गला, ओतडआ, असतमया, प जाबी, तसनी आति भाषाएँ भी इससे तवकतस1 तुलनीय–संसक त-अतसत, लै तटन-एसत, फारसी-असत। ये सभी समानाथक ह। 2022-23

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प्रथम अध्या्

ससं क्ृ त भयाषया—उद्भव एवं वव्यास

संसार की उपलब्‍ध भाषाओ ंमें संसककृ त प्ाचीनतम ह।ै इस भाषा में प्ाचीन भारतीय सभयता और संसककृ तत का बहुत बडा भण्ार ह।ै वैतिक काल से लेकर आ‍धतुनक काल तक इस भाषा में रचनाए ँहोती रही हैं, सातहतय तलखा जाता रहा ह।ै तजन तिनों तलखने के सा‍धन तवकतसत नहीं थे, उन तिनों भी इस भाषा की रचनाए ँमौतखक परमपरा से चल रही थीं। उस परमपरा की रचनाए ँजो आज बची हैं, अक्षरश: सरुतक्षत हैं। यही नहीं, उनके उचचारण की तवत‍ध भी पवू्ववत ्ह,ै उसमें कोई मौतलक पररवत्वन नहीं हुआ ह।ै

संसककृ त भाषा को िवेवाणी या सरुभारती कहा जाता ह।ै इस भाषा में सातहतय की ‍धारा कभी नहीं सखूी, यह बात इसकी अमरता को प्मातणत करती ह।ै मानवजीवन के सभी पक्षों पर समान रूप से प्काश ्ालने वाली इस भाषा की रचनाए ँहमारे िशे की प्ाचीन दृतटि की वयापकता तसद्ध करती हैं। ‘वस‍ुधवै कुटुमबकम’् (समपणू्व पकृथवी ही हमारा पररवार ह)ै का उद्ोष संसककृ त भाषा सातहतय की ही िने ह।ै

संसककृ त भाषा वैज्ातनक दृतटि से भारोपीय पररवार की भाषा ह।ै ग्ीक, लैतटन, अगं्ेजी, रूसी, फांसीसी, सपेनी आति यरूोपीय भाषाए ँभी इसी पररवार की भाषाए ँकही गई हैं। यही कारण ह ैतक इन भाषाओ ंमें संसककृ त शब्िों जैसी ही धवतन और अथ्व वाले अनेक शब्ि तमलते हैं।1 ईरानी भाषा तो संसककृ त से बहुत अत‍धक तमलती ह।ै तपछले िो-सौ वषषों में यरूोपीय तवद्ानों ने संसककृ त का पया्वप्त अधययन इन भाषाओ ंसे तलुना के आ‍धार पर तकया ह।ै इस दृतटि से संसककृ त भाषा तविशेों में अतयत‍धक आिर पा चकुी ह।ै आज भी यरूोपीय भाषाओ ंका ऐततहातसक अधययन करने के तलए संसककृ त का अनशुीलन तविशेी तशक्षा-संसथाओ ंमें भी अतनवाय्व रूप से तकया जाता ह।ै

हमारे िशे की प्ाय: सभी आ‍धतुनक भाषाए ँ संसककृ त से जडुी हैं। तहनिी, मराठी, गजुराती, बंगला, ओतडआ, असतमया, पंजाबी, तसन‍धी आति भाषाए ँभी इससे तवकतसत

1 तलुनीय–संसककृ त-अतसत, लैतटन-एसत, फारसी-असत। ये सभी समानाथ्वक हैं।

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हुई हैं। दक्षिण भारत की तक्िल, तेलगु,ु कन्नड़ तथा िलयालि िें भी संसककृ त के बहुत से शबद क्िलते हैं क्िनहें उ्न भाषाओ ं्ेन अप्ेन ढंग से अप्नाया ह।ै इसी प्रकार दक्षिण भारत की इ्न द्रक्िड़-भाषाओ ंसे संसककृ त ्ेन भी सिय-सिय पर अ्ेनक शबद क्लए हैं तथा उनहें अप्ेन रूप िें ढाल क्लया ह।ै यही कारण ह ैक्क पकृथक् भाषा पररिारों के हो्ेन पर भी दो्नों का परसपर सािञिसय ह।ै संसककृ त भाषा ्ेन राष्ट्र की एकता के क्लए बहुत बड़ा काय्य क्कया ह।ै क्िष्णपुरुाण की उक्ति ह ै—

उत्तरं यतसिदु्रसय क्हिाद्रशे्ैि दक्षिणि।् िषषं तद ्भारतं प्राहुभा्यरती यत्र सनतक्त:।।

िो दशे (िष्य) सिदु्र (क्हनद िहासागर) के उत्तर और क्हिालय के दक्षिण िें अिक्सथत ह ैउसे पहले के लोगों ्ेन ‘ भारत’ कहा ह।ै िहाँ की प्रिा ‘भारती’ (भारतीय) कहलाती ह।ै

संसककृ त भाषा सहस्ों िषषों से चली आ रही ह।ै इस अिक्ि िें इसका रूप पररिक्त्यत होता रहा ह।ै भाषा िैज्ाक््नकों के अ्नसुार आिकु््नक भाषाओ ंतक इसके क्िकास की प्रक्रिया इस प्रकार रही ह ै—1. प्राचीन आर्य भराषरा कराल (6000 ई. प.ू – 800 ई. प.ू)– इस काल िें िैक्दक भाषा

और प्राची्न संसककृ त भाषा के क्िकास की प्रक्रिया चलती रही। 2. मधरकरालीन आर्य भराषरा कराल (800 ई. प.ू –1000 ई.)– इस काल िें पाक्ल,

प्राककृ त तथा अपभ्शं भाषाओ ंका क्िकास हुआ। क्शक्षित सिाि िें संसककृ त का प्रयोग होता रहा तथा अक्िकांश प्रािाक्णक ग्रनथ इसी सिय िें क्लख ेगए। इस काल िें ि्न-सािानय िें संसककृ त भाषा का प्रयोग बहुत अक्िक ्नहीं रहा, क्कनत ुइसके प्रक्त समिा्न का भाि पिू्यित ्ब्ना रहा।

3. आधुननक आर्य भराषरा कराल (1000 ई. – अब तक)– इस काल िें क्िक्भन्न प्रदशेों िें बोली िा्ेन िाली अपभ्शं-भाषाओ ंसे आिकु््नक आय्य भाषाओ ंका क्िकास हुआ। द्रक्िड़ पररिार की भाषाओ ंको छोड़कर क्हनदी, िराठी आक्द उपयु्यति सभी भाषाए ँइसके अतंग्यत हैं। इ्न सभी भाषाओ ंिें पया्यप्त साक्हतय रचा गया। इस काल िें भी संसककृ त भाषा क्वितीय यगु के सिा्न क्शक्षित ि्नसिदुाय िें प्रचक्लत रही, इसिें रच्नाए ँभी होती रहीं। प्रादके्शक भाषाओ ंिें भी िखुयत: ग्रनथ-लेख्न का काय्य उनहीं लोगों ्ेन क्कया, िो संसककृ त के पक््डित थे, कयोंक्क संसककृ त भाषा के अभाि िें क्शषिा की कलप्ना ही ्नहीं हो सकती थी। इस काल िें क्िदशेी शास्न का आरमभ हुआ, क्िससे तकुकी, अरबी और फारसी भाषाए ँभारत िें शासकों विारा लाई गइषं। इ्नका

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संस्सस्स कृ त भाषा—उद्भव एवस्त भाषा—उद्भव एवस् ं वत भाषा—उद्भव एव वत भाषा—उद्भव एव व् वव् व ासव्ासव् 3

प्भाव आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ंके शब्िकोश पर पडा, तजससे बहुत से नए शब्ि इन भाषाओ ंसे आय्व भाषाओ ंमें आ गए। संसककृ त भाषा इस आिान-प्िान से अत‍धक प्भातवत नहीं हुई।

भयाषया ्े रूप तकसी भी भाषा के िो रूप होते हैं — वयावहाररक अथा्वत ्बोलचाल में आने वाली भाषा तथा तसथरता पाने वाली सातहततयक भाषा। बोलचाल की संसककृ त भाषा का प्ाचीन रूप भास, कातलिास, शदू्रक आति के नाटकों में प्ाप्त होता ह।ै सामानयत: संसककृ त में जो सातहतय सरुतक्षत ह ैवह उसके सातहततयक रूप का प्तततनत‍ध ह।ै

तनतश्त रूप से बोलचाल की भाषा सरल तथा रूत़ि मकुत रहती ह।ै िसूरी ओर, सातहततयक भाषा पररष्ककृ त तथा अलंककृ त होने लगती ह।ै बोली जाने वाली संसककृ त भाषा वयाकरण और उचचारण के अनशुासन से मतुि होकर ‍धीरे-‍धीरे पातल, प्ाककृ त आति परवतकी भाषाओ ंके रूप में बिल गई, जबतक इसका सातहततयक रूप रिमश: कतठनाई की ओर ब़िा।

ससं क्ृ त ्या सयाविव््् वव्यासप्ाचीन आय्व भाषा काल में संसककृ त के अनेक रूप तमलते हैं, तकनत ुइस काल के अनत में जब पातणतन (700 ई. प.ू) के वयाकरण से इसे पररतनतठित रूप तमला, तब रूपों की अतसथरता समाप्त हो गई और भाषा एक ही रूप में तसथर हो गई। इस काल के बाि सभी संसककृ त ग्नथ इसी तनयत भाषा में तलख ेगए। इसका पररणाम यह हुआ तक संसककृ त की वातचक ‍धारा पातल, प्ाककृ त आति भाषाओ ंके रूप में पररवतत्वत हो गई। संसककृ त का रूप तो आज तक पातणतन के वयाकरण पर ही आतरित ह ैपरनत ुइसमें अनय भारतीय भाषाओ ंके शब्िों का आगमन होता रहा। पातणनीय वयाकरण का अनसुरण करने वाले संसककृ त सातहतय को लौव्् सातहतय कहते हैं। वसततु: इस शब्ि का प्योग वैतिक सातहतय से तभनन समसत संसककृ त सातहतय के तलए तकया जाता ह।ै इस अथ्व में लौतकक संसककृ त सातहतय, रामायण, महाभारत और परुाणों को भी समातवटि कर लेता ह,ै भले ही इनमें पातणतन के तनयमों का यत्र-तत्र उललंघन भी ह।ै

संसककृ त में सातहततयक भाषा की रिमश: िो ‍धाराए ँतमलती हैं— वैतिक संसककृ त की ‍धारा तथा लौतकक संसककृ त की ‍धारा। वैतिक संसककृ त की ‍धारा भी अनेक रूपों में ह।ै प्ाचीनतम वेि ऋगवेि की भाषा अनय सव्वत्र एक समान नहीं ह।ै अनय वेिों में जो भाषा का

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रूप प्राप्त होतरा ह,ै उसमें सरलीकरण की प्वतृ्ति त्िखराई ितेी ह।ै शबिरूपों और धरातरुूपों की अत्ियत्मततरा तथरा अिेकतरा क्रमश: िरू होती जराती ह।ै अन्य वेिों में हमें गद्य भी त्मलतरा ह,ै जबत्क परूी ऋगवेि-संत्हतरा पद्यरातमक ह।ै संत्हतराओ ंके बराि उिकी वयराखयराओ ंके रूप में ब्राह्मण, आरणयक तथरा उपत्िषि ्ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। यद्यत्प इि सब में सरामरान्य रूप से वैत्िक संसकृत ही प्यकु्त ह,ै त्कन्त ुवह संसकृत लौत्कक संसकृत की ओर अत्भमखु त्िखराई पड़ती ह।ै

वैत्िक संसकृत और लौत्कक संसकृत के सत्न्धकराल में हमें ररामरायण तथरा महराभरारत जैसे ग्रन्थ त्मलते हैं। इि ग्रन्थों की भराषरा में वैत्िक वराकयों जैसी सरलतरा ह ैतथरा जत्िल शबिरूपों करा अभराव ह।ै इि ग्रन्थों की भराषरा िे लौत्कक संसकृत सरात्हतय को त्वकरास करा मराग्ग त्िखरायरा। इसी कराल में संसकृत वयराकरण के सपु्त्सद्ध लेखक परात्णत्ि करा आत्वभरा्गव हुआ, त्जन्होंिे अपिे समय में प्चत्लत संसकृत भराषरा करा वयरापक अिशुीलि करके अष्टाध्टा्ी िरामक ग्रन्थ में भराषरा-समबधी त्ियम बिराए। उन्होंिे तलुिरा के त्लए वैत्िक भराषरा के त्वषय में भी अपिे त्िष्कष्ग को सतू्र-रूप में उपत्सथत त्कयरा। परात्णत्ि िे वेिों की भराषरा को सरामरान्य रूप से छन्दस ्और लौत्कक संसकृत को केवल भटाषटा कहरा ह।ै परात्णत्ि के बराि त्वकत्सत संसकृत सरात्हतय में उसी भराषरा करा उपयोग होिे लगरा। कत्वयों और लेखकों की शलैी में जो भी अन्तर रहरा हो, भराषरा वही रही। अन्य वैयराकरणों िे भी परात्णत्ि के द्राररा सथरात्पत भराषरा को ही मरािक सवीकरार कर अपिे-अपिे वयराकरण त्लख।े

संसकृत के सरात्हत्तयक त्वकरास को चरार चरणों में िखे सकते हैं – (1) वैत्िक सरात्हतय (2) ररामरायण व महराभरारत (3) मध्यवतती संसकृत सरात्हतय तथरा (4) आधतु्िक संसकृत सरात्हतय। शरासत्र-ग्रन्थों की रचिरा सभी चरणों में होती रही थी। भराषरा वैज्रात्िक दृत्टि से इि चरणों करा कराल इस प्करार मरािरा जरा सकतरा ह–ै

(1) वैत्िक सरात्हतय (6000 ई.प.ू से 800 ई. प.ू), (2) ररामरायण व महराभरारत (800 ई.प.ू से 300 ई. प.ू), (3) मध्यवतती संसकृत सरात्हतय (300 ई.प.ू से 1784 ई. त्जसमें महराकरावय, िरािक, खण्डकरावय आत्ि त्वधराओ ंके सरल तथरा अलंकृत ग्रन्थ त्लख ेगए) एवं (4) आधतु्िक कराल (1784 ई. से आज तक)।

वैदिक और लौदकक ससंककृ त में भेिसंसकृत भराषरा के वैत्िक रूप में सभी वेिों की संत्हतराए,ँ ब्राह्मण, आरणयक तथरा उपत्िषि-्ग्रन्थ त्लख ेगए हैं। इसके लौत्कक रूप में वेिों करा उपयोग बतलरािे वराले वेिरा�-ग्रन्थ,

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रामायण, महाभारत, नाटक, कावय, कथा-सातहतय, आयवुवेि आति से संबद्ध ग्नथों की रचना तवतभनन यगुों में हुई। वैतिक संसककृ त में मखुयत: ‍धम्वप्‍धान सातहतय की रचना हुई, तजसका उपयोग यज् आति में होता था। लौतकक संसककृ त में जीवन के अनय अनेक पक्ष भी तमलते हैं। वैतिक संसककृ त का आरमभ तो पद्य से ही हुआ, तकनत ु‍धीरे-‍धीरे गद्य का भी साम्ाजय छा गया। लौतकक संसककृ त में पनु: पद्य की प्ततठिा हुई और गद्यरचना का क्षेत्र सीतमत हो गया। गद्य तलखना कतठन माना जाने लगा। वतैिक भाषा के छनिों से लौतकक संसककृ त के छनिों में भी तभननता आई। इस प्कार संसककृ त के छनिों में अत‍धक तवतव‍धता आ गई।

भाषा की दृतटि से वैतिक संसककृ त, लौतकक संसककृ त से बहुत तभनन ह,ै तकनत ु यह तभननता ऐसी नहीं, जैसी संसककृ त और प्ाककृ त में ह।ै संसककृ त और प्ाककृ त में धवतनगत अनतर का प्ाचयु्व ह,ै जबतक वैतिक और लौतकक संसककृ त में धवतनगत अनतर शनूयप्ाय ह,ै तवशषे रूप से शब्िगत भिे ही अत‍धक ह।ै िोनों एक ही भाषा की िो शैतलयाँ हैं। वैतिक संसककृ त में शब्ि-रूप संखया में अत‍धक थे, लौतकक संसककृ त में कम, जैस—े संसककृ त शब्िरूप गनतमु ्(जाने के तलए) ह।ै वैतिक भाषा में इसके अततररति इसी अथ्व में गनतवे, गमधयै, गनतो: इतयाति कई रूपों के प्योग थे। अकारानत शब्िों के प्थमा-बहुवचन में तप्या:, तप्यास: जैसे िो रूप वैतिक संसककृ त में थे, तकृतीया बहुवचन में भी तप्यै: तप्येतभ: जैसे िो रूप यहाँ थे, लौतकक संसककृ त में ये कम होकर, केवल तप्या: और तप्यै: ही रह गए। इस प्कार िोनों भाषाओ ंमें मखुय अनतर वतैिक भाषा में शब्िों के वैकतलपक रूपों की अत‍धकता और लौतकक संसककृ त भाषा में शब्िों के वैकतलपक रूपों की नयनूता ह।ै

आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ंसे संसककृ त का घतनठि समबन‍ध ह।ै ऊपर कहा गया ह ैतक संसककृ त भाषा से ही प्ाककृ त भाषाओ ंका तवकास हुआ। ये भाषाए ँजनसामानय में प्चतलत हुइषं। संसककृ त नाटकों में भी इनका प्योग कुछ पात्रों के संवाि के रूप में होने लगा। इसमें सवतनत्र ग्नथ भी तलख ेगए तजनमें कावयों की संखया अत‍धक थी। उ‍धर आरतमभक बौद्ध सातहतय पातल भाषा में तलखा गया। जैन ‍धम्व के ग्नथ अ‍ध्वमाग‍धी (प्ाककृ त का एक भिे) में तलख ेगए। प्थम शताब्िी ई. के बाि से इन ‍धमषों के ग्नथ संसककृ त में भी तलख ेजाने लगे। प्ाककृ त का तवकास उत्तरी और मधय भारत के तवतव‍ध क्षेत्रों में तवतभनन रूपों में हुआ। इसतलए प्ाककृ त के महाराष्ट्री (महाराष्ट्र में), शौरसेनी (पतश्मी उत्तर प्िशे में), माग‍धी (पवूकी भारत में), अ‍ध्वमाग‍धी (पवूकी उत्तर प्िशे में) तथा पैशाची (तसन‍ध और पतश्मोत्तर भारत में)। ये मखुय भिे हैं, जबतक उपभिेों की संखया अत‍धक ह।ै

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इन प्ाककृ तों से उन-उन नामों वाली अपभ्शं भाषाओ ंका तवकास हुआ। ये भी तवतभनन क्षेत्रों से समबद्ध हुइषं। इस काल में संसककृ त शब्ि-रूपों की तवभततियों को मलू शब्ि से पकृथक् तकया गया तथा नये-नये तवभतति-तचह्ों का तवकास हुआ। क्षेत्रीय अपभ्शं भाषाओ ंने पकृथक्-पकृथक् आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ं को जनम तिया। महाराष्ट्री अपभ्शं से मराठी, शौरसेनी से तहनिी, खस अपभ्शं से पहाडी, ब्ाचड से गजुराती और तसन‍धी, माग‍धी से तबहार की भोजपरुी, मतैथली और मगही के अततररति बंगला, ओतडआ और असतमया तथा अ‍ध्वमाग‍धी से पवूकी उत्तर प्िशे की बोतलयाँ तनकलीं। इस प्कार, आ‍धतुनक आय्व भाषाए ँसंसककृ त से तवकतसत हैं। संसककृ त का वयापक प्भाव इन सब पर ह।ै

ससं क्ृ त सयावि्् ्े इवतियास ्या उदे्श् संसककृ त भाषा और सातहतय के तवकास का ज्ान उसके इततहास से तमलता ह।ै यगुों से तवतभनन प्वकृतत्तयों के कारण जो सातहतय-प्कार तवकतसत हुए हैं, उनका आकलन इततहास में होता ह।ै हजारों ग्नथों की रातश में गणु और महत्व की दृतटि से चनेु हुए ग्नथों का संतक्षप्त पररचय इततहास ि ेितेा ह ैतथा परेू वाङ्मय में उस ग्नथ की तसथतत भी बताता ह।ै अकेले पाठक को समपणू्व वाङ्मय का कम समय में पररचय िनेा इततहास का काम ह।ै संसककृ त भाषा न जानने वाले लोग भी सातहतय के इततहास से ग्नथों तथा ग्नथकारों के तवषय में एवं उनके उद्भव की तसथततयों को जान सकते हैं। यह संसककृ त सातहतय के इततहास की उपयोतगता ह।ै

ससं क्ृ त सयावि्् एवं सम्यालीन प्रवकृवति्यँा तवतभनन यगुों में जो संसककृ त सातहतय का तवकास हुआ, वह तातकातलक पररतसथततयों के अनरुूप था। सातहतय के अनशुीलन से उन पररतसथततयों का अनमुान होता ह।ै वसततु: जनसामानय को धयान में रखकर ही सातहततय क-प्वकृतत्तयाँ पनपती हैं। वैतिक सातहतय के तवकास में तातकातलक ‍धातम्वक जीवन का आभास तमलता ह।ै उस यगु में यह भाषा लोकवयवहार में भी थी, तकनत ुयज्ानठुिान, नैततक तनयमों का अनपुालन तथा प्ककृ तत के उपािानों के प्तत रिद्धा की भावना का मलूय अत‍धक होने से इन पर बल िनेे वाला वैतिक सातहतय ही सरुतक्षत रह सका ह।ै लौतकक सातहतय में लौतकक भावनाओ ंका प्काशन करने वाली सामग्ी अतयलप ह।ै

लौतकक संसककृ त सातहतय के आरमभ काल में रामायण में सनुिर भाषा में आिश्वकी सथापना की गई, जबतक महाभारत में इततहास के बहाने राजनीतत, ‍धम्व, समाज और संसककृ तत का यथाथ्व प्कातशत हुआ। परुाणों में समपणू्व भारत के तीथ्वसथलों, आखयानों एवं

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इततहास के अततररति ज्ान के अनयानय क्षेत्रों को आलोतकत करने की प्वकृतत्त ह।ै इन तीनों का अवगाहन जन-जन की अनौपचाररक तशक्षा का सवरूप था।

परवतकी सातहतय के तवकास में तवतव‍ध प्वकृतत्तयाँ काम करती हैं। आरतमभक नाटकों तथा कावयों में भाषा की सरलता यह प्कट करती ह ैतक सरल संसककृ त वयापक रूप से प्चतलत थी। अनेक क्षेत्रों में जनता संसककृ त और प्ाककृ त िोनों समझती और बोलती भी थी। आगे चलकर संसककृ त का भातषक अनशुासन कठोर हो जाने पर सा‍धारण जनता संसककृ त छोडकर प्ाककृ त (तथा अपभ्शं) की ओर प्वकृत्त होने लगी। तकनत ुपररतनतठित तशक्षासंसककृ त माधयम से होने के कारण, तशतक्षतों के अनरुूप, संसककृ त सातहतय रिमश: कतठन होता गया। इस तसथतत में पातण्तयपणू्व कावय-नाटक-गद्य,पद्य आति रच ेगए। अत‍धसंखयसातहततयक रचनाए ँराजारिय में तलखी गइषं तजनमें यथाथ्व से अत‍धक अलंककृ त अतभवयतति पर बल तिया गया। जनरुतच ऐसी रचनाओ ंके प्तत हो गई।

भारतवष्व पर तविशेी आरिमणों के बाि संसककृ त की ‍धारा पारमपररक कावय शलैी में नाटक, चमप,ू गद्य-कावय द्ारा िशेी राजाओ ंकी तवजय अथवा वयतति-तवशषे के वण्वन में प्वकृत्त हुई। िसूरी ओर कुछ कावयों में तवितेशयों के साथ यदु्धों का भी तनरूपण हुआ।

आ‍धतुनक काल में सामातजक-राजनीततक समसयाओ ंकी ओर संसककृ त सातहतयकारों का धयान गया। सवा‍धीनता-संग्ाम में सातहतय की सज्वना कहीं प्तीकातमक, कहीं प्तयक्ष रूप से हुई। आज का संसककृ त सातहतय (कावय, नाटक, लघकुथा, उपनयास आति) तव‍धवा-तववाह, िहजे-प्था, भ्टिाचार, राजनीतत, तशक्षा का क्षरण इतयाति तवतव‍ध तवषयों को रेखांतकत करते हुए तलखा गया ह।ै प्ाचीन संसककृ त सातहतय में उतना वैतवधय नहीं था तजतना आ‍धतुनक संसककृ त में तमलता ह।ै तवतभनन यगुों की प्वकृतत्तयों को संसककृ त सातहतय की परमपरा ने आतमसात ्तकया ह।ै

लो्व्वियारतपछले चार हजार वषषों में संसककृ त का लोक-वयवहार तवतभनन रूपों में हो रहा ह।ै वैतिक यगु तथा विेाङ्गों के समय तक जनसामानय में ससंककृ त का वयापक प्योग था। यासक (800 ई.प.ू) ने भाषा शब्ि का प्योग लोकप्चतलत संसककृ त के अथ्व में तकया ह।ै पतञजतलने भाषा की प्वकृतत्तयों को लोकारिय कहा, उसी का तववेचन (अनवाखयान) वयाकरण करता ह।ै वालमीतक ने तशटिजनों में पररष्ककृ त तथा शषेजनों में सा‍धारण संसककृ त के प्योग का संकेत तकया ह।ै अपने ‍धम्वप्चार में जैनों ने प्ाककृ त तथा बौद्धों ने पातल का भले ही प्योग

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संस्‍कृ त साहित्य—परिच्य8

आरम्भ किया था, किन्तु ईसवी सन ्िे प्ारम्भ से दोनों िो शास्तीय कवचार-कवमश्श िे किए संसिकृ ् िा आश्रय िेना पडा। पाषाणों, ्ाम्रपत्ों आकद में अकंि् अक्भिेख (ितु छ अपवादों िो छोडिर), संसिकृ ् में ही हैं। चीनी यात्ी ह् वेनतसांग (629 ई.– 643 ई. िे बीच ्भार् भ्रमण िरने वािा) िे अनतुसार बौद्ध िोग सामानय वाद-कववाद में संसिकृ ् िा प्योग िर्े थे। रामायण और महा्भार् िा सामानय जन्ा में पाठ हो्ा था, जो संसिकृ ् िे सव्शजनगमय होने िा प्माण ह।ै िशमीरी िकव कबलहण िह्े हैं कि उनिे प्दशे में कस्तयाँ ्भी संसिकृ ्-प्ािकृ ् दोनों ्भाषाए ँसमझ्ी हैं, दसूरों िा कया िहना?

यत् स्तीणामकप किमपरं मा्कृ्भाषावदवे।प्तयावासं कविसक् वच: प्ािकृ ्ं संसिकृ ्ं च।।

(कवक्रमाङ्िदवेचरर्, 18.6)

यह ्भी ज्ा्वय ह ैकि कदलिी सल्न् िे समय (1206 ई. – 1526 ई.) ्भी अनेि संसिकृ ् अक्भिेख किसी िोि-िलयाण-िाय्श िे समारि िे रूप में किख ेगए। ्भार् िे दकषिण-पवूवी उपकनवेशों (इडंोनेकशया, थाइिैंड इतयाकद) में चौदहवीं श्ाबदी ई. ्िराज्भाषा िे रूप में संसिकृ ् िा प्चिन था। वहाँ िे संसिकृ ् अक्भिेख इसे प्माकण्िर्े हैं।

ऐसी कसथक् में यह िहा जा सि्ा ह ै कि आरम्भ में प्ाय: ईसवी सन ्िी ितु छ श्ाकबदयों ्ि जनसामानय में संसिकृ ् ्भाषा िा प्योग हो्ा था। िािक्रम से यह कशष्टजनों ्ि कशषिा ग्रनथ-रचना, वाद-कववाद, शास्ताथ्श आकद िे षिेत् में सीकम् हो गई। साकहतय-रचना िे षिेत् में व ््शमान यतुग ्ो संसिकृ ् िा वास्कवि सवण्श यतुग ह।ै

ध्यातव् बिन द्ु ♦ संसिकृ ् संसार िी प्ाचीन्म ्भाषा ह।ै♦ संसिकृ ् ्भाषा िी रचना-धारा कनरन्र प्वाहशीि ह।ै♦ ‘वसतुधवै ितु टतुमबिम’् यह उद्ोष संसिकृ ् ्भाषा िी ही दने ह।ै♦ संसिकृ ् ्भाषा वैज्ाकनि दृकष्ट से ्भारोपीय पररवार िी ्भाषा ह।ै ग्रीि, िैकटन, अगं्रेजी,

रूसी, फांसीसी, सपेनी आकद यरूोपीय ्भाषाए ँइसी पररवार िी ्भाषाए ँहैं।♦ स्भी आधतुकनि ्भार्ीय ्भाषाए ँ संसिकृ ् से कनििी हैं, जैसे—कहनदी, मराठी,

गतुजरा्ी, बंगिा, ओकडया, असकमया, पंजाबी, कसनधी आकद।♦ आधतुकनि ्भाषाओ ंिी कविास प्कक्रया इस प्िार ह—ै

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संस्सस्स कृ त भाषा—उद्भव एवस्त भाषा—उद्भव एवस् ं वत भाषा—उद्भव एव वत भाषा—उद्भव एव व् वव् व ासव्ासव् 9

(i) प्ाचीन आय्व भाषा काल —इस काल में वैतिक भाषा और प्ाचीन संसककृ त भाषा के तवकास की प्तरिया चली।

(ii) मधयकालीन आय्व भाषा काल — इस काल में पातल, प्ाककृ त तथा अपभ्शं भाषाओ ंका तवकास हुआ।

(iii) आ‍धतुनक आय्व भाषा काल — इस काल में तवतभनन प्िशेों में बोली जाने वाली अपभ्शं भाषाओ ं से आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ंका तवकास हुआ।

♦ भाषा के रूप – भाषा के िो रूप होते हैं –(i) वयावहाररक भाषा — बोलचाल की भाषा(ii) सातहततयक भाषा — सातहतय में प्यतुि भाषा

♦ संसककृ त सातहतय का तवकास – सातहततयक भाषा की िो ‍धाराए ँहैं—(i) वैतिक संसककृ त की ‍धारा(ii) लौतकक संसककृ त की ‍धारा

♦ वैतिक संसककृ त और लौतकक संसककृ त के सतन‍धकाल में रामायण तथा महाभारत ग्नथों की रचना हुई।

♦ रामायण तथा महाभारत से ही लौतकक संसककृ त का आरमभ हुआ। इसी बीच सपु्तसद्ध तवद्ान ्पातणतन का आतवभा्वव हुआ तजनहोंने अटिाधयायी नामक ग्नथ में भाषा-समबन‍धी तनयम बनाए।

♦ संसककृ त का सातहततयक तवकास चार चरणों में तवभति ह—ै(i) वैतिक सातहतय (6000 ई. प.ू से 800 ई. प.ू)(ii) रामायण-महाभारत (800 ई. प.ू से 300 ई. प.ू)(iii) मधयवतकी संसककृ त सातहतय (300 ई. से 1784 ई.)(iv) आ‍धतुनक काल (1784 से आज तक)

♦ वैतिक और लौतकक संसककृ त में भिे—वैतिक —संतहताए,ँ ब्ाह्मण, आरणयक, उपतनषि।्

♦ लौतकक —वेिा�, रामायण, महाभारत, नाटक, कावय, कथा सातहतय, आयवुवेि इतयाति तथा वैज्ातनक सातहतय।

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संस्‍कृ त साहित्य—परिच्य10

♦ संसककृ त भाषा संसार की अतयनत प्ाचीन भाषा ह।ै इसमें भारतीय सभयता और संसककृ तत से समबद्ध रचनाओ ंका बहुत बडा भण्ार ह।ै इस भाषा में प्ाचीन समय से आज तक रचनाए ँहोती आ रही हैं। यह भाषा भारोपीय (इं् ो-यरूोतपयन) पररवार की भाषा ह।ै

♦ प्ाय: 6000 ई. प.ू में वतैिक अथा्वत ्प्ाचीन संसककृ त भाषा का तवकास माना जाता ह।ै 700 ई. प.ू में पातणतन ने इसे पररतनतठित रूप तिया। इस काल के बाि सभी संसककृ त ग्नथ इसी भाषा में तलख ेगए। इस प्कार संसककृ त के वैतिक और लौतकक िो रूप सामने आते हैं। आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ंका संसककृ त से घतनठि समबन‍ध ह।ै पातल, प्ाककृ त तथा अपभ्शं भाषाओ ंका तवकास भी वैतिक तथा लौतकक संसककृ त से ही हुआ ह।ै क्षेत्रीय अपभ्शं भाषाओ ंसे तवतभनन आ‍धतुनक आय्व भाषाओ ंका तवकास हुआ ह।ै इस प्कार संसककृ त समसत आय्व भाषाओ ंकी जननी ह।ै

अभ्यास-प्रशन

प्. 1. संसककृ त भाषा के महत्व को पाँच वाकयों में तलतखए।प्. 2. भारोपीय भाषा पररवार में कौन-कौन सी मखुय भाषाए ँहैं?प्. 3. संसककृ त से तवकतसत होने वाली भारतीय भाषाओ ंके नाम तलतखए।प्. 4. द्रतवड पररवार की कौन-सी भाषाए ँसंसककृ त से प्भातवत हैं?प्. 5. वैतिक संसककृ त और लौतकक संसककृ त में कया अनतर ह?ै उिाहरण िकेर बताइए।प्. 6. संसककृ त सातहतय के इततहास का कया उद्शेय ह?ैप्. 7. प्ाककृ त के कौन-कौन से मखुय भिे हैं?प्. 8. ररति सथान भररए —

(क) ......................... नामक ग्नथ में भाषा-समबन‍धी तनयम बताए गए हैं। (ख) ......................... भाषा से तहनिी का तवकास हुआ ह।ै (ग) आरतमभक बौद्ध सातहतय ......................... भाषा में तलखा गया।(घ) वैतिक संसककृ त और लौतकक संसककृ त के सतन‍ध-काल में हमें..............................

और ......................... जैसे ग्नथ तमलते हैं। प्. 9. “क” सतमभ में तिए गए पररवारों से “ख” सतमभ में िी गई भाषाओ ंको तमलाइए।

सतमभ ् सतमभ ख भारत-यरूोपीय पररवार मराठी, ग्ीक, लैतटन, तेलगु,ु कननडद्रतवड पररवार संसककृ त, ओतडया, तहनिी, मलयालम

अगं्ेजी, पंजाबी, रूसी, ततमल।

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